Parashurameshwar (परशुरामेश्वर - काशी में भगवान परशुराम द्वारा स्थापित शिवलिंग)

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Parashurameshwar
परशुरामेश्वर

दर्शन महात्म्य : वैशाख शुक्ल तृतीया (परशुराम जयन्ती, अक्षय तृतीया)

परशुराम तीर्थ (काशी) : काशी में वह स्थान जहां परशुराम जी क्षत्रिय हत्या के पाप से मुक्त हुए, पुराणों में परशुराम तीर्थ के नाम से सर्वविदित हुआ। परशुराम जी ने काशी में जिस स्थान पर शिवलिंग स्थापना करके भगवान महादेव की आराधना कर उनको प्रसन्न किया तथा क्षत्रिय हत्या से मुक्ति का आशीर्वाद प्राप्त किया, वही स्थान काशी में परशुराम तीर्थ है। जिस शिवलिंग की स्थापना उनके द्वारा काशी में हुई उसे परशुरामेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। 

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०८३
ततः परशुरामस्य तीर्थं चातीव सिद्धिदम् । यत्र क्षत्रवधात्पापाज्जामदग्न्यो विमुक्तवान् ॥७५॥
अद्यापि क्षत्रवधजं पापं तत्र प्रणश्यति । एकेन स्नानमात्रेण ज्ञानाज्ञानकृतेन च ॥७६॥

..उससे (पृथु तीर्थ से) भी बढ़कर परम सिद्धि-प्रदायक परशुराम का तीर्थ है, जहां जमदग्नि के पुत्र (परशुराम) क्षत्रियों की हत्या के पाप से मुक्त हुए थे। आज भी जाने-अनजाने में किये गये एक स्नान से ही क्षत्रिय की हत्या से उत्पन्न पाप नष्ट हो जाता है। - [स्कंदपुराण काशीखंड (अध्याय : ८३)]

नारदपुराणम्-_पूर्वार्धः/अध्यायः_५६

कार्तिके शुक्लनवमी त्वादिः कृतयुगस्य च। त्रेतादिर्माधवे शुक्ले तृतीया पुण्यसंज्ञिता ॥१४७॥

कृष्णापंचदशी माघे द्वापरादिरुदीरिता। कल्पादिः स्यात्कृष्णपक्षे नभस्यस्य त्रयोदशी ॥१४८॥

कार्तिक शुक्ल नवमी तिथी सत्ययुगादितिथि कही गयी है। वैशाख शुक्ल तृतीया त्रेता की आदि तिथि कही गयी है। पवित्र माघ की अमावस्या द्वापर की आदि तिथि कही गयी है। भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी कलियुगादि तिथि कही गयी है।

परशुराम अवतार : महिष्मती नगरी पर शक्तिशाली हैययवंशी क्षत्रिय कार्तवीर्य अर्जुन(सहस्त्रबाहु) का शासन था। वह बहुत अभिमानी था और अत्याचारी भी। एक बार अग्निदेव ने उससे भोजन कराने का आग्रह किया। तब सहस्त्रबाहु ने घमंड में आकर कहा कि आप जहां से चाहें, भोजन प्राप्त कर सकते हैं, सभी ओर मेरा ही राज है। तब अग्निदेव ने वनों को जलाना शुरु किया। एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे। अग्नि ने उनके आश्रम को भी जला डाला। इससे क्रोधित होकर ऋषि ने सहस्त्रबाहु को श्राप दिया कि भगवान विष्णु, परशुराम के रूप में जन्म लेंगे और न सिर्फ सहस्त्रबाहु का नहीं बल्कि समस्त क्षत्रियों का सर्वनाश करेंगे। इस प्रकार भगवान विष्णु ने भार्गव कुल में महर्षि जमदग्रि के पांचवें पुत्र के रूप में जन्म लिया।

 मत्स्यपुराणम्/अध्यायः_६५

॥अक्षयतृतीयाव्रतकथनं सरस्वतीव्रतकथनञ्च॥

अक्षय तृतीया-व्रत की विधि और उसका माहात्म्य

॥ ईश्वर उवाच ॥
अथान्यामपि वक्ष्यामि तृतीयां सर्वकामदाम्। यस्यां दत्तं हुतं जप्तं सर्वं भवति चाक्षयम्॥ ६५.१॥
वैशाखशुक्लपक्षे तु तृतीया यै रुपोषिता। अक्षयं फलमाप्नोति सर्वस्य सुकृतस्य च॥ ६५.२॥
सा तथा कृत्तिकोपेता विशेषेण सुपूजिता। तत्र दत्तं हुतं जप्तं सर्वमक्षयमुच्यते॥ ६५.३॥
अक्षयासन्ततिस्तस्यास्तस्यां सुकृतमक्षयम्। अक्षतैस्तु नराः स्नाता विष्णोर्दत्त्वा तथाक्षतान्॥ ६५.४॥
विप्रेषु दत्त्वा तानेव तथा सक्तून् सुसंस्कृतान्। यथान्नभुक् महाभागः फलमक्षयमश्नुते॥ ६५.५॥
एकामप्युक्तवत् कृत्त्वा तृतीयां विधिवन्नरः। एतासामपि सर्वासां तृतीयानां फलं भवेत्॥ ६५.६॥
तृतीयायां समभ्यर्च्य सोपवासो जनार्दनम्। राजसूयफलं प्राप्य गतिमग्र्याञ्च विन्दति॥ ६५.७॥

भगवान् शंकर ने कहा- नारद! अब में सम्पूर्ण कामनाओं को प्रदान करने वाली एक अन्य तृतीया का वर्णन कर रहा हूँ, जिसमें दान देना, हवन करना और जप करना सभी अक्षय हो जाता है। जो लोग वैशाखमास के शुक्लपक्ष को तृतीया के दिन व्रतोपवास करते हैं, वे अपने समस्त सत्कर्मा का अक्षय फल प्राप्त करते हैं। वह तृतीया यदि कृत्तिका नक्षत्र से युक्त हो तो विशेषरूप से पूज्य मानी गयी है। उस दिन दिया गया दान किया हुआ हवन और जप सभी अक्षय बतलाये गये हैं। इस व्रत का अनुष्ठान करने वाले की संतान अक्षय हो जाती है और उस दिन का किया हुआ पुण्य अक्षय हो जाता है। इस दिन अक्षत के द्वारा भगवान् विष्णु की पूजा की जाती है, इसीलिये इसे अक्षय तृतीया कहते हैं। मनुष्य को चाहिये कि इस दिन स्वयं अक्षतयुक्त जल से स्नान करके भगवान् विष्णु की मूर्ति पर अक्षत चढ़ावे और अक्षत के साथ ही शुद्ध सत्तू ब्राह्मणों को दान दे; तत्पश्चात् स्वयं भी उसी अन्न का भोजन करे महाभाग! ऐसा करने से वह अक्षय फल का भागी हो जाता है। उपर्युक्त विधि के अनुसार एक भी तृतीया का व्रत करने वाला मनुष्य इन सभी तृतीया व्रतों के फल को प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य इस तृतीया तिथि को उपवास करके भगवान् जनार्दन की भलीभाँति पूजा करता है, वह राजसूय यज्ञ का फल पाकर अन्त में श्रेष्ठ गति को प्राप्त होता है


लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः_१_(कृतयुगसन्तानः)/अध्यायः_४५८

तद्वंशाः क्षत्रिया जाताः पुना राज्यानि चक्रिरे । पर्शुरामः प्रतिज्ञां स्वां पूरयित्वा कुरुस्थले ॥ १२५॥
स्यमन्तपञ्चकान् कुण्डान् क्षत्रियरुधिराऽञ्चितान् । कृत्वा रक्तैः पितुर्मातुर्ब्राह्मणानां जलांजलीन् ॥ १२६ ॥
श्राद्धं ददौ तदा तृप्तिं चकार पितृदेवताः । ततो जलं तथाऽन्नं च बुभुजे शान्तितः स्वयम् ॥ १२७॥
क्षत्रियाणां विनाशे तु निर्बला ये ह्यसुप्रियाः । मृषा वदन्तो जीवानां चक्रुर्वै रक्षणं तु ते ॥ १२८॥
अन्या अन्या जातयश्च जाता वर्णा विभिन्नकाः । अक्षात्रास्ते क्षात्रकर्महीना दस्यव एव वै ॥ १२९॥
व्यापारकारकाश्चान्ये दास्यकृष्यादिकारकाः । वर्तन्ते स्म भुवि लक्ष्मि! गुप्तक्षत्रियजातयः ॥ १३०॥
अथ प्रतिज्ञां सम्पूर्णां कृत्वा रामो ययौ गुरुम् । शिवं पूजयितुं दिव्ये कैलासे तत्र गोपुरे ॥ १३१ ॥
गणेशेन निरुद्धः सः क्रुधा गणपतिं तदा । रामो जघान दन्ते तं पर्शुना तु गणाधिपम् ॥ १३२॥
दन्तो भग्नस्ततश्चैकदन्तो गणेश उच्यते । आमूलाद् भग्नदन्तेन कृत्वा शूण्ढं सुदीर्घकम् ॥ १३३॥
गणेशेन धृतः शूण्ढे शूण्ढश्च वर्धितो बहुः । त्रैलोक्ये भ्रामयित्वा तं रामं चिक्षेप वारिधौ ॥ १३४॥
जडीभूतं पुनर्धृत्वा गोलोके विनिपातितः । श्रीकृष्णचरणांभोजे पातकानां विशुद्धये ॥ १३५॥
ततः शुद्धं कृतं राममुत्थाप्य श्रीगणेश्वरः । चिक्षेप परशुरामं शंकरस्य हि सन्निधौ ॥ १३६॥
ददर्श शंकरं प्राप्याऽऽशीर्वादं चाप्यनुग्रहम् । शंकरस्य शिवायाश्च प्रसाद्य श्रीगणेश्वरम् ॥ १३७॥
चक्रे स्तुतिं शिवं शिवां तं तु शिवाऽऽह मंगलम् । अमरो भव हे पुत्र! वत्स सुस्थिरतां व्रज ॥ १३८॥
सर्वप्रसादात् सर्वत्र जयोऽस्तु तव सन्ततम् । सर्वान्तरात्मा भगवाँस्तुष्टः स्यात् सन्ततं हरिः ॥ १३९॥
भक्तिर्भवतु ते कृष्णे शिवदे च शिवे गुरौ । शंभुः प्राह सदा शिष्य चिरंजीवो भव ध्रुवः ॥ १४० ॥
ततः परशुरामोऽसौ जगाम तपसे भुवम् । महेन्द्रपर्वते स्थित्वा तपः करोति शाश्वतम् ॥ १४१ ॥



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EXACT GPS LOCATION : 25.313605912674525, 83.01337013992365

परशुरामेश्वर महादेव, नंदन साहू लेन (गोला गली समीप) स्थित है।
Parshurameshwar Mahadev is situated at Nandan Sahu Lane (near Gola Gali).

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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