Chintamani Vinayak (चिंतामणि विनायक)

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Chintamani Vinayak
चिंतामणि विनायक

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०५७

हेरंबाद्वह्निदिग्भागे चिंतामणि विनायकः ।  भक्तचिंतामणिः साक्षाच्चिंतितार्थ समर्पकः ॥९३
चिन्तामणि विनायक हेरंब के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। वह भक्तों के लिए चिंतामणि (इच्छा देने वाला पत्थर) की तरह हैं। भक्त जो कुछ भी अच्छा चाहते हैं उसे प्राप्त करेंगे।

शिवपुराणम्/संहिता_४_(कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः_१७
॥ ऋषय ऊचुः ॥
महाकालसमाह्वस्थज्योतिर्लिंगस्य रक्षिणः ॥ भक्तानां महिमानं च पुनर्ब्रूहि महामते ॥ १ ॥
ऋषि बोले : हे महामते भक्तजनों की रक्षा करने वाले महाकाल नाम से विराजमान ज्योतिर्लिंग के माहात्म्य का पुनः वर्णन कीजिये..
॥ सूत उवाच ॥
शृणुतादरतो विप्रो भक्तरक्षाविधायिनः ॥ महाकालस्य लिंगस्य माहात्म्यं भक्तिवर्द्धनम् ॥ २ ॥
उज्जयिन्यामभूद्राजा चन्द्रसेनाह्वयो महान् ॥ सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञश्शिवभक्तो जितेन्द्रियः ॥ ३ ॥
तस्याभवत्सखा राज्ञो मणिभद्रो गणो द्विजाः ॥ गिरीशगणमुख्यश्च सर्वलोकनमस्कृतः ॥ ४ ॥
एकदा स गणेन्द्रो हि प्रसन्नास्यो महामणिम् ॥ मणिभद्रो ददौ तस्मै चिंतामणिमुदारधीः ॥५॥
स वै मणिः कौस्तुभवद्द्योतमानोर्कसन्निभः ॥ ध्यातो दृष्टः श्रुतो वापि मंगलं यच्छति ध्रुवम् ॥ ६ ॥
तस्य कांतितलस्पृष्टं कांस्यं ताम्रमयं त्रपु ॥ पाषाणादिकमन्यद्वा द्रुतं भवति हाटकम् ॥ ७ ॥
स तु चिन्तामणिं कंठे बिभ्रद्राजा शिवाश्रयः ॥ चन्द्रसेनो रराजाति देवमध्येव भानुमान् ॥८॥
श्रुत्वा चिन्तामणिग्रीवं चन्द्रसेनं नृपोत्तमम् ॥ निखिलाः क्षितिराजानस्तृष्णाक्षुब्धहृदोऽभवन् ॥ ९ ॥
सूतजी बोले - हे ब्राह्मणो भक्तों की रक्षा करने वाले महाकाल नामक ज्योतिर्लिंग का भक्तिवर्धक माहात्म्य आदरपूर्वक सुनिये। उज्जयिनी नगरी में चन्द्रसेन नामक एक महान् राजा था, जो सभी शास्त्रों के तात्पर्य को तत्त्वतः जाननेवाला, शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय था। उस राजा का मित्र महादेव के गणों में प्रमुख मणिभद्र नामक गण था; वह समस्त लोगों द्वारा नमस्कृत था। किसी समय उदारबुद्धि वाले उस गणाध्यक्ष मणिभद्र ने प्रसन्न होकर उसे चिन्तामणि नामक उत्तम मणि प्रदान की सूर्यसदृश प्रकाश करने वाली वह मणि कौस्तुभमणि के समान ध्यान करने, दर्शन करने तथा सुननेमात्र से निश्चय ही कल्याण प्रदान करती थी। उसके प्रकाशतल का स्पर्श पाते ही काँसा, ताँबा, लौह, शीशा, पाषाण तथा अन्य धातु खनिज आदि भी शीघ्र ही सुवर्ण हो जाते थे। उस चिन्तामणि को गले में धारण करके वह परम शिवभक्त राजा चन्द्रसेन इस प्रकार शोभित होता था, जैसे देवगणों के बीच सूर्य शोभित होते हैं। चिन्तामणि से युक्त ग्रीवा वाले नृपश्रेष्ठ चन्द्रसेन के विषय में सुनकर पृथ्वी के समस्त राजा उस मणि को लेने के लिये आतुर मनवाले हो गये।
नृपा मत्सरिणस्सर्वे तं मणिं चन्द्रसेनतः ॥ नानोपायैरयाचंत देवलब्धमबुद्धयः ॥ १० ॥
सर्वेषां भूभृतां याञ्चा चन्द्रसेनेन तेन वै ॥ व्यर्थीकृता महाकालदृढभक्तेन भूसुराः ॥ ११ ॥
ते कदर्थीकृतास्सर्वे चन्द्रसेनेन भूभृता ॥ राजानस्सर्वदेशानां संरम्भं चक्रिरे तदा ॥१२॥
अथ ते सर्वराजानश्चतुरंगबलान्विताः ॥ चन्द्रसेनं रणे जेतुं संबभूवुः किलोद्यताः ॥ १३ ॥
ते तु सर्वे समेता वै कृतसंकेतसंविदः ॥ उज्जयिन्याश्चतुर्द्वारं रुरुधुर्बहुसैनिकाः ॥ १४ ॥
संरुध्यमानां स्वपुरीं दृष्ट्वा निखिल राजभिः ॥ तमेव शरणं राजा महाकालेश्वरं ययौ ॥१५॥
निर्विकल्पो निराहारस्स नृपो दृढनिश्चयः ॥ समानर्च महाकालं दिवा नक्तमनन्यधीः ॥ १६ ॥
उन मूर्ख एवं मत्सरग्रस्त राजाओं ने देवलब्ध उस मणि को अनेक उपायों के द्वारा चन्द्रसेन से माँगा किंतु हे ब्राह्मणो! महाकाल में दृढ़ भक्ति रखनेवाले उस चन्द्रसेन ने सभी राजाओं की याचना निष्फल कर दी। तब राजा चन्द्रसेन से इस प्रकार तिरस्कृत हुए सभी देशों के समस्त राजाओं ने खलबली मचा दी। इसके बाद वे सभी राजा चतुरंगिणी सेना से युक्त होकर उस चन्द्रसेन को युद्धमें जीतने के लिये भलीभाँति उद्यत हो गयेआपस में मिले हुए उन सभी राजाओं ने एक दूसरे को संकेत से अपना मनोभाव समझाकर बहुत सारे सैनिकों के साथ मिलकर उज्जयिनी के चारों द्वारों को घेर लिया तब अपनी नगरी को समस्त राजाओं के द्वारा घिरी देखकर वह राजा उन्हीं महाकालेश्वर की शरण में गया। वह राजा निर्विकल्प होकर तथा निराहार रहकर दृढ़ निश्चयपूर्वक एकाग्रचित्त हो दिन-रात महाकाल का अर्चन करने लगा

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चिंतामणि विनायक के-56/42, ईश्वर गंगी तालाब के पूर्व में तिवारी जी के मकान में स्थित है।
Chintamani Vinayak K-56/42 is situated in Tiwari ji's house, east of Ishwar Gangi pond.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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