Shankheshwar (शंखेश्वर - काशी में ऋषि शंख द्वारा स्थापित शिवलिंग)

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Shankheshwar

शंखेश्वर - काशी में ऋषि शंख द्वारा स्थापित शिवलिंग

काशी में ऋषि शंख द्वारा स्थापित लिंग (शंखेश्वर) तथा ऋषि लिखित द्वारा स्थापित लिंग (लिखितेश्वर) के पौराणिक नाम का लोप  : स्कंदपुराण काशीखंड अध्याय ९७ में वर्णित है कि व्यासेश्वर (कर्णघंटा) के पूर्व दिशा में दो ऋषि शंख और लिखित द्वारा स्थापित हैं। पौराणिक नाम का लोप होने के कारण तथा स्कन्दपुराण काशीखण्ड के गहन अध्यन की उदासीनता ने बोलचाल मे नामकरण (संतानेश्वर) कर दिया गया तो भगवान संतानेश्वर महादेव के नाम से जाने जाने लगे। स्कंदपुराण काशीखंड का अध्ययन करने से यह पता चलता है कि व्यासेश्वर (कर्णघंटा) के पूर्व दिशा में शंखेश्वर तथा लिखितेश्वर लिंग की स्थिति है। अतः भगवान शंखेश्वर तथा लिखितेश्वर महादेव के पौराणिक नाम का लोप हो जाने के कारण क्षेत्रवासियों ने संतानेश्वर एवं दूसरे लिंग का नाम मनचाहा कहना प्रारम्भ कर दिया है।

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड

व्यासेश्वरस्य पूर्वेण द्वौ शंखलिखितेश्वरौ । तौ दृश्यौ यत्नतः काश्यां महाज्ञान प्रवर्तकौ ।। ९७.१७८।।

व्यासेश्वर (कर्णघंटा कुंड, व्यास लिंग एवं व्यास कूप) के पूर्व में दो देवता शंखलिखितेश्वर (लिंग रूपेण, ऋषि शंख और ऋषि लिखित द्वारा स्थापित) हैं। काशी में उन्हें प्रयत्नपूर्वक देखना (उनका दर्शन-पूजन करना) चाहिए। वे ज्ञान के प्रवर्तक हैं।

महाभारत: शान्ति पर्व

त्रयोविंश (23) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)


। व्यास जी का शंख और लिखित की कथा सुनाते हुए राजा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को राजधर्म में ही दृढ़ रहने की आज्ञा देना 


वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! निद्राविजयी अर्जुन के ऐसा कहने पर भी कुरुकुलनन्दन पाण्डुपुत्र कुन्तीकुमार युधिष्ठिर जब कुछ न बोले, तब द्वैपायन व्यास जी ने इस प्रकार कहा।


व्यास जी बोले- सौम्य युधिष्ठिर! अर्जुन ने जो बात कही है, वह ठीक है। शास्त्रोक्त परम धर्म गृहस्थ-आश्रम का ही आश्रय लेकर टिका हुआ है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर! तुम शास्त्र के कथनानुसार विधिपूर्वक स्वधर्म का ही आचरण करो। तुम्हारे लिये गृहस्थ-आश्रम को छोड़कर वन में जाने का विधान नहीं है। पृथ्वीनाथ! देवता, पितर, अतिथि और भृत्यगण सदा गृहस्थ का ही आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं; अतः तुम उनका भरण-पोषण करो। जनेश्वर! पशु, पक्षी तथा अन्य प्राणी भी गृहस्थों से ही पालित होते हैं; गृहस्थ ही सबसे श्रेष्ठ है। युधिष्ठिर! चारों आश्रमों में यह गृहस्थाश्रम ही ऐसा है, जिसका ठीक-ठीक पालन करना बहुत कठिन है। जिनकी इन्द्रियाँ दुर्बल हैं, उनके द्वारा गृहस्थ-धर्म का आचरण दुष्कर है। तुम अब उसी दुष्कर धर्म का पालन करो। तुम्हें वेद का पूरा-पूरा ज्ञान है, तुमने बड़ी भारी तपस्या की है। इसलिये अपने पिता-पितामहों के इस राज्य का भार तुम्हें एक धुरन्धर पुरुष की भाँति वहन करना चाहिये।


महाराज! तप, यज्ञ, विद्या, भिक्षा, इन्द्रियसंयम, ध्यान, एकान्त-वास का स्वभाव, संतोष और यथाशक्ति शास्त्रज्ञान- ये सब गुण तथा चेष्टाएँ ब्राह्मणों के लिये सिद्धि प्रदान करने वाली हैं। प्रजानाथ! अब मैं पुनः क्षत्रियों के धर्म बता रहा हूँ, यद्यपि वह तुम्हें भी ज्ञात है। यज्ञ, विद्याभ्यास, शत्रुओं पर चढ़ाई करना, राजलक्ष्मी की प्राप्ति से कभी संतुष्ट न होना, दुष्टों को दण्ड देने के लिये उद्यत रहना, क्षत्रिय तेज से सम्पन रहना, प्रजा की सब ओर से रक्षा करना, समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त करना, तप, सदाचार, अधिक द्रव्योपार्जन और सत्पात्र को दान देना- ये सब राजाओं के कर्म हैं, जो सुन्दर ढंग से किये जाने पर उनके इहलोक और परलोक दोनों को सफल बनाते हैं, ऐसा हमने सुना है।


कुन्तीनन्दन! इनमें भी दण्ड धारण करना राजा का प्रधान धर्म बताया जाता है; क्योंकि क्षत्रिय में बल की नित्य स्थिति है और बल में ही दण्ड प्रतिष्ठित होता है। राजन्! ये विद्याएँ (धार्मिक क्रियाएँ) क्षत्रियों को सदा सिद्धि प्रदान करने वाली हैं। इस विषय में बृहस्पति जी ने इस गाथा का भी गान किया है। जैसे साँप बिल में रहने वाले चूहे आदि जीवों को निगल जाता है; उसी प्रकार विरोध न करने वाले राजा और परदेश में न जाने वाले ब्राह्मण- इन दो व्यक्तियों को भूमि निगल जाती है। सुना जाता है कि राजर्षि सुद्युम्न ने दण्ड धारण के द्वारा ही प्रचेताकुमार दक्ष के समान परम सिद्धि प्राप्त कर ली।


युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन्! पृथिवीपति सुद्युम्न ने किस कर्म से परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी। मैं उन नरेश का चरित्र सुनना चाहता हूँ।


व्यास जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं- शंख और लिखित नाम वाले दो भाई थे। दोनों ही कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। बाहुदा नदी के तट पर उन दोनों के अलग-अलग परम सुन्दर आश्रम थे, जो सदा फल-फूलों से लदे रहने वाले वृक्षों से सुशोभित थे।


एक दिन लिखित शंख के आश्रम पर आये। दैवेच्छा से शंख भी उसी समय आश्रम से बाहर निकल गये थे। भाई शंख के आश्रम में जाकर लिखित ने खूब पके हुए बहुत से फल तोड़कर गिराये और उन सब को लेकर वे ब्रह्मर्षि बड़ी निश्चिन्तता के साथ खाने लगे। वे खा ही रहे थे कि शंख भी आश्रम पर लौट आये। भाई को फल खाते देख शंख ने उनसे पूछा- 'तुमने ये फल कहाँ से प्राप्त किये हैं और किसलिये तुम इन्हें खा रहे हो?' लिखित ने निकट जाकर बड़े भाई को प्रणाम किया और हँसते हुए-से इस प्रकार कहा- 'भैया! मैंने ये फल यहीं से लिये हैं।' तब शंख ने तीव्र रोष में भरकर कहा- 'तुमने मुझसे पूछे बिना स्वयं ही फल लेकर यह चोरी की है। अतः तुम राजा के पास जाओ और अपनी करतूत उन्हें कह सुनाओ।'


उनसे कहना- 'नृपश्रेष्ठ! मैंने इस प्रकार बिना दिये हुए फल ले लिये हैं, अतः मुझे चोर समझकर अपने धर्म का पालन कीजिये। नरेश्वर! चोर के लिये जो नियत दण्ड हो, वह शीघ्र मुझे प्रदान कीजिये’। महाबाहो! बड़े भाई के ऐसा कहने पर उनकी आज्ञा से कठोर व्रत का पालन करने वाले लिखित मुनि राजा सुद्युम्न के पास गये। सुद्युम्न ने द्वारपालों से जब यह सुना कि लिखित मुनि आये हैं तो वे नरेश अपने मन्त्रियों के साथ पैदल ही उनके निकट गये। राजा ने उन धर्मज्ञ मुनि से मिलकर पूछा- 'भगवन्! आपका शुभागमन किस उद्देश्य से हुआ है? यह बताइये और उसे पूरा हुआ ही समझिये'। उनके इस तरह कहने पर विप्रर्षि लिखित ने सुद्युम्न से यों कहा- 'राजन्! पहले यह प्रतिज्ञा कर लो कि हम करेंगे, उसके बाद मेरा उद्देश्य सुनो और सुनकर उसे तत्काल पूरा करो। नरश्रेष्ठ! मैंने बड़े भाई के दिये बिना ही उनके बगीचे से फल लेकर खा लिये हैं; महाराज! इसके लिये मुझे शीघ्र दण्ड दीजिये’।


सुद्युम्न ने कहा- ब्राह्मणशिरोमणे! यदि आप दण्ड देने में राजा को प्रणाम मानते हैं तो वह क्षमा करके आपको लौट जाने की आज्ञा दे दे, इसका भी उसे अधिकार है। आप पवित्र कर्म करने वाले और महान् व्रतधारी हैं। मैंने अपराध को क्षमा करके आपको जाने की आज्ञा दे दी। इसके सिवा, यदि दूसरी कामनाएँ आपके मन में हों तो उन्हें बताइये, मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।


व्यास जी ने कहा- महामना राजा सुद्युम्न के बारंबार आग्रह करने पर भी ब्रह्मर्षि लिखित ने उस दण्ड के सिवा दूसरा कोई वर नहीं माँगा। तब उन भूपाल ने महामना लिखित के दोनों हाथ कटवा दिये। दण्ड पाकर लिखित वहाँ से चले गये। अपने भाई शंख के पास जाकर लिखित ने आर्त होकर कहा- 'भैया! मैंने दण्ड पा लिया। मुझ दुर्बुद्धि के उस अपराध को आप क्षमा कर दें’।


शंख बोले- धर्मज्ञ! मैं तुम पर कुपित नहीं हूँ। तुम मेरा कोई अपराध नहीं करते हो। ब्रह्मन्! हम दोनों का कुल इस जगत् में अत्यन्त निर्मल एवं निष्कलंक रूप में विख्यात है। तुमने धर्म का उल्लघंन किया था, अतः उसी का प्रायश्चित किया है। अब तुम शीघ्र ही बाहुदा नदी के तट पर जाकर विधिपूर्वक देवताओं, ऋषियों और पितरों का तर्पण करो। भविष्य में फिर कभी अधर्म की ओर मन न ले जाना।


महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 40-47 का हिन्दी अनुवाद शंख की वह बात सुनकर लिखित ने उस समय पवित्र नदी बाहुदा में स्नान किया और पितरों का तर्पण करने के लिये चेष्टा आरम्भ की। इतने ही में उनके कमल-सदृश सुन्दर दो हाथ प्रकट हो गये। तदनन्तर लिखित ने चकित होकर अपने भाई को वे दोनों हाथ दिखाये। तब शंख ने उनसे कहा- 'भाई! इस विषय में तुम्हें शंका नहीं होनी चाहिये। मैंने तपस्या से तुम्हारे हाथ उत्पन्न किये हैं। यहाँ देव का विधान ही सफल हुआ है’। तब लिखित ने पूछा- महातेजस्वी द्विजश्रेष्ठ! जब आपकी तपस्या का ऐसा बल है तो आपने पहले ही मुझे पवित्र क्यों नहीं कर दिया? शंख बोले- भाई! यह ठीक है, मैं ऐसा कर सकता था; परंतु मुझे तुम्हें दण्ड देने का अधिकार नहीं है। दण्ड देने का कार्य तो राजा का ही है। इस प्रकार दण्ड देकर राजा सुद्युम्न और उस दण्ड को स्वीकार करके तुम पितरों सहित पवित्र हो गये। व्यास जी कहते हैं- पाण्डव श्रेष्ठ युधिष्ठिर! उस दण्ड- प्रदानरूपी कर्म से राजा सुद्युम्न उच्चतम पद को प्राप्त हुए। उन्होंने प्रचेताओं के पुत्र दक्ष की भाँति परम सिद्धि प्राप्त की थी। महाराज! प्रजाजनों का पूर्ण रूप से पालन करना ही क्षत्रियों का मुख्य धर्म है। दूसरा काम उसके लिये कुमार्ग के तुत्य है; अतः तुम मन को शोक में न डुबाओ। धर्म के ज्ञाता सत्पुरुष! तुम अपने भाई की हितकर बात सुनो। राजेन्द्र! दण्ड-धारण ही क्षत्रिय-धर्म के अन्तर्गत है, मूँड़ मुड़ाकर संन्यासी बनना नहीं। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में व्यास-वाक्य-विषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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शंखेश्वर काठ की हवेली, K.34/4 (भाट की गली, गोलघर) में स्थित है।
Shankheshwar is located at Kath Ki Haveli  K.34/4 (Bhat Ki Gali, Golghar).

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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