Dharani Varah (मंदराचल पर्वत की कंदरा से समस्त देवी-देवता काशी को चले गये यह ज्ञातकर, वराहक्षेत्र से धरणी वराह का काशी आकर अवस्थित हो जाना, काशी स्थित वराहतीर्थ में सामान्य अन्न भी दान करने से समस्त पृथ्वी के दान का फललाभ प्राप्त होना)

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काशी में स्वयंभू धरणी वराह : देवता, ऋषि तथा अनुचरगण सहित मन्दराचल पर्वत की कन्दरा से काशी आये हैं, यह सुनकर धरणी वराह भी काशीधाम आ गये। भूदेवी (धरणी) को उठाए हुए जल से बाहर आ रहे तथा शेषनाग पर खड़े वाराह भगवान के शरीर पर 33 कोटि देवता, ऋषि-मुनि, साधु-संत एवं यक्ष-गंधर्व हैं, जो पौराणिक विग्रह एवं क्षरण होने के कारण स्पर्श करने से ही अनुभव होते हैं। खड़ी हुई मुद्रा में भगवान वराह के स्वयंभू विग्रह का आकार काफी बड़ा है। मूर्ति के नीचे अमृत कलश लिए शेषनाग एवं पीछे माता लक्ष्मी जी की मूर्ति विराजित रहती हैं। वराह के नीचे शेषनाग विराजमान रहते हैं। काशी स्थित वराहतीर्थ  (प्रयाग घाट क्षेत्र) में जो मानवगण सामान्य अन्न भी दान करते हैं, वे समस्त धरणीदान (पृथ्वी के दान) का फललाभ करते हैं।

कलियुग में काशी वासियों द्वारा धर्म का व्यापार : भगवान वराह का विग्रह स्वयंभू विग्रह है। काशी में मनुष्यों की संख्या बढ़ी तो आवास बनाने में भगवान खटकने लगे, निर्माण अंधाधुंध होता चला गया और भगवान के सुरक्षा का भी ध्यान नहीं रहा। भगवान का विग्रह टूटता फूटता चला गया एवं खंडित विग्रह के निष्कासन की युक्ति ने विग्रह को बाहर गंगाजी के गर्भ का पथ दिखाया। सर्वप्रथम काशी के ब्राह्मणों ने धर्म बेचना प्रारम्भ कर पौराणिक देवता को हटा, तीर्थ स्थानों को नष्टकर भवन निर्माण प्रारंभ किया तो इनका अनुसरण कर अन्य वर्गों ने भी बढ़ चढ़ कर व्यापर किया। काशी के अनेक तीर्थ एवं पौराणिक विग्रहों का लोप एवं इन पर बने विशालकाय भवन इसका प्रमाण हैं। रही कही बची हुई कसर धर्मवादी सरकार ने विक्रम सम्वत 2077 में पूरी कर दी और कॉरिडोर के नाम पर अनेक विग्रहों को नष्ट कर पर्यटक स्थल बनाकर इन्हीं व्यापारियों को समर्पित कर दिया है।

ऊपर दिए गए चित्रों में आप देख सकते हैं कि काशी के प्रयाग क्षेत्र में भगवान धरणी वाराह के शरीर पर देवी, देवता यक्ष, गंधर्व, नाग, किन्नर, ऋषि, महर्षि आदि अंकित है। नीचे संदर्भित चित्र दिया गया है जो धरणी वराह के मूल विग्रह (जैसा पूर्व में रहा होगा)  को समझने के लिए दिया गया है।

Dharani Varah
धरणी वाराह

दर्शन महात्म्य : माघ मास (पूर्णिमा)

वराहावतार भगवान विष्णु के अवतार हैं। जब जब धरती पापी लोगों से कष्ट पाती है तब तब भगवान विविध रूप धारण कर इसके दु:ख दूर करते हैं। दैत्य हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को रसातल में छिपा दिया था तब भगवान विष्णु वराह अवतार लेकर पृथ्वी का कल्याण किया था। इनकी शक्ति अथवा पत्नी देवी वाराही हैं जो भगवती लक्ष्मी की स्वरूप हैं और इनमें देवी पार्वती जी की शक्तियां हैं।
दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृताविराजते भूधर भूः सभूधरा । यथा वनान्निःसरतो दता धृतामतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥
त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरंभूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते । चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसाकुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषांलोकाय पत्‍नीमसि मातरं पिता । विधेम चास्यै नमसा सह त्वयायस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥
कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभोरसां गताया भुव उद्विबर्हणम् । न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मयेयो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥
पृथ्वी (धरणी) को धारण करने वाले भगवन्! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन मे से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो। आप के दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराह विग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरो पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है। नाथ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने के लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये आप जगत् के पिता है और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते है। प्रभो! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किंतु आप तो सम्पूर्ण आशयकि आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चर्यमय विश्व की रचना की है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः ६१
मुने धरणिवाराहः प्रयागेश्वरसन्निधौ । स्नात्वा वाराहतीर्थेत्र दृष्ट्वा मां किटि रूपिणम् ॥२०३॥
संपूज्य बहुभावेन न विशेद्योनिसंकटम् । तत्राल्पमपि दत्त्वान्नं धरादानफलं लभेत् ॥२०४॥
महाकलुषगंभीर सागरे निपतञ्जनः । मम भक्त्युडुपं प्राप्य प्रलयेपि न मज्जति ॥२०५॥
हे तपोनिधान! मैं धरणीवराह नाम ग्रहण करके प्रयागेश्वर के सन्निधान में अवस्थान क़रता हूं। जो व्यक्ति वहां स्थित वराहतीर्थ में स्नान करके वराहरूपी मेरा दर्शन करके नाना विधि से मेरी अर्चना करता है, उसे पुनः नाना योनियों में जन्म नहीं लेना पड़ता। यहां जो मानवगण सामान्य अन्न भी दान करते हैं, वे समस्त धरणीदान का फललाभ करते हैं। मानव मेरी भक्तिरूपी नौका को पाकर प्रलय में भी प्रलयपयोधि में नहीं डूबते।
अहं कोकावराहोस्मि किटीश्वरसमीपतः । तत्र मां पूजयन्मर्त्यो लभते चिंतितफलम् ॥२०६॥
नारायणाः शतं पंच शतं च जलशायिनः । त्रिंशत्कमठरूपाणि मत्स्यरूपाणि विंशतिः ॥२०७॥
गोपालाश्च शतं साष्टं बुद्धाः संति सहस्रशः । त्रिंशतरामाश्च रामा एकोत्तरंशतम् ॥२०८॥
विष्णुरूपोस्म्यहं चैको मुक्तिमंडपमध्यतः । मुनेकृतप्रसादेन विश्वेशेन श्रितः स्वयम् ॥२०९॥
नारायणस्वरूपेण गणाश्चक्रगदोद्यताः । कुर्वंति रक्षां क्षेत्रस्य परितो नियुतानि षट् ॥२१०॥
मैं कोकावाराह नाम से किटीश्वर के सन्निधान में स्थित रहता हूं। यहां जो व्यक्ति मेरी पूजा करता है, उसे वांछित फल का लाभ होता है। मेरी पांच सौ नारायण मूर्तियां हैं। जलशायी मूर्त्तियां सौ, कमठमूर्त्ति (कूर्म) तीन सौ, मत्स्यमूर्ति बीस, गोपालमूर्त्ति एक सौ आठ, बुद्धमूर्ति सहस्र, परशुराममूर्त्ति तीन सौ तथा राममूर्त्ति एक सौ अवस्थित हैं। मुक्तिमण्डप में मेरा एक विष्णुरूप अधिष्ठान है। स्वयं विश्वेश्वर ने सन्तुष्ट होकर यहां मेरी रक्षा किया है। यहां मेरे साठ लाख अनुचरगण विष्णुरूपी होकर तथा गदा एवं चक्र धारण करके इस क्षेत्र के चतुर्दिक्‌ रहकर इसकी रक्षा करते रहते हैं।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः ६९
प्रयागतीर्थनिकषा प्रासादो विद्रुमप्रभः । वाराहस्य महानेष धरणीनाम्न एव हि ॥ १२५॥
विंध्यपर्वततः प्राप्तो देवं श्रुत्वा समागतम्। सगणं सर्षिदेवं च मंदरादत्र कंदरात् ॥१२६॥
काश्यां धरणिवाराहो द्रष्टव्यः स प्रयत्नतः। आपत्समुद्रसंमग्नमुद्धरेच्छरणागतम् ॥१२७॥
प्रयागतीर्थ के निकट धरणी वराहदेव का विद्रुम (प्रवाल,मूँगा) की प्रभा से प्रभावान्‌ प्रासाद शोभित हो रहा है। आप देवता, ऋषि तथा अनुचरगण सहित मन्दराचल पर्वत की कन्दरा से काशी आये हैं, यह सुनकर धरणी वराह भी काशीधाम आ गये। यत्नतः इनका दर्शन करना सबका कर्त्तव्य है; क्योंकि वे आपत्तिसमुद्र में निमग्न हो रहे शरणागत लोगों का उद्धार करते हैं।
कर्णिकाराद्गणाध्यक्षः कर्णिकारप्रसूनरुक्। समर्च्योयं गदाहस्त उपसर्गसहस्रहृत् ॥१२८॥
तस्माद्धरणिवाराहात्प्रतीच्यां दिशि संस्थितम् । पूजयित्वा गणाध्यक्षं गाणपत्यपदं लभेत् ॥१२९॥
कर्णिकार तीर्थ से कर्णिकाकार कुसुमप्रभ गदाधारी हजारों उपसर्गों का हरण करने वाले गणपति का आगमन काशी में हुआ। ये गणाध्यक्ष धरणीवाराह के उत्तर में अवस्थान करते हैं। इनकी पूजा जो करता है, उसे ये गणाध्यक्ष गाणपत्य पद प्रदान करते हैं।

श्रीमद्भागवतपुराणम् / स्कन्धः ३ / अध्यायः १३
॥ श्रीशुक उवाच ॥
निशम्य वाचं वदतो मुनेः पुण्यतमां नृप । भूयः पप्रच्छ कौरव्यो वासुदेवकथादृतः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा- राजन्! मुनिवर मैत्रयजी के मुख से यह परम पुण्यमयी कथा सुनकर श्रीविदुरजी ने फिर पूछा; क्योंकि भगवान्‌ की लीलाकथा में इनका अत्यन्त अनुराग हो गया था।
॥ विदुर उवाच ॥
स वै स्वायम्भुवः सम्राट्‌ प्रियः पुत्रः स्वयम्भुवः । प्रतिलभ्य प्रियां पत्‍नीं किं चकार ततो मुने ॥ २ ॥
चरितं तस्य राजर्षेः आदिराजस्य सत्तम । ब्रूहि मे श्रद्दधानाय विष्वक्सेनाश्रयो ह्यसौ ॥ ३ ॥
श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्यनन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः । तत्तद्‍गुणानुश्रवणं मुकुन्दपादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥ ४ ॥
विदुरजी ने कहा- मुने! स्वयम्भू ब्रह्माजी के प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भुव मनु ने अपनी प्रिय पत्नी शतरूपा को पाकर फिर क्या किया? आप साधुशिरोमणि हैं। आप मुझे आदिराज राजर्षि स्वायम्भुव मनु का पवित्र चरित्र सुनाइये। वे श्रीविष्णुभगवान् के शरणापत्र थे, इसलिये उनका चरित्र सुनने में मेरी बहुत श्रद्धा है जिनके हृदय में श्रीमुकुन्द के चरणारविन्द विराजमान हैं, उन भक्तजनों के गुणों को श्रवण करना ही मनुष्यों के बहुत दिनों तक किये हुए शास्त्राभ्यास के श्रम का मुख्य फल है, ऐसा विद्वानों का श्रेष्ठ मत है
॥ श्रीशुक उवाच ॥
इति ब्रुवाणं विदुरं विनीतंसहस्रशीर्ष्णश्चरणोपधानम् । प्रहृष्टरोमा भगवत्कथायांप्रणीयमानो मुनिरभ्यचष्ट ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं - राजन्! विदुरजी सहस्रशीर्षा भगवान् श्रीहरि के चरणाश्रित भक्त थे। उन्होंने जब विनयपूर्वक भगवान्‌ की कथा के लिये प्रेरणा की, तब मुनिवर मैत्रेय का रोम-रोम खिल उठा। उन्होंने कहा : 
॥ मैत्रेय उवाच ॥
यदा स्वभार्यया सार्धं जातः स्वायम्भुवो मनुः । प्राञ्जलिः प्रणतश्चेदं वेदगर्भमभाषत ॥ ६ ॥
त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृत् वृत्तिदः पिता । तथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत् ॥ ७ ॥
तद्विधेहि नमस्तुभ्यं कर्मस्वीड्यात्मशक्तिषु । यत्कृत्वेह यशो विष्वक् अमुत्र च भवेद्‍गतिः ॥ ८ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- जब अपनी भार्या शतरूपा के साथ स्वायम्भुव मनु का जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर श्रीब्रह्माजी से कहा। 'भगवन्! एकमात्र आप ही समस्त जीवों के जन्मदाता और जीविका प्रदान करनेवाले पिता हैं। तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके? पूज्यपाद! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्य के लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोक में हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोक में सद्गति प्राप्त हो सके।
॥ ब्रह्मोवाच ॥
प्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति स्ताद्वां क्षितीश्वर । यन्निर्व्यलीकेन हृदा शाधि मेत्यात्मनार्पितम् ॥ ९ ॥
एतावत्यात्मजैर्वीर कार्या ह्यपचितिर्गुरौ । शक्त्याप्रमत्तैर्गृह्येत सादरं गतमत्सरैः ॥ १० ॥
स त्वमस्यामपत्यानि सदृशान्यात्मनो गुणैः । उत्पाद्य शास धर्मेण गां यज्ञैः पुरुषं यज ॥ ११ ॥
परं शुश्रूषणं मह्यं स्यात्प्रजारक्षया नृप । भगवांस्ते प्रजाभर्तुः हृषीकेशोऽनुतुष्यति ॥ १२ ॥
येषां न तुष्टो भगवान् यज्ञलिङ्गो जनार्दनः । तेषां श्रमो ह्यपार्थाय यदात्मा नादृतः स्वयम् ॥ १३ ॥
श्रीब्रह्माजी ने कहा - तात! पृथ्वीपते! तुम दोनों का कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि तुमने निष्कपट भाव से 'मुझे आज्ञा दीजिये' यों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है। वीर! पुत्रों को अपने पिता की इसी रूप में पूजा करनी चाहिये। उन्हें उचित है कि दूसरों के प्रति ईर्ष्या का भाव न रखकर जहाँ तक बने, उनकी आज्ञा का आदरपूर्वक सावधानी से पालन करें। तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो। राजन्! प्रजापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजा का पालन करते देखकर भगवान् श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे जिनपर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान् प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकि वे तो एक प्रकार से अपने आत्मा का ही अनादर करते हैं।
॥ मनुरुवाच ॥
आदेशेऽहं भगवतो वर्तेयामीवसूदन । स्थानं त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो ॥ १४ ॥
यदोकः सर्वसत्त्वानां मही मग्ना महाम्भसि । अस्या उद्धरणे यत्‍नो देव देव्या विधीयताम् ॥ १५ ॥
मनुजी ने कहा - पाप का नाश करने वाले पिताजी! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहनेके लिये स्थान बतलाइये। देव! सब जीवों का निवास स्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजिये।
॥ मैत्रेय उवाच ॥
परमेष्ठी त्वपां मध्ये तथा सन्नामवेक्ष्य गाम् । कथमेनां समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया चिरम् ॥ १६ ॥
सृजतो मे क्षितिर्वार्भिः प्लाव्यमाना रसां गता ।
अथात्र किमनुष्ठेयं अस्माभिः सर्गयोजितैः । यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे ॥ १७ ॥
इत्यभिध्यायतो नासा विवरात्सहसानघ । वराहतोको निरगाद् अङ्गुष्ठपरिमाणकः ॥ १८ ॥
तस्याभिपश्यतः खस्थः क्षणेन किल भारत । गजमात्रः प्रववृधे तदद्‍भुतं अभून्महत् ॥ १९ ॥
मरीचिप्रमुखैर्विप्रैः कुमारैर्मनुना सह । दृष्ट्वा तत्सौकरं रूपं तर्कयामास चित्रधा ॥ २० ॥
किमेतत्सौकरव्याजं सत्त्वं दिव्यमवस्थितम् । अहो बताश्चर्यमिदं नासाया मे विनिःसृतम् ॥ २१ ॥
दृष्टोऽङ्गुष्ठशिरोमात्रः क्षणाद्‍गण्डशिलासमः । अपि स्विद्‍भगवानेष यज्ञो मे खेदयन्मनः ॥ २२ ॥
इति मीमांसतस्तस्य ब्रह्मणः सह सूनुभिः । भगवान् यज्ञपुरुषो जगर्जागेन्द्रसन्निभः ॥ २३ ॥
ब्रह्माणं हर्षयामास हरिस्तांश्च द्विजोत्तमान् । स्वगर्जितेन ककुभः प्रतिस्वनयता विभुः ॥ २४ ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा - पृथ्वी को इस प्रकार अथाह जल में डूबी देखकर ब्रह्माजी बहुत देर तक मन में यह सोचते रहे कि 'इसे कैसे निकालूँ। जिस समय मैं लोकरचना में लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल को चली गयी। हमलोग सृष्टिकार्य में नियुक्त है, अतः इसके लिये हमें क्या करना चाहिये ? अब तो, जिनके सङ्कल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें। निष्पाप विदुरजी! ब्रह्माजी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार का एक वराह-शिशु निकला। भारत! बड़े आश्चर्य की बात तो यही हुई कि आकाश में खड़ा हुआ वह वराह-शिशु ब्रह्माजी के देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षणभर में हाथी के बराबर हो गया। उस विशाल वराह मूर्ति को देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रह्माजी तरह तरह के विचार करने लगे- अहो! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है? कैसा आश्चर्य है। यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था। पहले तो यह अंगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षण में ही बड़ी भारी शिला के समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान् हमलोगों के मन को मोहित कर रहे हैं। ब्रह्माजी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे। सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ने अपनी गर्जना से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को हर्ष से भर दिया।
निशम्य ते घर्घरितं स्वखेदक्षयिष्णु मायामयसूकरस्य ।
जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते त्रिभिःपवित्रैर्मुनयोऽगृणन् स्म ॥ २५ ॥
तेषां सतां वेदवितानमूर्तिःब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम् ।
विनद्य भूयो विबुधोदयायगजेन्द्रलीलो जलमाविवेश ॥ २६ ॥
उत्क्षिप्तवालः खचरः कठोरःसटा विधुन्वन् खररोमशत्वक् ।
खुराहताभ्रः सितदंष्ट्र ईक्षाज्योतिर्बभासे भगवान्महीध्रः ॥ २७ ॥
घ्राणेन पृथ्व्याः पदवीं विजिघ्रन्क्रोडापदेशः स्वयमध्वराङ्गः ।
करालदंष्ट्रोऽप्यकरालदृग्भ्याम्उद्वीक्ष्य विप्रान् गृणतोऽविशत्कम् ॥ २८ ॥
स वज्रकूटाङ्गनिपातवेगविशीर्णकुक्षिः स्तनयन्नुदन्वान् ।
उत्सृष्टदीर्घोर्मिभुजैरिवार्तःचुक्रोश यज्ञेश्वर पाहि मेति ॥ २९ ॥
खुरैः क्षुरप्रैर्दरयंस्तदापउत्पारपारं त्रिपरू रसायाम् ।
ददर्श गां तत्र सुषुप्सुरग्रेयां जीवधानीं स्वयमभ्यधत्त ॥ ३० ॥
स्वदंष्ट्रयोद्धृत्य महीं निमग्नांस उत्थितः संरुरुचे रसायाः ।
तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तंसुनाभसन्दीपिततीव्रमन्युः ॥ ३१ ॥
जघान रुन्धानमसह्यविक्रमंस लीलयेभं मृगराडिवाम्भसि ।
तद्रक्तपङ्काङ्‌कितगण्डतुण्डोयथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् ॥ ३२ ॥
तमालनीलं सितदन्तकोट्याक्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाङ्ग ।
प्रज्ञाय बद्धाञ्जलयोऽनुवाकैःविरिञ्चिमुख्या उपतस्थुरीशम् ॥ ३३ ॥
अपना खेद दूर करने वाली मायामय वराहभगवान्‌ की घुरघुराहट को सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोकनिवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् के स्वरूप का वेदों में विस्तार से वर्णन किया गया है; अतः उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हितके लिये गजराजकी-सी लीला करते हुए जल में घुस गये। पहले वे सूकररूप भगवान् पूँछ उठाकर बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों को फटकारकर खुरों के आघात से बादलों को छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचापर कड़े कड़े बाल थे, दाढ़े सफेद थीं और नेत्रों से तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। भगवान् स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकररूप धारण करनेके कारण अपनी नाक से सूँघ सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे। उनकी दाढ़े बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करने वाले मरीचि आदि मुनियों को ओर बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल में प्रवेश किया। जिस समय उनका वज्रमय पर्वत के समान कठोर कलेवर जल में गिरा, तब उसके वेग से मानो समुद्र का पेट फट गया और उसमें बादलों की गड़गड़ाहटके समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल तरङ्गरूप भुजाओं को उठाकर वह बड़े आर्तस्वर से हे यज्ञेश्वर! मेरी रक्षा करो। इस प्रकार पुकार रहा है। तब भगवान् यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुंचे। वहाँ रसातल मे उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्यत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदर में लीन कर लिया था। फिर वे जल में इबी हुई पृथ्वी को अपनी दाहो पर लेकर रसातल से ऊपर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जल से बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिये महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उनपर गदा से आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीला से ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथी को मार डालता है। उस समय उसके रक्त से थूथनी तथा कनपटी सन जाने के कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टी के टीले में टक्कर मारकर आया हो। तात! जैसे गजराज अपने दाँतों पर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफेद दाँतों की नोक पर पृथ्वी को धारण कर जल से बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराहभगवान्‌ को देखकर ब्रह्मा, मरीचि आदि को निश्चय हो गया कि ये भगवान् ही हैं। तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे।
॥ ऋषय ऊचुः ॥
जितं जितं तेऽजित यज्ञभावनत्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद् रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराःतस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥ ३४ ॥
रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनांदुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-स्वाज्यं दृशि त्वङ्‌घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥ ३५ ॥
स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोःइडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे ।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु तेयच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ ३६ ॥
दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरंत्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः ।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोःसभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥ ३७ ॥
सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिःसंस्थाविभेदास्तव देव धातवः ।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि-स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥ ३८ ॥
ऋषियों ने कहा- भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार है। आपके रोम कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूकर रूप धारण किया है; आपको नमस्कार है। देव! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं। ईश! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग) में स्रुक् है, नासिका छिद्रों में स्रुवा है, उदर में इडा (यज्ञीय भक्षणपात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रह्मभाग पात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है। भगवन्! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है। बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं, दोनों दाढ़े प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति की इष्टि) हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जाने वाला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसथ्य (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्ट का चयन) हैं। देव आपका वीर्य सोम है आसन (बैठना) प्रातः सवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अनिष्टोम, अत्यमिष्टोम, उपथ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ है तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोम रहित बाग) और ऋतु (सोमसहित याग) रूप है। यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अङ्ग को मिलाये रखने वाली मांसपेशियां है।
नमो नमस्तेऽखिलमन्त्रदेवताद्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावितज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः ॥ ३९ ॥
दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृताविराजते भूधर भूः सभूधरा ।
यथा वनान्निःसरतो दता धृतामतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥ ४० ॥
त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरंभूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।
चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसाकुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ ४१ ॥
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषांलोकाय पत्‍नीमसि मातरं पिता ।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वयायस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥ ४२ ॥
कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभोरसां गताया भुव उद्विबर्हणम् ।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मयेयो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥ ४३ ॥
विधुन्वता वेदमयं निजं वपुःजनस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् ।
सटाशिखोद्धूत शिवाम्बुबिन्दुभिःविमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥ ४४ ॥
स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष तेयः कर्मणां पारमपारकर्मणः ।
यद्योगमायागुणयोगमोहितंविश्वं समस्तं भगवन्विधेहि शम् ॥ ४५ ॥
समसा मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप है; आपको नमस्कार है। वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता है, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु है; आपको पुनः पुनः प्रणाम है। पृथ्वी को धारण करने वाले भगवन्! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन मे से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो। आप के दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराह विग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरो पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है। नाथ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने के लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये आप जगत् के पिता है और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते है। प्रभो! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किंतु आप तो सम्पूर्ण आशयकि आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चर्यमय विश्व की रचना की है। जब आप अपने वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदन के बालों से झरती हुई शीतल जल की बूँदें गिरती है। ईश। उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक मे रहनेवाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं। जो पुरुष आपके कर्म का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मों का कोई पार ही नहीं है। आपकी ही योगमाया के सत्त्वादि गुणों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन्! आप इसका कल्याण कीजिये।
॥ मैत्रेय उवाच ॥
इत्युपस्थीयमानस्तैः मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः । सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम् ॥ ४६ ॥
स इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेनः प्रजापतिः । रसाया लीलयोन्नीतां अप्सु न्यस्य ययौ हरिः ॥ ४७ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी! उन ब्रह्मवादी मुनियों के इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी रक्षा करने वाले वराहभगवान् ने अपने खुरों से जल को स्तम्भित कर उसपर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जल पर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये।
य एवमेतां हरिमेधसो हरेःकथां सुभद्रां कथनीयमायिनः ।
शृण्वीत भक्त्या श्रवयेत वोशतींजनार्दनोऽस्याशु हृदि प्रसीदति ॥ ४८ ॥
तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौकिं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयःस्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥ ४९ ॥
को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्पुराकथानां भगवत्कथासुधाम् ।
आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहा-महो विरज्येत विना नरेतरम् ॥ ५० ॥
विदुरजी! भगवान के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनीय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकार के पाप-ताप को दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मङ्गलमयी मञ्जुल कथा को भक्तिभाव से सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान् अन्तस्तल से बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान् तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं। अरे! संसार में पशुओं को छोड़कर अपने पुरुषार्थ का सार जानने वाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन से छुड़ा देने वाली भगवान्‌ की प्राचीन कथाओं में से किसी भी अमृतमयी कथा का अपने कर्णपुटों से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा।
इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायांतृतीयस्कन्धे वराहप्रादुर्भावानुवर्णनं त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

हिरण्याक्ष के साथ वाराह भगवान्‌ का युद्ध : श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः_३/अध्यायः_१८
हिरण्याक्ष वध : श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः_३/अध्यायः_१९


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धरणी वराह प्रयाग घाट पर स्थित है।
Dharani Varah is located at Prayag Ghat.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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