Krishneshwar (कृष्णेश्वर - रुक्मणीश्वर, जांबवतीश्वर, सत्यभामेश्वर)

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चित्र में क्रमिक शिवलिंग के नाम : 
1- कृष्णेश्वर   2- रुक्मणीश्वर   3- जांबवतीश्वर   4- सत्यभामेश्वर

Krishneshwar
(कृष्णेश्वर - रुक्मणीश्वर, जांबवतीश्वर, सत्यभामेश्वर)

दर्शन महात्म्य : कृष्ण जन्माष्टमी - भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, अष्टमी

कृष्ण पक्ष, षष्ठी को बलराम जी के दर्शन का विधान है : यहां देखें

श्री कृष्ण की पत्नी भद्रा द्वारा स्थापित लिंग भद्रेश्वर महादेव को यहां पढ़ें

भगवान शिव की आराधना (बद्रीनारायण क्षेत्र में) कर श्री कृष्ण ने सांब की प्राप्ति की थी। भगवान श्रीकृष्ण ने ही सांब को कोढ़ी होने का श्राप दिया, जिसका प्रायश्चित श्री कृष्ण ने भगवान विश्वनाथ की पापाहर्ता नगरी काशी को ही सर्वसमर्थ बताया। सांब ने काशी में आकर कुंड का निर्माण करवाया तथा सूर्य मूर्ति (सांब आदित्य) की स्थापना की। सूर्य आराधना के फल स्वरुप सांब रोग मुक्त हो गए तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण अपनी अन्य पत्नियों के साथ काशी आए। उन पत्नियों ने भगवान श्री कृष्ण से काशी में लिंग स्थापना का महत्व जान श्री कृष्ण के द्वारा स्थापित लिंग के निकट ही अन्य लिंगों की स्थापना अपने-अपने नामों से की। उनमें से प्रमुख जांबवतीश्वर तथा भद्रेश्वर का वर्णन स्कंदपुराण काशीखंड मे मिलता है। भगवान के सन्निकट ही अन्य लिंग भी है जो स्थिति के आधार पर उनकी पत्नियों के द्वारा स्थापित बोले जाते हैं। मध्यमेश्वर में 1 वर्ष पर्यंत उन्होंने तपस्या की थी।

जिसके प्रमाण वेद और पुराण हो वही आस्तिक (शैव, वैष्णव या शाक्त) है...

शैव एवं वैष्णव समाधान

हरिहर की नगरी काशी : काशी हरिहर की नगरी है। शैव मतावलम्बी इस पुरी को शिवकाञ्ची तथा वैष्णव विष्णुकाञ्ची के रूप में देखते हैं। यह नगरी हरिहर के समावेश से शिवकाञ्ची तथा विष्णुकाञ्ची को स्वयं में समाहित किए हुए हैं। श्री काशी विश्वनाथ (देव-देव) से दक्षिण की काशी शिवकाशी तथा श्री काशी विश्वनाथ (देव-देव) से उत्तर वरुणा तट तक विष्णु काशी है। भगवान शिव के आराध्य श्री राम नारायण अवतार हैं। भगवान नारायण के आराध्य भगवान शिव है। यह दोनों ही एक दूसरे को सदा स्मरण करते रहते हैं। काशी में भगवान विश्वनाथ ने अपने पूजन से पूर्व भगवान नारायण (ज्ञान माधव) के पूजन को बतलाया है। श्री काशी विश्वनाथ (देव-देव) के पूजन से पूर्व ही भगवान नारायण जो ज्ञानवापी परिसर में ज्ञान माधव के रूप में अवस्थित है उनकी पूजा-अर्चना की जानी चाहिए तत्पश्चात भगवान विश्वनाथ की, ऐसा स्कंदपुराण काशीखंड में वर्णित है।

वैष्णव मार्गी कुछ भक्तों में भगवान को लेकर यह अहम उत्पन्न हो जाता है कि सच्चिदानंद भगवान से ऊपर कोई नहीं, जो परम सत्य है। भगवान नारायण ही सर्वआत्मा तथा सच्चिदानंद स्वरूप है। वे सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा भी चिदानंद स्वरूप शिव का ध्यान करते हैं। वैष्णो मार्ग भगवान नारायण के द्वारा सृजित सृष्टि को नारायणमय देखने को प्रेरित करती है। इस मार्ग के सर्वोच्च गुरु भगवान शिव है। जो परम वैष्णव है। भगवान नारायण तीनों गुणों के सृजनकर्ता (आधार) होते हुए भी त्रिगुणातीत (जो तीनों गुणों - सत्व, रज और तम से परे हो) है। वही सर्वआत्मा भगवान स्वयं को 3 रूपों में विभक्त कर सृष्टि का सृजन, पालन एवं संहार करते हैं। नित्य भगवान शिव की पूजा वैष्णव मार्ग में सर्वोच्च गुरु होने के कारण की जानी चाहिए। गुरु कृपा बिना भगवान नहीं मिलते हैं। अर्थात - शिव कृपा बिना नारायण नहीं मिलेंगे।

श्रीमान नारायण ने कृष्ण अवतार में काशी आकर 1 वर्ष पर्यंत काशी मध्य स्थित मध्यमेश्वर भगवान की पूजा अर्चना की तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण तथा उनकी प्रमुख रानियों ने मर्णिकर्णिका क्षेत्र में लिंग स्थापना किया। काशी आकर भगवान श्रीकृष्ण चिता भस्म धारण कर शिव आराधना करते हैं। ऐसा पद्मपुराण स्वर्गखण्ड से प्रमाण मिलता है। काशी में शिवलिंग स्थापना ही सर्वोच्च पूजा और तप है। प्रतिवर्ष भगवान नारायण काशी क्षेत्र की प्रदक्षिणा (पंचक्रोशी) ध्रुव जी का हाथ पकड़कर करते हैं। जो शैव व्रत का पालन करते हैं उन्हें हर मास की चतुर्दशी अर्थात मासिक शिवरात्रि तथा मासिक कृष्ण अष्टमी व्रत रखना अनिवार्य होता है। लिंग पूजा निषेध मानने वाले वैष्णव स्कंद पुराण अंतर्गत हाटकेश्वर प्रसंग में नारायण को देखें।

पद्मपुराणम्/खण्डः ३ (स्वर्गखण्डः)/अध्यायः ३६

।। नारद उवाच ।।

वाराणस्यां महाराज मध्यमेशं परात्परम् । तस्मिन्स्थाने महादेवो देव्या सह महेश्वरः ।।
रमते भगवान्नित्यं रुद्रैश्च परिवारितः । तत्र पूर्वं हृषीकेशो विश्वात्मा देवकीसुतः ।।
देवर्षि नारद ने कहा: हे राजन, वाराणसी में मध्यमेश्वर नामक सर्वोत्तम स्थान है। उस स्थान पर भगवान महादेव सदैव देवी (अर्थात पार्वती) के साथ रमण करते हैं और रुद्रों से घिरे रहते हैं। पूर्व में सार्वभौम देवता हृषिकेश, देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण, एक वर्ष तक वहाँ (वाराणसी में) रहे (और) सदैव शिव के भक्तों से घिरे रहे।

उवास वत्सरं कृष्णः सदा पाशुपतैर्युतः । भस्मोद्धूलितसर्वांगो रुद्राध्ययनतत्परः ।।
आराधयन्हरिः शंभुं कृत्वा पाशुपतंव्रतम् । तस्य ते बहवः शिष्याः ब्रह्मचर्यपरायणाः ।।
लब्ध्वा तद्वदनाज्ज्ञानं दृष्टवंतो महेश्वरम् । तस्य देवो महादेवः प्रत्यक्षं नीललोहितः ।।
देवर्षि नारद ने कहा: उनके (श्रीकृष्ण के) संपूर्ण अंग भस्म से सने हुवे तथा वे रुद्र ध्यान में तत्पर थे। शिव भक्त के व्रत (पाशुपत व्रत) का पालन करते हुए, हरि (कृष्ण) ने शिव की पूजा की। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले उनके सभी शिष्यों ने उनके मुख से ज्ञान प्राप्त किया और महेश्वर का दर्शन किया। वे प्रत्यक्ष देवों के देव, महादेव नीललोहित (शिव) थे। 

येऽर्चयंति च गोविंदं मद्भक्ता विधिपूर्वकम् ।।
तेषां तदैश्वरं ज्ञानमुत्पत्स्यति जगन्मयम् । नमस्योऽर्चयितव्यश्च ध्यातव्यो मत्परैर्जनैः ।।
भविष्यंति न संदेहो मत्प्रसादाद्द्विजातयः । येऽत्र द्रक्ष्यंति देवेशं स्नात्वा देवं पिनाकिनम् ।।
ब्रह्महत्यादिकं पापं तेषामाशु विनश्यति ।।
उन महान पूजनीय भगवान नीललोहित (अर्थात शिव), वरदान देने वाले ने, सीधे कृष्ण को एक उत्कृष्ट वरदान दिया। “वे मेरे (शिव) भक्त जो उचित अनुष्ठानों के साथ गोविंदा की पूजा करते हैं, उनके पास शिव (सत्य) से संबंधित ज्ञान होगा, जो दुनिया से भरा हुआ है। जो लोग मेरे प्रति समर्पित हैं, उन्हें, इन्हे (श्री कृष्ण को) नमस्कार करना चाहिए, उनकी पूजा करनी चाहिए और उनका ध्यान करना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरी कृपा से उनका (उन भक्तों का) कोई जन्म नहीं होगा। जो लोग यहां स्नान करके त्रिशूलधारी भगवान (मध्यमेश्वर) का दर्शन करते हैं उनका ब्राह्मण हत्या आदि पाप शीघ्र नष्ट हो जाता है।

स्कन्दपुराण : काशीखण्ड

 वसिष्ठेश समीपस्थः कृष्णेशो विष्णुलोकदः । तद्याम्यां याज्ञवल्क्येशो ब्रह्मतेजोविवधर्नः ।।

वशिष्ठ के समीप स्थापित कृष्णेश्वर विष्णु लोक प्रदान करते हैं। इसके दक्षिण में याज्ञवल्कयेश आध्यात्मिक ऊर्जा को बढ़ाते हैं।

महाबुद्धिप्रदस्तत्र पूज्यो जांबवतीश्वरः । आश्विने येश्वरौ पूज्यौ गंगायाः पश्चिमे तटे ।।

वहाँ महान बुद्धि प्रदान करने वाले जाम्बवतीश्वर की पूजा करनी चाहिए। अश्विनीश्वर (जुड़वा देवताओं अश्विनीकुमारों द्वारा स्थापित शिवलिंग) की पूजा गंगा के पश्चिमी तट पर की जानी चाहिए।


श्रीकृष्णद्वादशनामस्तोत्रम्

।। श्री गणेशाय नमः ।।

।। श्रीकृष्ण उवाच ।।

किं ते नामसहस्रेण विज्ञातेन तवाऽर्जुन । तानि नामानि विज्ञाय नरः पापैः प्रमुच्यते ॥ १ ॥

प्रथमं तु हरिं विन्द्याद् द्वितीयं केशवं तथा । तृतीयं पद्मनाभं च चतुर्थं वामनं स्मरेत् ॥ २ ॥

पञ्चमं वेदगर्भं तु षष्ठं च मधुसूदनम् । सप्तमं वासुदेवं च वराहं चाऽष्टमं तथा ॥ ३ ॥

नवमं पुण्डरीकाक्षं दशमं तु जनार्दनम् । कृष्णमेकादशं विन्द्याद् द्वादशं श्रीधरं तथा ॥ ४ ॥

एतानि द्वादश नामानि विष्णुप्रोक्ते विधीयते । सायं-प्रातः पठेन्नित्यं तस्य पुण्यफलं श‍ृणु ॥ ५ ॥

चान्द्रायण-सहस्राणि कन्यादानशतानि च । अश्वमेधसहस्राणि फलं प्राप्नोत्यसंशयः ॥ ६ ॥

अमायां पौर्णमास्यां च द्वादश्यां तु विशेषतः । प्रातःकाले पठेन्नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ७ ॥

॥ इति श्रीमन्महाभारतेऽरण्यपर्वणि कृष्णद्वादशनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


भगवान श्री कृष्ण

।। कर्षति आकर्षति इति कृष्णः ।।

कर्षति अरीन् इति कृष्णः” व “कर्षति (=आकर्षति) हृदयं इति कृष्णः” दोनों विग्रहों में एक ही व्युत्पत्ति है। 
“कृषेर्वर्णे” (३.४) उणादि सूत्र से बहुलता से वर्णेतर अर्थ में भी √कृष् शातु से न[क्] प्रत्यय— कृष् + न
“रषाभ्यां नो णः समानपदे” (८.४.१) से न को ण होकर— कृष्ण

भगवान कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में अर्धरात्रि को हुआ था। यह नक्षत्र चंद्रमा द्वारा शासित है। कृष्ण वसुदेव और देवकी की 8वीं संतान थे। देवकी कंस की बहन थी। कंस एक अत्याचारी राजा था। उसने आकाशवाणी सुनी थी कि देवकी के आठवें पुत्र द्वारा वह मारा जाएगा। इससे बचने के लिए कंस ने देवकी और वसुदेव को मथुरा के कारागार में डाल दिया। मथुरा के कारागार में ही भाद्रपद (भादो) मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनका जन्म हुआ। कंस के डर से वसुदेव ने नवजात बालक को रात में ही यमुना पार गोकुल में यशोदा के यहाँ पहुँचा दिया। गोकुल में उनका लालन-पालन हुआ था। यशोदा और नन्द उनके पालक माता-पिता थे।


बाल्यावस्था में ही उन्होंने बड़े-बड़े कार्य किए जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। अपने जन्म के कुछ समय बाद ही कंस द्वारा भेजी गई राक्षसी पूतना का वध किया , उसके बाद शकटासुर, तृणावर्त आदि राक्षस का वध किया। बाद में गोकुल छोड़कर नंद गाँव आ गए वहां पर भी उन्होंने कई लीलाएं की जिसमे गोचारण लीला, गोवर्धन लीला, रास लीला आदि मुख्य है। इसके बाद मथुरा में मामा कंस का वध किया। सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थापना की और वहाँ अपना राज्य बसाया। पांडवों की मदद की और विभिन्न संकटों से उनकी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और रणक्षेत्र में ही उन्हें उपदेश दिया। 124 वर्षों के जीवनकाल के बाद उन्होंने अपनी लीला समाप्त की। उनके अवतार समाप्ति के तुरंत बाद परीक्षित के राज्य का कालखंड आता है। राजा परीक्षित, जो अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा अर्जुन के पौत्र थे, के समय से ही कलियुग का आरंभ माना जाता है।


कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तृत रूप से लिखा गया है। भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस उपदेश के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान दिया जाता है।


कृष्ण जन्माष्टमी, जिसे जन्माष्टमी वा गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक सनातन त्योहार है जो विष्णुजी के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म के आनन्दोत्सव के लिये मनाया जाता है। कृष्ण जन्माष्टमी सनातन वैदिक पंचांग के अनुसार, कृष्ण पक्ष के आठवें दिन (अष्टमी) को भाद्रपद में मनाई जाती है।


कृष्ण को पूर्णावतार कहा गया है। कृष्ण के जीवन में वह सब कुछ है जिसकी मानव को आवश्यकता होती है। कृष्ण गुरु हैं, तो शिष्य भी। आदर्श पति हैं तो प्रेमी भी। आदर्श मित्र हैं, तो शत्रु भी। वे आदर्श पुत्र हैं, तो पिता भी। युद्ध में कुशल हैं तो बुद्ध भी। कृष्ण के जीवन में हर वह रंग है, जो धरती पर पाए जाते हैं इसीलिए तो उन्हें पूर्णावतार कहा गया है। मूढ़ हैं वे लोग, जो उन्हें छोड़कर अन्य को भजते हैं…


भजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते। नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे॥

गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है


श्रीकृष्ण चिन्ह: सुदर्शन चक्र, मोर मुकुट, बंसी, पितांभर वस्त्र, पांचजन्य शंख, गाय, कमल का फूल और माखन मिश्री।

श्रीकृष्ण की 8 सखियां: राधा, ललिता आदि सहित कृष्ण की 8 सखियां थीं। सखियों के नाम निम्न हैं- ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार इनके नाम इस तरह हैं- चन्द्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या, राधा, ललिता, विशाखा तथा भद्रा। कुछ जगह ये नाम इस प्रकार हैं- चित्रा, सुदेवी, ललिता, विशाखा, चम्पकलता, तुंगविद्या, इन्दुलेखा, रग्डदेवी और सुदेवी।

इसके अलावा भौमासुर से मुक्त कराई गई सभी महिलाएं कृष्ण की सखियां थीं। कुछ जगह पर- ललिता, विशाखा, चम्पकलता, चित्रादेवी, तुङ्गविद्या, इन्दुलेखा, रंगदेवी और कृत्रिमा (मनेली)। इनमें से कुछ नामों में अंतर है।

कृष्ण की आठ रानियाँ थीं जो सभी समान रूप से पत्नी के पद को प्राप्त थीं, इसके अतिरिक्त नरकासुर के बंधन से मुक्त की गई स्त्रियाँ भी कृष्ण को अपना पति मानती थीं। समाज में उन्हें कहीं स्थान नहीं मिल सकता था इसलिए कृष्ण ने उन्हें भी अपनी पत्नी रूप में स्वीकार किया था। इस प्रकार कृष्ण के १६ हजार १०८ रानियाँ थीं।


एक बार नारद जी को कौतुक हुआ कि देखें कृष्ण इन सब के साथ कैसा और कैसे व्यव्हार कर रहे हैं? कृष्ण तो लीला पुरुषोत्तम थे १६ कलाओं के पूर्ण अवतार थे इसलिए जब नारद जिस किसी भी रानी के राज प्रासाद में गये उन्होंने वहाँ कृष्ण को उपस्थित देखा। कहीं कृष्ण किसी रानी के साथ चौपड़ खेलते, कहीं विहार करते, कहीं वीणा वादन करते दिखे। पूर्ण अवतार ,अपने आगमन के साथ ही विचित्र लीलाएं शुरू कर देते हैं। कृष्ण के साथ उनके जन्म के पूर्व से लेकर जन्महोने के बाद पूतना उद्धार से शुरु होकर आगे निरंतर राक्षसों के संहार और कंस वध तक और फिर महाभारत युद्ध से लेकर निज यादव कुल के संहार तक निरन्तर अद्भुत लीलाएं हम देखते हैं। अन्य किसी अवतार में हम ऐसी अद्भुत लीलाएं नहीं देखते हैं।


कृष्ण की आठ रानियों के कृष्ण के विवाह की कथाएँ भी रोचक हैं। जो इन्हें नहीं जानते वे कुछ भी शंकाएँ करते रहते हैं, उन्हें भी यह अवश्य पढ़ना चाहिए..


ये आठ रानियाँ हैं : १- रुक्मणी २- जाम्बवती ३- सत्यभाभा ४ सत्या ५- कालिंदी ६- लक्ष्मणा ७- मित्रविन्दा ८- भद्रा .(कुछ मतांतर पुराणों में है ) 


1. रुक्मिणी

विदर्भ राज्य का भीष्म नामक एक वीर राजा था। उसकी पुत्री का नाम रुक्मिणी था। वह साक्षात लक्ष्मीजी का ही अंश थीं। वह अत्यधिक सुंदर और सभी गुणों वाली थी। नारद जी द्वारा श्रीकृष्ण के गुणों सा वर्णन सुनने पर रुक्मिणी श्रीकृष्ण से ही विवाह करना चाहती थी। रुक्मिणी के रूप और गुणों की चर्चा सुनकर भगवान कृष्ण ने भी रुक्मिणी के साथ विवाह करने का निश्चय कर लिया था। रुक्मिणी का एक भाई था, जिसना नाम रुक्मि था। उसने रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से साथ तय कर दिया था। जब यह बात श्रीकृष्ण को पता चली तो वे विवाह से एक दिन पहले बलपूर्वक रुक्मिणी का हरण कर द्वारका ले गए। द्वारका पहुंचने के बाद श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का विवाह किया गया। रुकमणी के दस पुत्र पैदा हुये। रुक्मणी से कृष्ण की एक पुत्री थीं जिसका नाम चारू था।


2. जाम्बवती

सत्राजित नामक एक यादव था। उसने भगवान सूर्य की बहुत भक्ति की। जिससे खुश होकर भगवान ने उसे एक मणि प्रदान की थी। भगवान कृष्ण ने सत्राजित को वह मणि राजा उग्रसेन को भेंट करने को कहा, लेकिन सत्राजित ने उनकी बात नहीं मानी और मणि अपने पास ही रखी। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन उस मणि को लेकर जंगल में शिकार करने गया। वहां एक शेर ने प्रसेन का वध करके वह मणि छीन ली और अपनी गुफा में जा छिपा। कुछ दिनों बाद ऋक्षराज जाम्बवन्त ने शेर को मारकर वह मणि अपने पास रख ली। सत्राजित ने मणि चुराने और अपने भाई का वध करने का दोष श्रीकृष्ण पर लगा। इस दोष के मुक्ति पाने के लिए श्रीकृष्ण उस मणि की खोज करने के लिए वन में गए। मणि की रोशनी से श्रीकृष्ण उस गुफा तक पहुंच गए, जहां जाम्बवन्त और उसकी पुत्री जाम्बवती रहती थी। श्रीकृष्ण और जाम्बवन्त के बीच घोर युद्ध हुआ। युद्ध में पराजित होने पर जाम्बवन्त को श्रीकृष्ण के स्वयं विष्णु अवतार होने की बात पता चली। श्रीकृष्ण का असली रूप जानने पर जाम्बवन्त ने उनसे क्षमा मांगी और अपने अपराध का प्रायश्चित करने के लिए अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।


3. सत्यभामा

मणि लेकर श्रीकृष्ण द्वारका पहुंचे। वहां पहुंचकर श्रीकृष्ण ने वह मणि सत्राजित को दी और खुद पर लगाए दोष को गलत साबित किया। श्रीकृष्ण के निर्दोष साबित होने पर सत्राजित खुद को अपमानित महसूस करने लगा। वह श्रीकृष्ण के तेज को जानता था, इसलिए वह बहुत भयभीत हो गया। उसकी मूर्खता की वजह से कहीं श्रीकृष्ण की उससे कोई दुश्मनी न हो जाए, इस डर से सत्राजित ने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।


4. सत्या (नग्नजिती)

कौशल राज्य के राजा नग्नजित की एक पुत्री थी। जिसका नाम नग्नजिती थी। वह बहुत सुंदर और सभी गुणों वाली थी। अपनी पुत्री के लिए योग्य वर पाने के लिए नग्नजित ने शर्त रखी। शर्त यह थी कि जो भी क्षत्रिय वीर सात बैलों पर जीत प्राप्त कर लेगा, उसी के साथ नग्नजिती का विवाह किया जाएगा। एक दिन भगवान कृष्ण को देख नग्नजिती उन पर मोहित हो गई और मन ही मन भगवान कृष्ण से ही विवाह करने का प्रण ले लिया। भगवान कृष्ण यह बात जान चुके थे। अपनी भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान कृष्ण ने सातों बैल को अपने वश में करके उन पर विजय प्राप्त की। भगवान का यह पराक्रम देखकर नग्नजित ने अपनी पुत्री का विवाह भगवान कृष्ण के साथ किया।


5. कालिन्दी

एक बार भगवान कृष्ण अपने प्रिय अर्जुन के साथ वन में घूम रहे थे। यात्रा की धकान दूर करने के लिए वे दोनों यमुना नदीं के किनार जाकर बैठ गए। वहां पर श्रीकृष्ण और अर्जुन को एक युवती तपस्या करती हुई दिखाई दी। उस युवती को देखकर अर्जुन ने उसका परिचय पूछा। अर्जुन द्वारा ऐसा पूछने पर उस युवती ने अपना नाम सूर्यपुत्री कालिन्दी बताया। वह यमुना नदीं में निवास करते हुए भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। यह बात जान कर भगवान कृष्ण ने कालिन्दी को अपने भगवान विष्णु के अवतार होने की बात बताई और उसे अपने साथ द्वारका ले गए। द्वारका पहुंचने पर भगवान कृष्ण और कालिन्दी का विवाह किया गया।


6. लक्ष्मणा

लक्ष्मणा ने देवर्षि नारद से भगवान विष्णु के अवतारों के बारे में कई बातों सुनी थी। उसका मन सदैव भगवान के स्मरण और भक्ति में लगा रहता था। लक्ष्मणा भगवान विष्णु को ही अपने पति रूप में प्राप्त करना चाहती थी। उसके पिता यह बात जानते थे। अपनी पुत्री की इच्छा पूरी करने के लिए उसके पिता ने स्वयंवर का एक ऐसा आयोजन किया, जिसमें लक्ष्य भेद भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के सिवा कोई दूसरा न कर सके। लक्ष्मणा के पिता ने अपनी पुत्री के विवाह उसी वीर से करने का निश्चय किया, जो की पानी में मछली की परछाई देखकर मछली पर निशाना लगा सके। शिशुपाल, कर्ण, दुर्योधन, अर्जुन कोई भी इस लक्ष्य का भेद न कर सका। तब भगवान कृष्ण ने केवल परछाई देखकर मछली पर निशाना लगाकर स्वयंवर में विजयी हुए और लक्ष्मणा के साथ विवाह किया।


7. मित्रविंदा

अवंतिका (उज्जैन) की राजकुमारी मित्रविंदा के विवाह के लिए स्वयंवर का आयोजन किया गया था। उस स्वयंवर में मित्रविंदा जिसे भी अपने पति रूप में चुनती उसके साथ मित्रविंदा का विवाह कर दिया जाता। उस स्वयंवर में भगवान कृष्ण भी पहुंचे। मित्रविंदा भगवान कृष्ण के साथ ही विवाह करना चाहती था, लेकिन उसका भाई विंद दुर्योधन का मित्र था। इसलिए उसने अपनी बहन को बल से भगवान कृष्ण को चुनने से रोक लिया। जब भगवान कृष्ण को मित्रविंदा के मन की बात पता चली। तब भगवान ने सभी विरोधियों के सामने ही मित्रविंदा का हरण कर लिया और उसके साथ विवाह किया।


8. भद्रा

भगवान कृष्ण की श्रुतकीर्ति नामक एक भुआ कैकय देश में रहती थी। उनकी एक भद्रा नामक कन्या थी। भद्रा और उसके भाई भगवान कृष्ण के गुणों को जानते थे। इसलिए भद्रा के भाइयों ने उसका विवाह भगवान कृष्ण के साथ करने का निर्णय किया। अपनी भुआ और भाइयों के इच्छा पूरी करने के लिए भगवान कृष्ण ने पूरे विधि-विधान के साथ भद्रा के साथ विवाह किया।


श्रीमद्भागवत के अनुसार १६ हजार १०८ रानियों से भगवान श्री कृष्ण को प्रत्येक से १०-१० पुत्र प्राप्त हुए जिनमें से आठ मुख्य रानियों से प्राप्त पुत्रों के नाम इस प्रकार है...


1.रुक्मिणी : प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।

2.सत्यभामा : भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।

3.जाम्बवंती : साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।

4.सत्या : वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुन्ति।

5.कालिंदी : श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।

6.लक्ष्मणा : प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।

7.मित्रविन्दा : वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।

8.भद्रा : संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।



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कृष्णेश्वर महादेव, संकठा देवी की उत्तरी दीवार पर, CK.7/159 पर हरिश्चंद्रेश्वर के सामने स्थित हैं।
Krishneshwar Mahadev Is Located In North Wall Of Sankatha Devi, At Ck.7/159 Facing Harishchandreshvara.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी


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