56 Vinayak Original Places (छप्पन विनायकों का मूलस्थान)


56 Vinayak Original Places 

(छप्पन विनायकों का मूलस्थान)

स्कन्दपुराण खण्ड:४ (काशीखण्ड) - अध्यायः ५७


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A - एक दूसरे के उत्तर गंगा के पश्चिमी तट पर स्थित पञ्च विनायक

अर्कविनायक(५९), लम्बोदर(६९), वक्रतुंड(८०), अभयद(८९), स्थूलदंत(९८)

काश्यां गंगासि संभेदे नामतोर्कविनायकः ।। दृष्टोर्कवासरे पुंभिः सर्वतापप्रशांतये ।। ५९ ।।
काशी में गंगा और असि के संगम समीप अर्कविनायक नाम के विनायक है। यदि रविवार के दिन दर्शन किया जाए तो वह सभी तापों (कष्टों) को दूर कर देते हैं।

स्वर्धुन्याः पश्चिमे कूले उत्तरेर्कविनायकात् ।। लंबोदरो गणाध्यक्षः क्षालयेद्विघ्नकर्दमम् ।।६९।।
स्वर्गीय नदी (गंगा) के पश्चिमी तट पर, अर्कविनायक के उत्तर में लंबोदार गणाध्यक्ष (गणों के नेता) हैं, जो बाधाओं के समस्त कीचड़ को धो देते हैं।

उदग्वहायाः स्वर्धुन्या रम्ये रोधसि विघ्नराट् ।। लंबोदरादुदीच्यां तु वक्रतुंडोघसंघहृत् ।। ८० ।।
वक्रतुण्ड, पापों के समूह का नाश करने वाले, लम्बोदर के उत्तर में स्थित है, जो स्वर्गीय नदी (गंगा) के सुंदर तट पर है।

वक्रतुंडादुदग्दिक्स्थः स्वःसिंधो रोधसिस्थितः ।। विनायकोस्त्यभयदः सर्वेषां भयनाशनः ।। ८९ ।।
अभयद विनायक जो सभी के भय का नाश करने वाले हैं, वक्रतुंड से उत्तर दिशा में स्वर्गीय नदी (गंगा) के तट पर स्थित हैं।

तीरे स्वर्गतरंगिण्या उत्तरे चाभयप्रदात् ।। स्थूलदंतो गणेशानः स्थूलाः सिद्धीर्दिशेत्सताम् ।। ९८ ।।
स्थूलदंत नामक गणेश अभयप्रद के उत्तर में स्वर्गीय नदी (गंगा) के तट पर स्थित है। अच्छे लोगों को, वह भारी सिद्धियाँ प्रदान करते हैं।

B - वाराणसी के उत्तरी द्वार से एक दूसरे के दक्षिण स्थित पञ्च विनायक

पाशपाणि विनायक(६४), विकटद्विज(७५),  विघ्नराज(८५), दंतहस्त(९४), गजविनायक(१०४)


काश्याः सदोत्तराशायां पाशपाणिर्विनायकः ।। विनायकान्पाशयति भक्त्या काशीनिवासिनाम् ।। ६४ ।।
काशी के उत्तर में, पाशपाणि-विनायक (हाथ में पाश, फंदा लिए हुए विनायक) काशी के निवासियों की भक्ति के कारण हमेशा बाधाओं को बांधते हैं।

पाशपाणेर्गणेशानाद्दक्षिणे विकटद्विजम् ।। पूजयित्वा गणपतिं गाणपत्यपदं लभेत् ।। ७५ ।।
पाशपाणि के दक्षिण में गणपति विकटद्विज की पूजा करने से व्यक्ति गणों के आधिपत्य का पद प्राप्त कर सकता है।
विकटद्विजसंज्ञस्य गणेशस्य समीपतः ।। दृष्ट्वा सूक्ष्मेश्वरं लिंगं गतिं सूक्ष्मामवाप्नुयात्।।६९.७०।।

अवाच्यामर्चयेद्धीमान्सिद्ध्यै विकटदंततः ।। विघ्नराजं गणपतिं सर्वविघ्नविनाशनम् ।। ८५ ।।
सिद्धि के उद्देश्य से, एक बुद्धिमान भक्त को विघ्नराज गणपति की पूजा करनी चाहिए जो सभी बाधाओं को नष्ट कर देते हैं। वह विकटदन्त के दक्षिण में है।

विघ्नराजादवाच्यां तु दंतहस्तो गणेश्वरः ।। लिखेद्विघ्नसहस्राणि नृणां वाराणसीद्रुहाम् ।। ९४ ।।
गणेश्वर दंतहस्त विघ्नराज के दक्षिण में है। जो लोग वाराणसी से द्वेष करते हैं, उन्हें परेशान करने के लिए वह हजारों बाधाओं को उत्पन्न कर देते हैं।

दंतहस्ताद्यमाशायां पूज्यो गजविनायकः ।। तस्य संपूजनाद्भक्त्या गजांता श्रीरवाप्यते ।। १०४ ।।
गज-विनायक को दन्तहस्त की दक्षिणी दिशा में पूजा जाना चाहिए। इनकी भक्तिपूर्वक पूजा करने से हाथियों सहित समृद्धि प्राप्त होगी।



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स्थूलदंतुदुदीच्यां च शमयेच्छमिनामघम् ।। ऐश्यामैशीपुरीं पायात्समंगलविनायकः ।। १११ ।।
यमतीर्थादुदीच्यां च पूज्यो मित्रविनायकः ।। सप्तमावरणे ये च तांश्च वक्ष्ये विनायकान् ।। ११२ ।।

कालंजरान्नीलकंठस्तिष्ठेदत्र स्वयं विभुः ।। गणेशाद्दंतकूटाख्यात्समीपे भवनाशनः ।।६९.५९।।
नीलकंठेश्वरं लिंगं काश्यां यैः परिपूजितम् ।। नीलकंठास्त एव स्युस्तएव शशिभूषणाः ।।६९.६०।।

तत्पश्चिमेकूटदंत उदग्दुर्गविनायकात् ।। दुर्गोपसर्गसंहर्ता रक्षेत्क्षेत्रमिदं सदा ।। ७० ।।
कूटदंताद्गणपतेरुदीच्यामेकदंतकः ।। सदोपसर्गसंसर्गात्पायादानंदकाननम् ।। ८१ ।।
जालेश्वरात्त्रिशूली च स्वयमीशः समागतः ।। कूटदंताद्गणपतेः पुरस्तात्सर्वसिद्धिदः ।। ६९.७७ ।।


आगे जारी है...

कृष्णार्पणम
पौराणिक शोध कार्य 
श्री सुधांशु कुमार पांडेय, कामाख्या काशी

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