Vashishteshwar
वशिष्ठेश्वर, अरूंधतीश्वर
- वशिष्ठकाश्यपोऽत्रिर्जमदग्निस्सगौतमः। विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।
- अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।
वाराणसी अंतर्गत मणिकर्णिका क्षेत्र के उत्तरी भाग में महर्षि वशिष्ठ द्वारा शिवलिंग स्थापित किया गया था। जिनका पुराणों में वशिष्ठेश्वर के नाम से वर्णन मिलता है। वशिष्ठेश्वर के सन्निकट अग्नि कोण में माता अरुंधति द्वारा स्थापित लिंग है। जिन्हें अरुंधतिश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। काशी यात्रा अंतर्गत (स्कंदपुराण) के सप्तर्षी यात्रा में वशिष्ठेश्वर के दर्शन का महात्म्य है। ऋषि पंचमी के दिन सप्त ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंगों की काशी में विधिपूर्वक यात्रा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त संकटा घाट पर स्थित सप्तर्षी मंदिर (वसिष्ठेश्वर एवं वामदेवेश्वर परिसर) में सप्तर्षियों द्वारा स्थापित शिवलिंग का दर्शन-पूजन यत्नपूर्वक करना चाहिए।
स्कन्दपुराण : काशीखण्ड
वसिष्ठतीर्थं परमं महापातकनाशनम् । तर्पयित्वा पितॄंस्तत्र वसिष्ठेशं विलोक्य च ।।
नरो न लिप्यते पापैर्जन्मत्रयसमर्जितैः । वसिष्ठलोके वसति ब्रह्मतेज समन्वितः ।।
तत्रैवारुधंती तीर्थं स्त्रीणां सौभाग्यवधर्नम् । पतिव्रताभिस्तत्तीर्थं गाहनीयं विशेषतः ।।
पौंश्चल्यजनितो दोषस्तत्तीर्थपरिमज्जनात् । क्षणाद्विनाश मागच्छेदरुंधत्याः प्रभावतः ।।
मार्कंडेयेश्वरात्प्राच्यां वसिष्ठेश्वर पूजनात् । निष्पापो जायते मर्त्यो महत्पुण्यमवाप्नुयात् ।।
मूर्ती वसिष्ठारुंधत्योस्तत्र पूज्ये प्रयत्नतः । न स्त्री वैधव्यमाप्नोति न पुमान्स्त्री वियोगिताम् ।।
।। वसिष्ठतीर्थतो याम्यां नर्मदातीर्थमुत्तमम् ।।
अरुंधत्या वसिष्ठोपि लब्धोऽत्रिऽनसूयया । सुनीत्योत्तानपादाच्च ध्रुवः प्राप्तोंऽगजोत्तमः ।।
वशिष्ठ को अरुंधति ने और अत्रि को अनसुइया ने प्राप्त किया था। सभी पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ ध्रुव को सुनीति ने उत्तानपाद से प्राप्त किया था।
ततस्तु नार्मदं तीर्थं तत आरुंधतेयकम् । वासिष्ठं च ततस्तीर्थं मार्कंण्डेयमनुत्तमम् ।।
नर्मदा तीर्थ, अरुंधति तीर्थ, वशिष्ठ तीर्थ, उत्कृष्ट मार्कण्डेय तीर्थ। (चारों तीर्थ आसपास, गंगा जी में)
वसिष्ठवामदेवौ च मूर्तिरूपधरावुभौ । द्रष्टव्यौ यत्नतः काश्यां महाविघ्नविनाशिनौ ।।
काशी में यत्नपूर्वक वशिष्ठ और वामदेव की मूर्तियों का दर्शन-पूजन करना चाहिए। वे बड़े-बड़े विघ्नों का नाश करने वाले हैं।
वसिष्ठेश समीपस्थः कृष्णेशो विष्णुलोकदः । तद्याम्यां याज्ञवल्क्येशो ब्रह्मतेजोविवधर्नः ।।
वशिष्ठ के समीप स्थापित कृष्णेश्वर विष्णु लोक प्रदान करते हैं। इसके दक्षिण में याज्ञवल्कयेश आध्यात्मिक ऊर्जा को बढ़ाते है।
अरुन्धती
अरुन्धती, इसका पर्याय है अक्षमाला । भागवत के अनुसार अरुन्धती कर्दम मुनि की महासाध्वी कन्या थी। प्रजापति कर्दम की पुत्री अरुंधती कपिल मुनि की बहिन थीं। अरुंधती पति की अवरोधक नहीं थीं, उनका विरोध नहीं करतीं थीं, उसे छोड़ती नहीं थीं। अरुंधती महासाध्वी, तेजस्वी, संस्कारी, पतिव्रता तपस्वी थीं। अरुंधती स्थायी विवाह संबंध की प्रतीक हैं। वसिष्ठ अरुंधती का दाम्पत्य एक आदर्श माना जाता है।
सप्तऋषियों के मध्य में वसिष्ठ के पास अरुंधती नामक 'तारा' है। विवाह में सप्तपदी के बाद नवविवाहिता को अरुंधती तारे का दर्शन कराया जाता है, जिससे अरुंधती की भांति ही उसका गृहस्थाश्रम स्थायी, सभी प्रकार से धन्य हो। वसिष्ठ को अरुंधती से शक्ति सहित सौ पुत्र हुए थे। शक्ति के पुत्र पराशर और पराशर के पुत्र व्यास थे। आकाश में सप्तर्षियों के मध्य वसिष्ठ के पास अरुन्धती का तारा रहता है, यह छोटा सा नक्षत्र, जिसे पाश्चात्य ज्योतिर्विद 'मॉर्निग स्टार' अथवा 'नॉर्दर्न क्राउन' कहते हैं, पात्व्राित का प्रतीक माना जाता है। जिसकी आयु पूर्ण हो चुकी है, वह इसको नहीं देख पाता: दीपक बुझने की गन्ध, मित्रों के वचन और अरुन्धती तारे को व्यतीत आयु वाले न सूँघते, न सुनते और न देखते हैं । विवाह में सप्तपदी गमन के अनन्तर वर मन्त्र का उच्चारण करता हुआ वधू को अरुन्धती का दर्शन कराता है। अरुन्धती स्थायी विवाह सम्बन्ध का प्रतीक है।
महर्षि वशिष्ठ
संक्षिप्त सारांश
वसिष्ठ वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। वसिष्ठ एक सप्तर्षि हैं। उनकी पत्नी अरुन्धती है। वह योग-वासिष्ठ में राम के गुरु और राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। वसिष्ठ अर्थात आर्यों की पुरातन ओजस्वी संस्कृति के स्रष्टाओं में से एक अपूर्व स्रष्टा। 'वस' धातु श्रेष्ठत्व का सूचक है। वसिष्ठ का अर्थ है सबसे प्रकाशवान, सबसे उत्कृष्ट, सबमें श्रेष्ठ और महिमावंत। आदि वसिष्ठ को ब्रह्मा का मानस पुत्र, प्रजापतियों में एक कहा गया है। स्वयंभू मन्वंतर में वे ब्रह्मा की प्राणवायु से उत्पन्न हुए थे। बाद के वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में अग्नि के मध्य भाग से उत्पन्न हुए। यज्ञ के ऋत्विज पद को लेकर निमिराजा के साथ षट्राग हुआ, दोनों ने एक दूसरे को श्राप दिया, परिणामस्वरूप दोनों की आत्मा शरीर त्याग कर ब्रह्मलोक में गयी। वसिष्ठ का तीसरा जन्म, मित्रावरुण ने उर्वशी को देखा और उनका जो वीर्यस्खलन हुआ, उससे हुआ।
पौराणिक उल्लेख
वेद, इतिहास, पुराणों में वसिष्ठ के अनगिनत कार्यों का उल्लेख किया गया है। महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये ब्रह्मा के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं। इनकी पत्नी का नाम अरुन्धती देवी था। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्यवंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- 'इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।' फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया।
इक्ष्वाकु वंश के पुरोहित
निमि राजा के विवाह के बाद वसिष्ठ ने सूर्य वंश की दूसरी शाखाओं का पुरोहित कर्म छोड़कर केवल इक्ष्वाकु वंश के राजगुरु पुरोहित के रूप में कार्य किया। दशरथ से पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे राम आदि चार पुत्र हुए। अनेक बार आपत्ति का प्रसंग आने पर तपोबल से उन्होंने राजा प्रजा की रक्षा की। राम को शस्त्र शास्त्र की शिक्षा दी। वसिष्ठ के कारण ही 'रामराज्य' की स्थापना संभव हुई।
महर्षि वसिष्ठ ने सूर्यवंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न किया। इन्हीं के उपदेश के बल पर भगीरथ ने प्रयत्न करके गंगा-जैसी लोक कल्याणकारिणी नदी को हम लोगों के लिये सुलभ कराया। दिलीप को नन्दिनी की सेवा की शिक्षा देकर रघु-जैसे पुत्र प्रदान करने वाले तथा महाराज दशरथ की निराशा में आशा का संचार करने वाले महर्षि वसिष्ठ ही थे। इन्हीं की सम्मति से महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान श्री राम का अवतार हुआ। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वसिष्ठ का पुरोहित-जीवन सफल हो गया। भगवान श्री राम के वन गमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वसिष्ठ ने श्री राम के राज्यकार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये।
वसिष्ठ और विश्वामित्र
महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्वक ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।
विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। वसिष्ठ विश्वामित्र के बीच के संघर्ष की कथाएं सुविदित हैं। वसिष्ठ क्षत्रिय राजा विश्वामित्र को 'राजर्षि' कह कर सम्बोधित करते थे। विश्वामित्र की इच्छा थी कि वसिष्ठ उन्हें 'महर्षि' कहकर सम्बोधित करें। एक बार रात में छिप कर विश्वामित्र वसिष्ठ को मारने के लिए आये। एकांत में वसिष्ठ और अरुंधती के बीच हो रही बात उन्होंने सुनी। वसिष्ठ कह रहे थे, 'अहा, ऐसा पूर्णिमा के चन्द्रमा समान निर्मल तप तो कठोर तपस्वी विश्वामित्र के अतिरिक्त भला किस का हो सकता है? उनके जैसा इस समय दूसरा कोई तपस्वी नहीं।' एकांत में शत्रु की प्रशंसा करने वाले महापुरुष के प्रति द्वेष रखने के कारण विश्वामित्र को पश्चाताप हुआ। शस्त्र हाथ से फेंक कर वे वसिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। वसिष्ठ ने विश्वामित्र को हृदय से लगा कर 'महर्षि' कहकर उनका स्वागत किया। इस प्रकार दोनों के बीच शत्रुता का अंत हुआ।
व्यक्तित्व
वसिष्ठ महा तेजस्वी, त्रिकालदर्शी, पूर्णज्ञानी, महातपस्वी, शस्त्र शास्त्र के ज्ञाता और योगी थे। ब्रह्मशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप थे, मंत्र यज्ञ विद्या के वे जानकार थे। लोगों की वृत्ति बदलवाकर राष्ट्रों का नव निर्माण करने वाले थे। उनकी कार्य शक्ति अलौकिक थी।
वसिष्ठ के ग्रंथ
- ऋग्वेद के सातवें मंडल के द्रष्टावसिष्ठ हैं। इस मंडल में 104 सूक्तों में 841ऋचाएं हैं। उन्होंने अग्नि, इन्द्र, उषा, वरुण, मरुत, सविता, सरस्वती आदि आर्यों के पूज्य देवी देवताओं की स्तुति मधुर एवं ओजस्वी वाणी में की है।
- योगवासिष्ठ महारामायण - राम वसिष्ठ के संवाद के रूप में इस ग्रंथ के छ: प्रकरण हैं। वैराग्य, मुमुक्षुत्व, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण। कुल मिलाकर इस ग्रंथ में 32 हज़ार श्लोक हैं। अद्वैत वेदांत के ग्रंथों में इस ग्रंथ का विशिष्ट स्थान है। ग्रंथ में कहा है - मानवता पूर्वक जीवन जीए, वही सच्चा मानव है।
- वसिष्ठ धर्मसूत्र ( वसिष्ठ स्मृति) - इस ग्रंथ में 30 अध्याय हैं। वर्ण आश्रम के धर्म, संस्कार, स्त्रियों स्नातकों के धर्म, सदाचार, राजधर्म, वैदिक साहित्य की महिमा, प्रायश्चित, दान का पुण्य आदि विषयों का इसमें समावेश है। महत्त्वपूर्ण वाक्य : धर्म से रहो, अधर्म से नहीं; सत्य बोलो, असत्य नही; दृष्टि दीर्घ रखो, संकीर्ण नहीं और ' पश्यति नापरम परं'। इसमें कर्म का महत्त्व और आचरण का आदर्श प्रस्तुत किया है।
- वसिष्ठ संहिता- यह शाक्त ग्रंथ है। शांति, जय, होम, बलि, दान आदि विषयों के उपरांत इस ग्रंथ में ज्योतिष के विषयों पर विचार किया गया है। ग्रंथ में 45 अध्याय हैं।
- वसिष्ठ रचित धनुर्वेद का एक ग्रंथ कुछ पहले प्राप्त हुआ है।
- वसिष्ठ पुराण, वसिष्ठ श्राद्धकल्प, वसिष्ठ शिक्षा, वसिष्ठ होम विधि, वसिष्ठ तंत्र आदि अन्य ग्रंथों में उनके पहले के व्याकरणकारों के नामों में वसिष्ठ का नाम भी है।
- वसिष्ठ ने हिन्दू धर्म का सुयश विस्तृत किया, सांस्कृतिक परम्परा निर्माण की, सप्तर्षि में स्थान प्राप्त करने वाले इस आदर्श 'ब्रह्मर्षि' की भारतीय संस्कृति सदैव ऋणी रहेगी।
- इतिहास-पुराणों में महर्षि वसिष्ठ के चरित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये आज भी सप्तर्षियों में रहकर जगत का कल्याण करते रहते हैं।
For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी