Dashaswamedheshwar
दशाश्वमेधेश्वर - दशाश्वमेध घाट, वाराणसी
- : दर्शन महात्म्य : -
ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा से गंगा दशहरा पर्यन्त, विजयादशमी (दशहरा), प्रत्येक मास की शुक्लपक्ष दशमी
ब्रह्मेश्वरः प्रयोगे च ब्रह्मणा स्थापितः पुरा॥ दशाश्वमेधतीर्थे हि चतुर्वर्गफलप्रदः ॥ १३ ॥
तथा सोमेश्वरस्तत्र सर्ब्वापद्विनिवारकः ॥ भारद्वाजेश्वरश्चैव ब्रह्मवर्चःप्रवर्द्धकः ॥१४॥
शूलटंकेश्वरः साक्षात्कामनाप्रद ईरितः ॥ माधवेशश्च तत्रैव भक्तरक्षाविधायकः ॥ १५॥
पूर्व समय ब्रह्मा द्वारा प्रयाग के दशाश्वमेध तीर्थ में स्थापित किया गया ब्रह्मेश्वर नामक लिंग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को देनेवाला है। वहीं पर सभी विपत्तियों को दूर करने वाला सोमेश्वर नामक लिंग तथा ब्रह्मतेज की वृद्धि करने वाला भारद्वाजेश्वर नामक लिंग है। वहीं पर कामनाओं को देनेवाला साक्षात् शूलटंकेश्वर लिंग तथा भक्तों की रक्षा करने वाला माधवेश्वर लिंग बताया गया है।
मार्कण्डेय उवाच -
दशाश्वमेधं राजेन्द्र सर्वतीर्थोत्तमोत्तमम् । तीर्थं सर्वगुणोपेतं महापातकनाशनम् ॥ ५० ॥
तत्रागता महाभागा स्नातुकामा सरस्वती । पुण्यानां परमा पुण्या नदीनामुत्तमा नदी ॥ ५१ ॥
नाममात्रेण यस्यास्तु सर्वपापैः प्रमुच्यते । स्नातास्तत्र दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः ॥ ५२ ॥
दशाश्वमेधे सा राजन्नियता ब्रह्मचारिणी । आराधयित्वा देवेशं परं निर्वाणमागतीः ॥ ५३ ॥
कालुष्यं ब्रह्मसम्भूता संवत्सरसमुद्भवम् । प्रक्षालयितुमायाति दशम्यामाश्विनस्य च ॥ ५४ ॥
उपोष्य रजनीं तां तु सम्पूज्य त्रिपुरान्तकम् । राजन्निष्कल्मषा यान्ति श्वोभूते शाश्वतं पदम् ॥ ५५ ॥
श्री मार्कण्डेय जी ने कहा: हे महाराज! दशाश्वमेध सभी उत्कृष्ट तीर्थों में से एक है। इसमें सभी अच्छे गुण विद्यमान हैं। यह महान् पापों का नाश करने वाला है। सरस्वती एक पुण्यदायी नदी है। यह सभी पुण्यदायी नदियों में सर्वप्रमुख है। यह सभी नदियों में सर्वोत्तम है। इसके नाम मात्र से ही मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है। जो लोग इसमें पवित्र स्नान करते हैं, वे स्वर्ग जाते हैं। जो लोग उसमें मर जाते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। वह नदी सरस्वती भी पवित्र स्नान की इच्छा से दशाश्वमेध में आती है। हे राजन, वह ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती है। देवों के स्वामी को प्रसन्न करके वह मोक्ष में महानतम राहत प्राप्त करती है। वर्ष भर के संचित पापों को धोने के लिए ब्रह्मा से उत्पन्न नदी आश्विन मास की दशमी तिथि (विजय दशमी, दशहरा) को यहां आती है। रात भर उपवास रखने और त्रिपुर के वध करने वाले की पूजा करने के बाद, वह पापों से मुक्त हो जाती है और सुबह शाश्वत पद को प्राप्त करती है।
युधिष्ठिर उवाच -
सरस्वती महापुण्या नदीनामुत्तमा नदी ।
युधिष्ठिर ने कहा: सभी नदियों में सबसे उत्कृष्ट, अत्यंत पुण्यदायी नदी, सरस्वती, वर्ष में एक बार स्नान करने के लिए दशाश्वमेध में आती है। क्या आश्विन मास की दशमी (विजय दशमी, दशहरा) के दिन इस तीर्थ का कोई विशेष प्रभाव होता है?
श्रीमार्कण्डेय उवाच -
राजन्नाश्वयुजे मासि दशम्यां तद्विशिष्यते । पार्थिवेषु च तीर्थे तु सर्वेष्वेव न संशयः ॥ ५६ ॥
दशाश्वमेधिके राजन्नित्यं हि दशमी शुभा । विशेषादाश्विने शुक्ला महापातकनाशिनी ॥ ५७ ॥
तस्या स्नात्वार्चयेद्देवानुपवासपरायणः । श्राद्धं कृत्वा विधानेन पश्चात्सम्पूजयेच्छिवम् ॥ ५८ ॥
तत्रस्थां पूजयेद्देवीं स्नातुकामां सरस्वतीम् । नमो नमस्ते देवेशि ब्रह्मदेहसमुद्भवे ॥ ५९ ॥
श्री मार्कण्डेय जी ने कहा: हे राजा, अश्वयुज (आश्विन) महीने में दसवें दिन (आश्विन शुक्ल दशमी), यह पवित्र शक्ति में बढ़ जाता है। पृथ्वी के सभी तीर्थों में यह सर्वाधिक उत्तम है। दशाश्वमेध में, हे राजा, दशमी (दसवां चंद्र दिवस) हमेशा शुभ होती है। विशेषकर आश्विन मास में शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि महान पापों का नाश करने वाली होती है। उस दिन, एक भक्त को इसमें संलग्न रहना चाहिए; पवित्र स्नान करने के बाद व्रत का पालन करें और देवताओं की पूजा करें। नियमों के अनुसार श्राद्ध कर्म करने के बाद, उसे शिव की पूजा करनी चाहिए।
कुरु पापक्षयं देवि संसारान्मां समुद्धर । गन्धधूपैश्च सम्पूज्य ह्यर्चयित्वा पुनःपुनः ॥ ६० ॥
दश प्रदक्षिणा दत्त्वा सूत्रेण परिवेष्टयेत् । कपिलां तु ततो विप्रे दद्याद्विगतमत्सरः ॥ ६१ ॥
सर्वलक्षणसम्पन्नां सर्वोपस्करसंयुताम् । दत्त्वा विप्राय कपिलां न शोचति कृताकृते ॥ ६२ ॥
वहाँ उपस्थित तथा पवित्र स्नान की इच्छा रखनेवाली दिव्य नदी सरस्वती की भी वंदना करनी चाहिए (तथा सम्बोधन करना चाहिए) : "हे ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न हुई देवों की देवी, आपको नमस्कार है, नमस्कार है! हे दिव्य नदी, पापों का नाश करो। मुझे संसार-भव से मुक्ति दो। उसे बार-बार सुगन्धित सुगंध और धूप से पूजा करनी चाहिए। दस बार परिक्रमा करने के बाद उसे धागे से घेरना चाहिए। बिना किसी दुर्भावना के, भक्त कपिल गाय ब्राह्मण को अर्पित करता है। सभी अच्छे गुणों से युक्त कपिला को ब्राह्मणों को भेंट करने के बाद, भक्त को अपनी भूल-चूक के लिए पश्चाताप करने की आवश्यकता नहीं होती।
पश्चाज्जागरणं कुर्याद्घृतेनाज्वाल्य दीपकम् । पुराणपठनेनैव नृत्यगीतविवादनैः ॥ ६३ ॥
वेदोक्तैश्चैव पूजयेच्छशिशेखरम् । प्रभाते विमले पश्चात्स्नात्वा वै नर्मदाजले ॥ ६४ ॥
ब्राह्मणान् भोजयेद्भक्त्या शिवभक्तांश्च योगिनः । एवं कृते ततो राजन् सम्यक्तीर्थफलं लभेत् ॥ ६५ ॥
तत्र तीर्थे तु यः स्नात्वा पूजयेच्छङ्करं नरः । दशाश्वमेधावभृथं लभते पुण्यमुत्तमम् ॥ ६६ ॥
पूतात्मा तेन पुण्येन रुद्रलोकं स गच्छति । आरूढः परमं यानं कामगं च सुशोभनम् ॥ ६७ ॥
तत्र दिव्याप्सरोभिस्तु वीज्यमानोऽथ चामरैः । क्रीडते सुचिरं कालं जयशब्दादिमङ्गलैः ॥ ६८ ॥
ततोऽवतीर्णः कालेन इह राजा भवेद्ध्रुवम् । हस्त्यश्वरथसम्पन्नो महाभोगी परंतपः ॥ ६९ ॥
दशाश्वमेधे यद्दानं दीयते शिवयोगिनाम् । दशाश्वमेधसदृशं भवेत्तन्नात्र संशयः ॥ ७० ॥
इसके बाद उसे घी का दीपक जलाना चाहिए और रात भर जागकर पुराणों का पाठ करना चाहिए, नृत्य करना चाहिए और गाना चाहिए। उसे वेदों में वर्णित जाप्य के द्वारा चन्द्रमाधारी भगवान की आराधना करनी चाहिए। जब सूर्य स्पष्ट रूप से उदय हो जाए, तो उसे नर्मदा जल में पवित्र स्नान करना चाहिए और भक्तिपूर्वक शिवभक्त ब्राह्मणों और योगियों को भोजन कराना चाहिए। हे राजा, ऐसा करने से उसे तीर्थ का पूर्ण लाभ प्राप्त होगा। जो मनुष्य वहाँ तीर्थ में पवित्र स्नान करता है और शंकर भगवान की पूजा करता है, उसे दस अश्वमेध यज्ञों के अवभृथ स्नान का उत्तम पुण्य प्राप्त होता है। उस पुण्य से शुद्ध हुई आत्मा के साथ वह एक हवाई वाहन पर सवार होकर रुद्रलोक को जाता है, जो बहुत उत्कृष्ट है और जहां चाहे वहां जा सकता है। वहाँ, दिव्य अप्सराएँ उसे चौरियों से हवा देती हैं और 'विजयी बनो' आदि की मंगल ध्वनियाँ निकालती हैं। इस प्रकार वह बहुत देर तक क्रीड़ा करता है। समय आने पर, वह यहाँ पृथ्वी पर आता है और निश्चित रूप से एक ऐसा राजा बन जाता है जो अपने शत्रुओं को जला देगा, महान सुखों का आनंद लेगा और हाथियों, घोड़ों और रथों से भरपूर होगा। दशाश्वमेध तीर्थ में शिवयोगियों को दिया गया दान निस्संदेह दस अश्वमेध यज्ञों के बराबर होगा।
सर्वेषामेव यज्ञानामश्वमेधो विशिष्यते । दुर्लभः स्वल्पवित्तानां भूरिशः पापकर्मणाम् ॥ ७१ ॥
तत्र तीर्थे तु राजेन्द्र दुर्लभोऽपि सुरासुरैः । प्राप्यते स्नानदानेन इत्येवं शङ्करोऽब्रवीत् ॥ ७२ ॥
अकामो वा सकामो वा मृतस्तत्र नरेश्वर । देवत्वं प्राप्नुयात्सोऽपि नात्र कार्या विचारणा ॥ ७३ ॥
सभी यज्ञों में अश्वमेध सबसे श्रेष्ठ है। यह अल्प धन वाले मनुष्यों के लिए तथा पाप कर्म करने वाले मनुष्यों के लिए तो और भी अधिक दुर्गम है। शंकर जी ने कहा है कि यद्यपि यह स्थान सुरों और असुरों के लिए दुर्गम है, तथापि इस तीर्थ में पवित्र स्नान और दान से इसे प्राप्त किया जा सकता है। जो मनुष्य वहाँ मरता है, चाहे वह वहाँ जाना चाहे या न चाहे, वह देवपद को प्राप्त करता है। इस सम्बन्ध में कोई संदेह करने की आवश्यकता नहीं है।
अग्निप्रवेशं यः कुर्यात्तत्र तीर्थे नरोत्तम । अग्निलोके वसेत्तावद्यावदाभूतसम्प्लवम् ॥ ७४ ॥
हे पुरुषों में श्रेष्ठ! जो मनुष्य दशाश्वमेध तीर्थ में अग्नि में प्रवेश करता है, वह समस्त प्राणियों के विनाश होने तक अग्निलोक में रहता है।
जलप्रवेशं यः कुर्यात्तत्र तीर्थे नराधिप । ध्यायमानो महादेवं वारुणं लोकमाप्नुयात् ॥ ७५ ॥
जो मनुष्य महादेव का ध्यान करता है और उस तीर्थ में लीन (जलमग्न) हो जाता है, वह वरुणलोक को प्राप्त करता है।
दशाश्वमेधे यः कश्चिच्छूरवृत्त्या तनुं त्यजेत् । अक्षया नु गतिस्तस्य इत्येवं श्रुतिनोदना ॥ ७६ ॥
श्रुति का यह कथन है कि यदि कोई दशाश्वमेध में वीरतापूर्ण कार्य करते हुए अपने शरीर का त्याग कर दे, तो उसका लक्ष्य चिरस्थायी होगा।
न तां गतिं यान्ति भृगुप्रपातिनो न दण्डिनो नैव च सांख्ययोगिनः ।
ध्वजाकुले दुन्दुभिशङ्खनादिते क्षणेन यां यान्ति महाहवे मृताः ॥ ७७ ॥
यत्र तत्र हतः शूरः शत्रुभिः परिवेष्टितः । अक्षयांल्लभते लोकान्यदि क्लीबं न भाषते ॥ ७८ ॥
दशाश्वमेधे संन्यासं यः करोति विधानतः । अनिवर्तिका गतिस्तस्य रुद्रलोकात्कदाचन ॥ ७९ ॥
दशाश्वमेधे यत्पुण्यं संक्षेपेण युधिष्ठिर । कथितं परया भक्त्या सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ८० ॥
जो पुरुष महान् युद्ध में दुन्दुभि और शंखों की ध्वनि से गूंजते हुए तथा ध्वजाओं को अस्त-व्यस्त रूप से फहराते हुए मरते हैं, वे जो गति प्राप्त करते हैं, वह न तो न दण्डधारी दण्डधारी संन्यासी को, न सांख्य और योगीजनों को प्राप्त होती है जो गति दशाश्वमेध तीर्थ पर प्राण त्यागने से होती है। जो वीर पुरुष शत्रुओं से घिरकर मारा जाता है, किन्तु कभी करुण क्रन्दन नहीं करता, वह पुरस्कार स्वरूप अनन्त लोकों को प्राप्त करता है। यदि कोई दशाश्वमेध तीर्थ पर वैरागी (संन्यास) का जीवन अपनाता है, तो वह रुद्रलोक से कभी नहीं लौटेगा। हे युधिष्ठिर, दशाश्वमेध से प्राप्त होने वाले पुण्य का भक्तिपूर्वक (मेरे द्वारा) संक्षेप में वर्णन किया गया है। यह समस्त पापों का नाश करने वाला है।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः_५_(अवन्तीखण्डः)/अवन्तीक्षेत्रमाहात्म्यम्/अध्यायः_१७
॥ सनत्कुमार उवाच ॥
दशाश्वमेधिके स्नात्वा दृष्ट्वा देवं महेश्वरम् ॥ दशानामश्वमेधानां फलं प्राप्नोति मान वः ॥ १ ॥
मनुना मानवेन्द्रेण राज्ञा चैव ययातिना ॥ रघुणोशनसा चैव लोमशेन महर्षिणा ॥ २ ॥
अत्रिणा भृगुणा व्यास दत्तात्रेयेण धीमता ॥ पुरूरवसा पुण्येन नहुषेण नलेन च ॥ ३ ॥
अत्र स्नानेन संप्राप्तं दशाश्वमेधिकं फलम् ॥ संप्राप्ते द्वापरस्यांते राज्ञा बाष्कलिना तथा ॥ ४ ॥
दशानामश्वमेधानां फल प्राप्तं द्विजोत्तम ॥ कृष्णवर्णं तथा लिंगं पूजितं भक्तितः सदा ॥ ५ ॥
सनत्कुमार ने कहा: दशाश्वमेध में पवित्र स्नान करने और भगवान महेश्वर के दर्शन करने से मनुष्य को दस अश्वमेध यज्ञों का पुण्य प्राप्त होता है। यहाँ पवित्र स्नान करके जिन्हे दस अश्वमेध यज्ञों का पुण्य प्राप्त हुआ उनमे - मनु, राजा ययाति, रघु, उशनस (शुक्राचार्य), महामुनि लोमश, अत्रि, भृगु, दत्तात्रेय, पुरुरवा, नहुष और नल हैं। हे श्रेष्ठ ब्राह्मण व्यास, द्वापर के अंत में राजा बाष्कली ने भी दस अश्वमेध यज्ञों का पुण्य प्राप्त किया था। इस तीर्थ में स्थित देवता कृष्णवर्णं लिङ्ग की सदैव भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए।
दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा च तं देवं प्रागुक्तं लभते फलम् ॥ चैत्रे मासि सिताष्टम्यां देवं संपूज्य भक्तितः ॥ ६ ॥
अश्वं दद्याच्च विप्राय सुरूपं च गुणान्वितम् ॥ यावंति तस्य रोमाणि गण्यंते संख्यया द्विज ॥ ७ ॥
तावद्वर्षसहस्राणि शिवलोके महीयते ॥ शिवलोकात्परिभ्रष्टः सार्वभौमो भवेद्भुवि ॥ ८ ॥
इन भगवान के दर्शन और स्पर्श से उपर्युक्त लाभ प्राप्त होता है। भक्त को चैत्र माह शुक्ल पक्ष के आठवें दिन शुद्ध मन से भगवान की आराधना करनी चाहिए और अच्छी गुणवत्ता वाला सुंदरत घोड़ा दान करना चाहिए। उसके शरीर पर जितने बाल गिने जाते हैं, उतने हजार वर्षों तक शिवलोक में भक्त की प्रतिष्ठा होती है। शिवलोक से नीचे आकर वह पृथ्वी पर सम्राट बन जाता है।
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां पञ्चम आवन्त्यखण्डेऽवन्तीक्षेत्रमाहात्म्ये दशाश्वमेधमाहात्म्यवर्णनंनाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
॥ स्कंद उवाच ॥
गभस्तिमालिनिगते काशीं त्रैलोक्यमोहिनीम् ॥ पुनश्चिंतामवापोच्चैर्मंदरस्थो मुने हरः ॥ १ ॥
नाद्याप्यायांति योगिन्यो नाद्याप्यायाति तिग्मगुः ॥ प्रवृत्तिरपि मे काश्याश्चित्रमत्यंत दुर्लभा ॥२॥
किमत्र चित्रं यत्काशी मदीयमपिमानसम् ॥ निश्चलं चंचलयति गणना केतरेसुरे ॥३॥
अधाक्षिपमहं कामं त्रिजगज्जित्त्वरंदृशा ॥ अहो काश्यभिलाषोत्र मामेव दुनुयात्तराम्॥४॥
काशीप्रवृत्तिमन्वेष्टुं कं वा प्रहिणुयामितः ॥ ज्ञातुं क एव निपुणो यतः स चतुराननः ॥ ५ ॥
इत्याहूय विधातारं बहुमानपुरःसरम् ॥ तत्रोपवेश्य श्रीकंठः प्रोवाच चतुराननम् ॥ ६ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे मुनिवर! इधर मन्दराचल निवासी प्रभु महेश्वर सूर्य को विश्वविमोहिनी काशी से लौटने में विलम्ब होता देखकर विचार करने लगे कि योगिनियां अभी तक काशी से नहीं लौटीं। तदनन्तर सूर्य को भेजा था। वे भी नहीं आये। काशी ने मेरा मन जिस प्रकार से चंचल किया है, वह अन्य देवगण का भी चित्त अस्थिर करेगी, इसमें सन्देह नहीं है। आश्चर्य भी नहीं है। मैंने तो विश्व को जीतने वाले काम को नयनाग्नि से दग्ध कर दिया था, किन्तु काशी दर्शन लालसा तो मुझे ही दग्ध कर रही है, इससे बढ़कर क्या आश्चर्य होगा? अब तो मैं काशी का संवाद जानने हेतु चतुर्मुख ब्रह्मा को ही भेजू। ब्रह्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी काशी का संवाद नहीं जान सकता। महादेव ने यह निश्चय किया तथा ब्रह्मा का आह्वान करके उनको अनेक सम्मान के साथ अपने आसन पर बैठा कर प्रभु श्रीकण्ठ ने उनसे कहा।
योगिन्यः प्रेषिताः पूर्वं प्रेषितोथ सहस्रगुः ॥ नाद्यापि ते निवर्तंते काश्याः कलशसंभव ॥ ७ ॥
सा समुत्सुकयेत्काशी लोकेश मम मानसम् ॥ प्राकृतस्य जनस्येव चंचलाक्षीव काचन ॥ ८ ॥
मंदरेत्र रतिर्मे न भृशं सुंदरकंदरे ॥ अनच्छतुच्छपानीये नक्रस्येवाल्पपल्वले ॥ ९ ॥
ना बाधिष्ट तथा मां स तापो हालाहलोद्भवः ॥ काशीविरहजन्मात्र यथा मामतिबाधते ॥ १० ॥
शीतरश्मिः शिरःस्थोपि वर्षन्पीयूषसीकरैः ॥ काशीविश्लेषजं तापं नाहो गमयितुं प्रभुः ॥ ११ ॥
श्रीकण्ठ महेश्वर कहते हैं- हे कमलयोनि! मैंने बहुत दिन पहले योगिनियों को तथा उसके पश्चात् सहस्नरश्मि सूर्य को काशी भेजा था, लेकिन उनका कोई संवाद ही नहीं मिला। हे लोकनाथ! सुनयना ललना को देखकर सामान्य मानव का चित्त जिस प्रकार से उत्कण्ठित होता है, उसी प्रकार से काशी विरहजनित दःख के कारण न तो मन्दराचल में मुझे सुख है न तो यहां की कन्दराओं में शान्ति है। जैसे छोटा सा सरोवर निर्मल तथा अगाधजल होने पर भी मकर को अच्छा तथा प्रीतिप्रद नहीं लगता, उसी प्रकार मन्दराचल की सुरम्य कन्दराओं में भी मुझे सुख नहीं है। मैंने पूर्वकाल में हलाहल कालकूट पान से भी वह ताप मुझे नहीं हुआ था, जैसा ताप तथा असह्य यातना काशी विरह के कारण अनुभूत हो रही है। किम्बहुना, मैं इस शीतांशु चन्द्र को मस्तक पर धारण करके भी उसकी सुधामयी किरणों के सम्पर्क से काशी विरहाग्नि को बुझा सकने में असमर्थ हो गया हूं।
विधे विधेहि मे कार्यमार्य धुर्य महामते ॥ याहि काशीमितस्तूर्णं यतस्व च ममेहिते ॥ १२ ॥
ब्रह्मंस्त्वमेव तद्वेत्सि काशी त्यजनकारणम् ॥ मंदोपि न त्यजेत्काशीं किमु यो वेत्ति किंचन ॥१३॥
अद्यैव किं न गच्छेयं काशीं ब्रह्मन्स्वमायया ॥ दिवोदासं स्वधर्मस्थं न तूल्लंघितुमुत्सहे ॥ १४॥
विधे सर्वविधेयानि त्वमेव विदधासि यत् ॥ इति चेति च वक्तव्यं त्वय्यपार्थमतोखिलम् ॥१५॥
अरिष्टं गच्छ पंथास्ते शुभोदर्को भवत्वलम्॥ आदायाज्ञां विधि मूर्ध्नि ययौ वाराणसीं मुदा ॥१६॥
सितहंसरथस्तूर्णं प्राप्य वाराणसीं पुरीम् ॥ कृतकृत्यमिवात्मानममन्यत तदात्मभूः ॥ १७ ॥
हंसयानफलं मेद्य जातं काशीसमागमे ॥ काशी प्राप्तौ यतः प्रोक्ता अंतरायाः पदेपदे ॥ १८ ॥
दृशि धातुरभूद्य मदृशो प्राप्य सान्वयः ॥ स्पष्टं दृष्टिपथं प्राप्ता यदेषाऽऽनंदवाटिका ॥ १९ ॥
हे मतिमान्! हे जगत्मान्य, विधाता! आप मेरे हितकांक्षी होकर शीघ्र काशी जाईये। मेरा काशीत्याग का कारण आपको ज्ञात है। जो काशीमहिमा नहीं जानते, उनको इस कथा से क्या प्रयोजन! मूर्ख भी काशी न छोड़े! हे विधि! मैं माया के द्वारा इसी समय वहां जा सकता हूं, किन्तु धर्ममय राजा दिवोदास का उल्लंघन नहीं करूँगा । इसी कारण वहां नहीं जाता। हे विधि! आप समस्त विधान के मूलभूत हैं। तब वहां जाकर जो करना है, वह आपको बतलाना व्यर्थ है। आप निर्विघ्न काशी जाईये। काशीगमन अपना शुभफल प्रदान करे। ब्रह्मा इस प्रकार से महादेव का आदेश पाकर सानन्द चित्त से आनन्दधाम काशी पहुंच गये। विधाता ने शीघ्रतापूर्वक काशी पहुंचकर कृतार्थ बोध करते हुये विचार किया कि आज मेरा हंसयान सार्थक हो गया; क्योंकि काशी में आने में पग-पग पर विघ्नोत्पत्ति होती है। आज मेरे नयन काशी में 'दृशि' धातु का यथार्थ अर्थ पाकर सार्थक हो गये; क्योंकि सर्वदा यहां पुण्यजला भगवती गंगा प्रवाहमयी रहती हैं। आज मैंने नयनों से इस आनन्दधाम का दर्शन लाभ किया।
स्वयं सिंचति या मद्भिः स्वाभिः स्वर्गतरंगिणी ॥ यत्रानंदमया वृक्षा यत्रानंदमया जनाः॥ २० ॥
निर्विशंति सदा काश्यां फलान्यानंदवंत्यपि॥ सदैवानंदभूः काशी सदैवानंददः शिवः ॥ २१ ॥
आनंदरूपा जायंते तेन काश्यां हि जंतवः ॥ चरणौ चरितुं वित्तस्तावेव कृतिनामिह ॥ २२ ॥
चरणौ विचरेतांयौ विश्वभर्तृ पुरी भुवि ॥ तावेव श्रवणौ श्रोतुं संविदा ते बहुश्रुतौ ॥ २३ ॥
इह श्रुतिमतां पुंसां याभ्यां काशी श्रुता सकृत् ॥ तदेव मनुते सर्वं मनस्त्विह मनस्विनाम ॥ २४ ॥
येनानुमन्यते चैषा काशी सर्वप्रमाणभूः ॥
बुद्धिर्बुध्यति सा सर्वमिह बुद्धिमतां सताम् ॥ ययैतद्धूर्जटेर्धाम धृतं स्व विषयीकृतम् ॥ २५ ॥
वरं तृणानि धान्यानि तानि वात्याहतान्यपि ॥ काश्यां यान्या पतंतीह न जनाः काश्यदर्शनाः ॥ २६ ॥
स्वर्गतरंगिणी गंगा स्वयं इस काशी को अपने जल से सिंचित करती है। यहां के वृक्षसमृह सर्वदा आनन्दमय हैं तथा लोग भी आनन्दमयरूप से आनन्दमय फल (चतुर्वर्ग) का भोग करते रहते हैं। यह काशी सदैव आनन्दभूमि है। महेश्वर देव अनवरत इस आनन्दभूमि काशी में रहकर जीवों को आमोदित करते हैं। इसी कारण जीवगण काशी में आनन्दरूप जन्मग्रहण करते हैं। जिनका चरणयुगल इस शिवपुरी में विचरण करता है, उन सुकृति मनुष्यों के वे चरणद्वय विश्व का विचरण कर सकने में समर्थ हैं। जो कान एक बार भी काशीनाम का श्रवण करते हैं, वह बहुश्रुत कर्ण ही जगतू् में श्रवणयोग्य हैं। जिसके मानस में सतत् काशी चिन्तन होता रहता है, उसका मन ही मनस्वी का मन है। यह शिवधाम वाराणसी जिसकी बुद्धि का विषय होता है, वह बुद्धि ही इस जगत में सभी पदार्थ का यथायथ निर्णय कर सकती है। पवन द्वारा उड़ाकर काशी में पहुंचा तृण तथा धान्यादि भी काशीस्थ होने के कारण प्रशंसित है। किन्तु काशीदर्शनरहित चेतनरूप मनुष्य तो घृणास्पद हैं।
अद्य मे सफलं चायुः परार्धद्वय संमितम् ॥ यस्मिन्सति मया प्रापि दुष्प्रापा काशिका पुरी ॥ २७ ॥
अहो मे धर्मसंपत्तिरहोमे भाग्यगौरवम् ॥ यदद्राक्षिषमद्याहं काशीं सुचिर चिंतिताम् ॥ २८ ॥
अद्य मे स्वतपो वृक्षो मनोरथफलैरलम् ॥ शिवभक्त्यंबुना सिक्तः फलितोति बृहत्तरैः ॥ २९ ॥
मया व्यधायि बहुधा सृष्टिः सृष्टिं वितन्वता ॥ परमन्यादृशी काशी स्वयं विश्वेश निर्मितिः॥ ३० ॥
इति हृष्टमना वेधा दृष्ट्वा वाराणसीं पुरीम् ॥ वृद्धब्राह्मणरूपेण राजानं च ददर्श ह ॥ ३१ ॥
जलार्द्राक्षतपाणिश्च स्वस्त्युक्त्वा पृथिवीभुजे ॥ कृतप्रणामो राज्ञाथ भेजे तद्दत्तमासनम् ॥३२॥
कृतमानो नृपतिना सोभ्युत्थानासनादिभिः ॥ विप्रो व्यजिज्ञपद्भूपं पृष्टागमनकारणम् ॥ ३३ ॥
मैं परार्द्धपर्यन्त की आयु वाला आज पूर्णकाम हो गया। मेरी आयु सफल हो गयी; क्योंकि मैंने आयुशेष रहते इस काशी को प्राप्त जो कर लिया! मैंने असामान्य धर्मबल तथा भाग्यबल से चिराभिलषित काशी को पाया है। आज मेरे शिवभक्तिरूप जल से सिंचित तपोवृक्ष से बृहद् अभीष्ट फल उत्पन्न हो गया। यद्यपि मैं सृष्टिकर्त्ता हूं, तथापि रस शिवसृष्टि काशी के कौशल को देखकर विस्मित हूं। इस प्रकार ब्रह्मा ने काशीदर्शन से आनन्दित होकर वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण किया तथा उन्होंने दिवोदास के पास जाकर हाथ में अक्षत एवं जल लेकर उनको आशीर्वाद प्रदान किया। राजा ने ब्रह्मदेव को प्रणाम किया तथा उठकर उनका स्वागत करते हुये उनको आसन प्रदानोपरान्त यहां आने का कारण इन ब्राह्मण से पूछा। तब ब्राह्मणवेषधारी ब्रह्मा कहने लगे।
॥ ब्राह्मण उवाच ॥
भूपाल बहुकालीनोस्म्यहमत्र चिरंतनः ॥ त्वं तु मां नैव जानासि जाने त्वां हि रिपुंजयम् ॥ ३४ ॥
परःशता मया दृष्टा राजानो भूरिदक्षिणाः ॥ विजितानेकसंग्रामा यायजूका जितेंद्रियाः ॥ ३५ ॥
विनिष्कृतारिषड्वर्गाः सुशीलाः सत्त्वशालिनः ॥ श्रुतस्यपारदृश्वानो राजनीतिविचक्षणाः ॥ ३६ ॥
दयादाक्षिण्यनिपुणाः सत्यव्रतपरायणाः ॥ क्षमया क्षमयातुल्या गांभीर्यजितसागराः ॥ ३७ ॥
जितरोषरयाः शूराः सौम्यसौंदर्यभूमयः ॥ इत्यादि गुणसंपन्नाः सुसंचितयशोधनाः ॥३८॥
परं द्वित्राः पवित्रा ये राजर्षे तव सद्गुणाः ॥ तेष्वेषु राजसु मम प्रायशो न दृशं गताः ॥ ३९ ॥
प्रजानिजकुटुंबस्त्वं त्वं तु भूदेवदैवतः ॥ महातपः सहायस्त्वं पथानान्ये तथा नृपाः ॥ ४० ॥
ब्राह्मण कहते हैं- हे राजन! आपके राज्य में मैं दीर्घकाल से निवास करता हूं। हे रिपुंजय! आप मुझे नहीं जानते, लेकिन मैं आपको विशेषतया जानता हूं। मैंने अनेक राजाओं को देखा है, जिन्होंने युद्ध में जयलाभ किया था। उन लोगों द्वाराः दक्षिणायुक्त अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया गया है। वे जितेन्द्रिय, षड्वर्गजित्, सुशील, सात्विक, विद्वान, राजनीतिज्ञ, दया तथा दाक्षिण्य गुणों के आधार, सत्यव्रती, सहिष्णुता में पृथिवीतुल्य, गंभीरता में सागरवत्, शूर, सौम्य, क्रोधवेगविजेता तथा परम सुन्दर थे। परन्तु हे महाराज! आपके समान कोई भी राजा प्रजावर्ग को अपने परिवार जैसा नहीं मानता था। ब्राह्मणों के प्रति देवता बुद्धिवाला तथा महातपःश्चरण में आप जैसा कोई राजा नहीं देखा।
धन्यो मान्योसि च सतां पूजनीयोसि सद्गुणैः ॥ देवा अपि दिवोदास त्वत्त्रासान्न विमार्गगाः ॥ ४१ ॥
किं नः स्तुत्या तव नृप द्विजानामस्पृहावताम् ॥ किं कुर्मस्त्वद्गुणग्रामाः स्तावकान्नः प्रकुर्वते ॥४२॥
गोष्ठी तिष्ठत्वियं तावत्प्रस्तुतं स्तौमि सांप्रतम् ॥ यष्टुकामोस्म्यहं राजंस्त्वां सहायमतो वृणे ॥४३॥
त्वया राजन्वती चैषाऽवनिः सर्वर्धिभाजनम् ॥ अहं चास्तिधनो राजन्न्यायोपात्तमहाधनः ॥४४॥
इयं च राजधानी ते कर्मभूमावनुत्तमा ॥ यस्यां कृतानां कार्याणां संवर्तेपि न संक्षयः ॥४९॥
संचितं यद्धनं पुंभिर्नयसन्मार्गगामिभिः ॥ तत्काश्यां विनियुज्येत क्लेशायेतरथा भवेत् ॥४६॥
महिमानं परं काश्याः कोपि वेद न भूपते ॥ ऋते त्रिनयनाच्छंभोः सर्वज्ञानप्रदायिनः ॥४७॥
हे दिवोदास! आप धन्य-मान्य एवं अशेष गुणाधार हैं। आपके शासन में देवता भी अपथगामी नहीं हो सकते! हे राजन्! मैं निःस्पृह ब्राह्मण हूं, किसी स्वार्थ के कारण आपकी प्रशंसा नहीं कर रहा हूं। आपकी साधुगण द्वारा प्रशंसित गुणराशि ने ही मुझसे आपका स्तव कराया है। अब वह सब बात निष्प्रयोज्य है। सम्प्रति आप मेरे आगमन का कारण सुनिये। हे राजन्! मैं एक यज्ञ करना चाहता हूं, तथापि उसके लिये पूर्णतः आपकी सहायता की आवश्यकता है। हे राजन्! यह जगत् आपके अवस्थान के कारण सराजक (राजा युक्त) तथा समृद्ध है। किम्बहुना, मैं क्षुद्र प्रजा हूं, तथापि आपके राज्य में न्यायानुसार धनार्जन करके सुखपूर्वक कालयापन कर रहा हूं। आपकी नगरी काशी पृथिवी के सभी स्थानों में उत्तम है। यहां कोई भी कर्म अनुष्ठित करने पर अत्यन्त सुखपूर्वक उसका फललाभ होता है। काशी में मनुष्य सुनीतिरूप सुमार्ग में विचरण करके न्यायार्जित धन को सुपात्र को दिये बिना कदापि मरणकाल में शुभफल लाभ नहीं कर पाते। हे महाराज! आपकी नगरी काशी की महिमा एकमात्र ज्ञानदाता सतीनाथ को ही ज्ञात है। अन्य को ज्ञात नहीं है।
मन्ये धन्यतरोसि त्वं बहुजन्मशतार्जितैः ॥ सुकृतैः पासि यत्काशीं विश्वभर्तुः परां तनुम् ॥ ४८॥
काशी त्रिजगतीसारस्त्रिवेदी सार एव वै ॥ त्रिवर्गोत्तरसारश्च निर्णीतेति महर्षिभिः ॥ ४९॥
विश्वेशानुग्रहेणैव त्वयैषा पाल्यते पुरी ॥ एकस्याप्यवनात्काश्यां त्रैलोक्यमवितं भवेत् ॥५०॥
अन्यच्च ते हितं वच्मि यदि ते रोचतेऽनघ ॥ प्रीणनीयः सदैवैको विश्वेशः सर्वकर्मभिः ॥ ५१ ॥
अन्यदेवधिया राजन्विश्वेशं पश्य मा क्वचित् ॥ ब्रह्मविष्ण्विंद्र चंद्रार्का क्रीडेयं तस्य धूर्जटेः ॥ ॥ ५२ ॥
विप्रैरुदर्कमिच्छद्भिः शिक्षणीया यतो नृपाः ॥ अतस्तव हितं ख्यातं किं वा मे चिंतयानया ॥ ५३ ॥
इति जोषं स्थितं विप्रं प्रत्युवाच नृपोत्तमः ॥ सर्वं मया हृदि धृतं यत्त्वयोक्तं द्विजोत्तम ॥ ५४ ॥
हे महाराज! मेरी विवेचना से इस संसार में आपके समान धन्य अन्य पुरुष नहीं हैं; क्योंकि आप जन्मान्तरीण पुण्य प्रभाव से इस जन्म में ही द्वितीय काशीनाथ के समान इस काशी नगरी के पालक हैं। इस पुरी को आर्यगण ने त्रिजगतीसार एवं वेदत्रय का सार कहा है। संसार की सारभूमि काशी त्रिवर्ग से भी उत्तम मोक्ष प्रदान करती है, यह उनका कथन है। जो काशी स्थित एक व्यक्ति का भी पालन कर पाता है, उसे त्रिभुवन रक्षा का फल मिलता है। विश्वेश की कृपा से आप अकेले ही समस्त काशी का प्रतिपालन करते हैं, मैं और भी एक हितप्रद वाक्य कहता हूं। यदि आपका मन हो, तब उसका भी अनुष्ठान करिये। आप परम पुरुषार्थ मानकर चाहे जिस प्रकार से सर्वभूतेश्वर महादेव को प्रसन्न करें। ये जगदीश्वर महादेव असाधारण हैं। इन्होंने ही क्रीड़ा उपकरणार्थ ब्रह्मा-विष्णु-सूर्य-चन्द्र-इन्द्र आदि देवगण का सृजन किया है। हे महाराज! ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वह राजा के शुभाकांक्षी होकर समय-समय पर उनको सद्विषयक शिक्षा प्रदान करे। मैंने आपके लिये हितप्रद वाक्यों को कहा है, अन्यथा मेरे समान सामान्य व्यक्ति द्वारा इन सब विवेचना का कोई फल नहीं है। ब्राह्मण द्वारा अपना कथन समाप्त किये जाने पर राजा कहने लगे कि हे द्विजप्रवर! आपने जो कुछ कहा, उसे मैंने हृदयंगम कर दिया।
॥ राजोवाच ॥
अहं यियक्षमाणस्य तव साहाय्यकर्मणि ॥ दासोस्मि यज्ञसंभारान्नयमेको शतोऽखिलान् ॥ ५५ ॥
यदस्ति मेखिलं तत्र सप्तांगेपि भवान्प्रभुः ॥ यजस्वैकमनाब्रह्मन्सिद्धं मन्यस्व वांछितम् ॥ ५६ ॥
राज्यं करोमि यद्ब्रह्मन्स्वार्थं तन्न मनागपि ॥ पुत्रैः कलत्रैर्देहेनपरोपकृतये यते ॥ ५७॥
राज्ञां क्रतुक्रियाभ्योपि तीर्थेभ्योपि समंततः ॥ प्रजापालनमेवैको धर्मः प्रोक्तो मनीषिभिः ॥ ५८ ॥
प्रजासंतापजोवह्निर्वज्राग्नेरपि दारुणः ॥ द्वित्रान्दहति वज्राग्निः पूर्वो राज्यं कुलं तनुम् ॥ ५९ ॥
यदावभृथसिस्रासुर्भवेयं द्विजसत्तम ॥ तदा विप्रपदांभोभिरभिषेकं करोम्यहम् ॥ ६० ॥
हवनं ब्राह्मणमुखे यत्करोमि द्विजोत्तम ॥ मन्ये क्रतुक्रियाभ्योपि तद्विशिष्टं महामते ॥६१॥
राजा कहते हैं- आपने जिस यज्ञ के लिये कहा है, उसके लिये प्रयोजनीय धन आप मेरे कोष से ले लीजिये। मेरे सप्तांग राज्य में जो कुछ भी है, उन सबके आप ही प्रभु हैं। आप यज्ञ प्रारंभ करिये तथा उसमें जो प्रयोजनीय वस्तु लगती हो, वह कहिये। हे द्विज! मैं अपना कोई स्वार्थ न रखते हुये इस साम्राज्य का पालन करता हूं। मैं पुत्र, स्त्री, स्वदेह आदि के द्वारा सदा अन्य को उपकृत करने की चेष्टा करता रहता हूं। मनस्वीगण ने राजाओं द्वारा यज्ञानुष्ठान तथा तीर्थसेवा से प्रजापालन को ही परमधर्म कहा है। प्रजागण का सन्ताप तो राजा के लिये वज्राग्नि से भी विषम है। वज्राग्नि तो दो-चार लोगों को दग्ध करता है, जबकि प्रजा की सन्तापरूपी अग्नि राज्य, कुल तथा शरीर को दग्ध किये बिना नहीं बुझती। हे द्विजवर! जब मुझे अवभृथ स्नान की इच्छा होती है, तब मैं ब्राह्मण के चरण जल से स्नान करता हूं। होम की इच्छा होने पर विप्रमुख में तर्पण करता हूं (भोजन से उनको तृप्त करता हूं)। मैं इस होम को यज्ञकार्य से भी उत्तम मानता हूं।
अभिलाषेषु सर्वेषु जागर्त्येको हृदीह मे ॥ अद्यापि मार्गणः कोपि द्रष्टव्यः स्वतनोरपि ॥ ६२ ॥
अहो अहोभिर्बहुभिः फलितो मे मनोरथः ॥ यत्त्वं मेद्य गृहे प्राप्तः किंचित्प्रार्थयितुं द्विज ॥ ६३ ॥
एकाग्रमानसो विप्र यज्ञान्विपुलदक्षिणान् ॥ बहून्यजकृतं विद्धि साहाय्यं सर्ववस्तुषु ॥ ६४ ॥
इति राज्ञो महाबुद्धेर्धर्मशीलस्य भाषितम् ॥ श्रुत्वा तुष्टमनाः स्रष्टा क्रतुसंभारमाहरत् ॥ ६५ ॥
साहाय्यं प्राप्य राजर्षेर्दिवोदासस्य पद्मभूः ॥ इयाज दशभिः काश्यामश्वमेधैर्महामखैः ॥६६ ॥
अद्यापि होमधूमोघैर्यद्व्याप्तं गगनांतरम् ॥ तदा प्रभृति न व्योम नीलिमानं जहात्यदः ॥ ६७ ॥
मेरी दीर्घकाल से यह अभिलाषा रही है कि यदि कोई याचक आकर मेरे प्राणों को भी मांगे, तब भी मैं देने से विमुख न रहूं। आज आपने सामान्य वस्तु का याचक होकर मेरे गृह में आगमन किया, इससे मेरा मनोरथ सफल हो गया। हे द्विजप्रवर! आप प्रचुर दक्षिणा वाला यज्ञारम्भ करिये। सभी विषय में मेरी सहायता मिलेगी यह स्मरण रखिये। विधाता ब्रह्मा ने मतिमान राजा दिवोदास का यह वाक्य सुना तथा आनन्दपूर्वक यज्ञीय वस्तु को एकत्र करने लगे। उस समय दिवोदास की सहायता से ब्रह्मा ने काशी में दस अश्वमेध यज्ञों को सम्पन्न किया। उनके यज्ञीय होम की धूम्रराशि अन्तरिक्ष तक जाकर नभस्तल को नीलवर्ण किया, जिससे आज भी आकाश नीलवर्ण है।
तीर्थं दशाश्वमेधाख्यं प्रथितं जगतीतले ॥ तदा प्रभृति तत्रासीद्वाराणस्यां शुभप्रदम् ॥ ६८ ॥
पुरा रुद्रसरो नाम तत्तीर्थं कलशोद्भव ॥ दशाश्वमेधिकं पश्चाज्जातं विधिपरिग्रहात् ॥ ६९ ॥
स्वर्धुन्यथ ततः प्राप्ता भगीरथसमागमात् ॥ अतीव पुण्यवज्जातमतस्तत्तीर्थमुत्तमम् ॥७०॥
विधिर्दशाश्वमेधेशं लिंगं संस्थाप्य तत्र वै॥ स्थितवान्न गतोद्यापि क्वापि काशीं विहाय तु ॥ ७१ ॥
वाराणसी में जहां ब्रह्मा ने दस अश्वमेध किया था आज भी वह स्थान परमतवित्र दशाश्वमेध तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। हे मुनिप्रवर अगस्त्य! इतिपूर्व यह स्थान "रुद्र सरोवरतीर्थ" नाम से प्रसिद्ध था। ब्रह्मा के यज्ञकाल से इसका नाम दशाश्वमेध हो गया। तत्पश्चात् भगीरथ द्वारा लाई गंगा ने इस स्थल को पावन कर दिया। ब्रह्मा ने भी यज्ञान्त में यहां दशाश्वमेधेश्वर नामक शिवलिंग स्थापित किया तथा यहीं रहने लगे। तब से ब्रह्मा काशी छोड़कर कहीं नहीं गये।
राज्ञो धर्मरतेस्तस्य च्छिद्रं नावाप किंचन ॥ अतः पुरारेः पुरतो व्रजित्वा किं वदेद्विधिः ॥ ७२ ॥
क्षेत्रप्रभावं विज्ञाय ध्यायन्विश्वेश्वरं शिवम् ॥ ब्रह्मेश्वरं च संस्थाप्य विधिस्तत्रैव संस्थितः ॥ ७३ ॥
परातनुरियं काशी विश्वेशस्येति निश्चितम् ॥ अस्याः संसेवनाच्छंभुर्न कुप्यति पुरो मयि ॥ ७४ ॥
कः प्राप्य काशीं दुर्मेधाः पुनस्त्यक्तुमिहेह ते ॥ अनेकजन्मजनितकर्मनिर्मूलनक्षमाम् ॥ ७५ ॥
विश्वसंतापसंहर्तुः स्थाने विश्वपतेस्तनुः ॥ संताप्यतेतरां काश्या विश्लेषज महाग्निना ॥ ७६ ॥
ब्रह्मदेव ने दिवोदास का कहीं कोई दोष नहीं पाया। उन्होंने सोचा कि कैसे शिव के निकट जाऊं? यही सोचकर तथा काशी की महिमा को जानने के कारण उन्होंने विश्वेश्वर का ध्यान करते-करते ब्रह्मेश्वर नामक अन्य लिंग भी स्थापित किया और काशी में ही रह गये। ब्रह्मा ने विचार किया कि यह ब्रह्मेश्वर विश्वनाथ की ही अन्य मूर्त्ति हैं। यह काशी में स्थापित हो गई। अतः विश्वनाथ कभी कोई कोप नहीं कर सकते। जिस काशी में आने पर जीव का नाना जन्मसंचित कर्मसूत्र छिन्न हो जाता है, उस काशी का त्याग करने की इच्छा किसे होगी? विश्व के संताप का नाश करने वाले विश्वनाथ का शरीर भी काशी के महाविरहानल से सन्तप्त है, इसमें किसी अचरज- की बात नहीं है।
प्राप्य काशीं त्यजेद्यस्तु समस्ताघौघनाशिनीम्॥ नृपशुः स परिज्ञेयो महासौख्यपराङमुखः ॥ ७७ ॥
निर्वाणलक्ष्मीं यः कांक्षेत्त्यक्त्वा संसारदुर्गतिम् ॥ तेन काशी न संत्याज्या यद्याप्तैशादनुग्रहात् ॥ ७८ ॥
यः काशीं संपरित्यज्य गच्छेदन्यत्र दुर्मतिः ॥ तस्य हस्ततलाद्गच्छेच्चतुर्वर्गफलोदयः ॥ ७९ ॥
निबर्हणी मधौघस्य सुपुण्य परिबृंहिणीम् ॥ कः प्राप्य काशीं दुर्मेधास्त्यजेन्मोक्षसुखप्रदाम्॥ ८० ॥
सत्यलोके क्व तत्सौख्यं क्व सौख्यं वैष्णवे पदे ॥ यत्सौख्यं लभ्यते काश्यां निमेषार्धनिषेवणात् ॥ ८१ ॥
वाराणसीगुणगणान्निर्णीय द्रुहिणस्त्विति ॥ व्यावृत्य मंदरगिरिं न पुनः प्रत्यगान्मुने ॥८२॥
सर्वदा पापों का नाश करने वाली काशी को प्राप्त करके भी जिसके द्वारा यह त्याग दी जाती है, लोग उसे संसार में मानवरूपी पशु ही कहते हैं। वह महासुख से विमुख ही रह जाता है। जो संसारबन्धन, दुर्गति उच्छिन्न करके मोक्षप्राप्ति करना चाहता है, उसे यदि भाग्यवशात् काशी लाभ हो जाये तब काशी त्याग कदापि उचित नहीं है। जो मूढ़ काशी त्याग करके अन्यत्र गमन करता है, वह चतुर्वर्ग फल प्राप्त करने पर भी च्युत हो जाता है। जगत् में ऐसा मूढ़ कौन है, जो इस पापहारी, पुण्यप्रदा तथा मोक्षरूपी सुख का विधान करने वाली काशी को पाकर भी उसका त्याग करेगा? क्षणार्धकालपर्यंत भी काशी में रहकर जीव को जो सुखलाभ होता है, वह सत्यलोक किंवा विष्णुलोक में, अन्यत्र नहीं मिलता। हे मुनिवर! विधाता काशी को यह सब गुणावलि का विचार करके मन्दराचल वापस नहीं गये।
॥ स्कंद उवाच ॥
मित्रावरुणयोः पुत्र महिमानं ब्रवीमि ते ॥ काश्यां दशाश्वमेधस्य सर्वतीर्थशिरोमणेः ॥ ८३ ॥
दशाश्वमेधिकं प्राप्य सर्वतीर्थोत्तमोत्तमम् ॥ यत्किंचित्क्रियते कर्म तदक्षयमिहेरितम् ॥ ८४ ॥
स्नानं दानं जपो होमः स्वाध्यायो दे वतार्चनम् ॥ संध्योपास्तिस्तर्पणं च श्राद्धं पितृसमर्चनम्॥८५॥
दशाश्वमेधिके तीर्थे सकृत्स्नात्वा नरोत्तमः ॥दृष्ट्वा दशाश्वमेधेशं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥८६॥
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे प्राप्य प्रतिपदं तिथिम् ॥ दशाश्वमेधिके स्नात्वा मुच्यते जन्मपातकैः ॥ ८७ ॥
ज्येष्ठे शुक्ल द्वितीयायां स्नात्वा रुद्रसरोवरे ॥ जन्मद्वयकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥ ८८ ॥
एवं सर्वासु तिथिषु क्रमस्नायी नरोत्तमः ॥ आशुक्लपक्षदशमि प्रतिजन्माघमुत्सृजेत् ॥ ८९ ॥
तिथिं दशहरां प्राप्य दशजन्माघहारिणीम् ॥ दशाश्वमेधिके स्नातो यामीं पश्येन्न यातनाम् ॥९०॥
लिंगं दशाश्वमेधेशं दृष्ट्वा दशहरा तिथौ ॥ दशजन्मार्जितैः पापैस्त्यज्यते नात्र संशयः ॥ ९१ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे मैत्रावरण! अब काशीस्थ समस्त तीर्थों के सारभूत दशाश्वमेध की महिमा कहता हूं। इस स्थान में जप-दान-होम-वेदपाठ-देवपूजा-सन्ध्या वन्दना-तर्पण-श्राद्धादि जो भी धर्मानुष्ठान तथा सत्कर्म किया जाता है, वह अक्षयफलप्रद होता है। दशाश्वमेध में स्नान करके दशाश्वमेधेश्वर का दर्शन करने वाले व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा के दिन यहां स्नात व्यक्ति का आजन्म संचित पाप नष्ट हो जाता है। ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया के दिन यहां स्नान करने से दो जन्मों के अर्जित पापों से मुक्ति मिल जाती है। इसी प्रकार ज्येष्ठ शुक्ल दशमी पर्यन्त यथाक्रमेण स्नान करने से स्नात तिथिसंख्या इतने जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। दशाश्वमेध में स्नान करने पर उस व्यक्ति को यमयातना भोग नहीं करना पड़ता। इस दिन ही दशाश्वमेधेश्वर महेश्वर के दर्शन से भी दस जन्मों की पापराशि दूरीभूत होती है। इसमें सन्देह नहीं है।
स्नातो दशहरायां यः पूजयेल्लिंगमुत्तमम् ॥ भक्त्या दशाश्वमेधेशं न तं गर्भदशा स्पृशेत् ॥९२॥
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे पक्षं रुद्रसरे नरः ॥ कुर्वन्वै वार्षिकीं यात्रां न विघ्नैरभिभूयते॥९३॥
दशाश्वमेधावभृथैर्यत्फलं सम्यगाप्यते ॥ दशाश्वमेधे तन्नूनं स्नात्वा दशहरा तिथौ ॥ ९४ ॥
स्वर्धुन्याः पश्चिमे तीरे नत्वा दशहरेश्वरम् ॥ न दुर्दशामवाप्नोति पुमान्पुण्यतमः क्वचित् ॥ ९५ ॥
यत्काश्यां दक्षिणद्वारमंतर्गेहस्य कीर्त्यते ॥ तत्र ब्रह्मेश्वरं दृष्ट्वा ब्रह्मलोके महीयते ॥ ९६ ॥
इति ब्राह्मणवेषेण वाराणस्यां महाधिया ॥ द्रुहिणेन स्थितं तावद्यावद्विश्वेश्वरागमः ॥ ९७ ॥
दिवोदासोपि राजेंद्रो वृद्धब्राह्मणरूपिणे ॥ ब्रह्मणे कृतयज्ञाय ब्रह्मशालामकल्पयत्॥ ९८ ॥
ब्रह्मेश्वरसमीपे तु ब्रह्मशाला मनोहरा ॥ ब्रह्मा तत्रावसद्व्योम ब्रह्मघोषैर्निनादयन् ॥ ९९ ॥
इति ते कथितो ब्रह्मन्महिमातिमहत्तरः ॥ दशाश्वमेधतीर्थस्य सर्वाघौघविनाशनः ॥ १०० ॥
श्रुत्वाध्यायमिमं पुण्यं श्रावयित्वा तथैव च ॥ ब्रह्मलोकमवाप्नोति श्रद्धया मानवोत्तमः ॥ १०१ ॥
दशहरा पर्व के दिन दशाश्वमेध में स्नात मनुष्य यदि दशाश्वमेधेश्वर का दर्शन करता है, तब वे प्रसन्न होकर उसकी भवयन्त्रणा का नाश करते हैं। ज्येष्ठमास के सम्पूर्ण शुक्लपक्ष में नित्य रुद्र सरोवर की वार्षिकी यात्रा करने वाला कभी विध्नपीड़ित नहीं होता। दस अश्वमेध सम्पन्न करने के पश्चात् अवशभृथ स्नान से जो पुण्य संचय होता है, इस दशाश्वमेध तीर्थ में दशहरा के दिन स्नान करने से वही पुण्य परितुष्ट होता है। गंगा के पश्चिमतट पर भगवान् दशाश्वमेधेश्वर विराजमान हैं। उनको प्रणाम करने से जीव दुर्दशा से मुक्त हो जाता है। काशीस्थ जिस स्थान को अन्तर्गृह का दक्षिणद्वार कहते हैं, वहां विराजित ब्रह्मेश्वर के दर्शन से भी ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। महामति ब्रह्मा इस प्रकार काशी में विश्वनाथ के आगमन की प्रतीक्षा में वृद्ध ब्राह्मण के वेश में रहने लगे। राजा दिवोदास ने भी ब्राह्मणरूपी ब्रह्मा के यज्ञ के सम्पन्न होने पर उनके निवासार्थ एक मनोहर यज्ञशाला प्रस्तुत किया। ब्रह्मा वहां पर वेदनाद द्वारा आकाश निनादित करते रहने लगे। हे मुनिवर! आपने मुझसे यह पातक नाशन दशाश्वमेध तीर्थ का सुन्दर माहात्म्य सुना। जो मानव सश्रद्ध भाव से यह अध्याय सुनता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायामुत्तरार्द्धे चतुर्थे काशीखंडे दशाश्वमेधवर्णनंनाम द्विपंचाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥
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For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥