Pavaneshwar (पवनेश्वर - काशी में पवन देव का शिवलिंग प्रतिष्ठा कर तपस्या करना तथा भगवान शिव द्वारा अष्टमूर्ति में स्थान पाना एवं दिक्पाल के पद पर प्रतिष्ठित होना)

0
 स्कन्दपुराणम्/खण्डः ४ (काशीखण्डः)/अध्यायः ०१३
॥ गणावूचतुः ॥
इमां गंधवतीं पुण्यां पुरीं वायोर्विलोकय ॥ वारुण्या उत्तरे भागे महाभाग्यनिधे द्विज ॥ १ ॥
अस्यां प्रभंजनो नाम जगत्प्राणोदिगीश्वरः ॥ आराध्य श्रीमहादेवं दिक्पालत्वमवाप्तवान् ॥ २ ॥
पुरा कश्यपदायादः पूतात्मेति च विश्रुतः ॥ धूर्जटे राजधान्यां स चचार विपुलं तपः ॥ ३ ॥
वाराणस्यां महाभागो वर्षाणामयुतं शतम् ॥ स्थापयित्वा महालिंगं पावनं पवनेश्वरम् ॥ ४ ॥
यस्य दर्शनमात्रेण पूतात्मा जायते नरः ॥ पापकंचुकमुत्सृज्य स वसेत्पावने पुरे ॥ ५ ॥
ततस्तस्योग्रतपसा तपसाफलदः शिवः ॥ आविरासीत्ततो लिंगाज्ज्योतीरूपो महेश्वरः ॥ ५ ॥
उवाच च प्रसन्नात्मा करुणामृतसागरः ॥ उत्तिष्ठोत्तिष्ठ पूतात्मन्वरं वरय सुव्रत ॥ ७ ॥
अनेन तपसोग्रेण लिंगस्याराधनेन च ॥ तवादेयं न पूतात्मंस्त्रैलोक्ये सचराचरे ॥८॥
विष्णु पार्षद कहते हैं- महाभाग्यनिधि द्विज! वरुण नगरी के उत्तर भाग में इस गन्धर्व नगरी नामक नगरी को देखो। इस पुरी में दिकपति प्रभंजन वायु स्थित है। इस वायु ने महादेव की आराधना द्वारा दिकपालत्व लाभ किया था। पूर्वकाल में पूतात्मा नामक कश्यपनन्दन ने शिवराजधानी वाराणसी में पवनेश्वर नाम से पावन शिवलिंग स्थापित किया तथा उसके १०००० वर्ष पर्यन्त महातप किया। इस शिवलिंग के दर्शन मात्र से मानव पूतात्मा हो जाता है तथा पापकंचुक रहित होकर अन्त में पवनलोक प्राप्त करता है। महेश्वर शिव अनन्तफल दाता हैं। वे पूतात्मा की उग्र तपस्या के प्रभाव से उस लिंग से ज्योति रूप में आविर्भूत हो गये। उन करुणामृत सागर शंभु ने प्रसन्नचित्त से पूतात्मा से कहा- हे पूतात्मा! उठो! हे सुब्रत! वर मांगो। तुमने उग्र तप द्वारा इस शिवलिंग की आराधना किया है। इसलिये समस्त त्रैलोक्य में कुछ भी तुम्हारे लिये अदेय नहीं है।
॥ पूतात्मोवाच ॥
देवदेवमहादेव देवानामभयप्रद ॥ ब्रह्मनारायणेंद्रादि सर्वदेवपदप्रद ॥ ९ ॥
वेदास्त्वां न च विंदंति किमात्मक इति प्रभो॥ प्राप्ताः शतपथत्वं च नेतिनेतीतिवादिनः ॥१०॥
ब्रह्मविष्ण्वोपि गिरां गोचरो न च वाक्पतेः॥ प्रमथेशं कथं स्तोतुं मादृशः प्रभवेत्प्रभो ॥११॥
प्रसह्य प्रमिमीतेश भक्तिर्मांस्तुतिकर्मणि ॥ करोमि किं जगन्नाथ न वश्यानींद्रियाणि मे ॥ १२ ॥
विश्वं त्वं नास्ति वै भेदस्त्वमेकः सर्वगो यतः ॥ स्तुत्यं स्तोता स्तुतिस्त्वं च सगुणो निर्गुणो भवान् ॥१३॥
सर्गात्पुरा भवानेको रूपनाम विवर्जितः ॥ योगिनोपि न ते तत्त्वं विंदंति परमार्थतः ॥ १४ ॥
पूतात्मा कहता है- हे देवगण को अभयप्रदाता, देवदेव, महादेव! आप ब्रह्मा-नारायण-इन्द्रादि देवता को पद देने वाले हैं। हे प्रभो! समस्त वेद सदा आपका स्वरूप कीर्त्तन करते हुये शतपथत्व की प्राप्ति करते हैं तथा आप कैसे हैं, वे यह जान नहीं पाते। अतः नेति-नेति कहते हैं। हे प्रभो! हे प्रमथेश! आप ब्रह्मा-विष्णु- वाचस्पति को भी नयनगोचर नहीं होते। न तो उनके वचनगोचर ही होते हैं। ऐसी स्थिति में मेरे जैसा सामान्य प्राणी आपका स्तव कर सकने में कैसे समर्थ हो सकता है? हे ईश्वर! केवल भक्ति ने ही मुझे आपका स्तव करने में प्रवृत्त किया है। हे जगन्नाथ! अब क्या करूं? मेरी इन्द्रियां मेरे वश में नहीं हैं। विश्व में तथा आप में पारस्परिक कोई भेद नहीं है। अतः आप एक एवं अद्वितीय हैं। आप सर्वव्यापी, स्तुत्य एवं स्तुति हैं। आप ही सगुण तथा निर्गुण भी हैं। सृष्टि के पूर्व में नामरूपरहित एकमात्र आप ही रहते हैं। योगीगण भी परमार्थतः आपका तत्वभेद नहीं कर सकते।।९-१४।।
यदैकलो न शक्नोषि रंतुं स्वैरचर प्रभो ॥ तदिच्छा तवयोत्पन्ना सेव्या शक्तिरभूत्तव ॥ १५ ॥
त्वमेको द्वित्वमापन्नः शिवशक्तिप्रभेदतः ॥ त्वं ज्ञानरूपो भगवान्स्वेच्छा शक्तिस्वरूपिणी ॥ १६ ॥
उभाभ्यां शिवशक्तिभ्या युवाभ्यां निजलीलया ॥ उत्पादिता क्रियाशक्तिस्ततः सर्वमिदं जगत् ॥ १७ ॥
ज्ञानशक्तिर्भवानीश इच्छाशक्तिरुमा स्मृता ॥ क्रियाशक्तिरिदं विश्वमस्य त्वं कारणं ततः ॥ १८ ॥
दक्षिणांगं तव विधिर्वामांगं तव चाच्युतः ॥ चंद्रसूर्याग्निनेत्रस्त्वं त्वन्निःश्वासः श्रुतित्रयम् ॥ १९ ॥
त्वत्स्वेदादंबुनिधयस्तव श्रोत्रं समीरणः ॥ बाहवस्ते दशदिशो मुखं ते ब्राह्मणाः स्मृताः ॥२०॥
राजन्यवर्यास्ते बाहु वैश्या ऊरुसमुद्भवाः ॥ पद्भ्यां शूद्रस्तवेशान केशास्ते जलदाः प्रभो ॥ २१ ॥
हे स्वच्छन्द बिहारी प्रभु! जब आप एकाकी क्रीड़ारत नहीं हो पाते, तब आपमें जो इच्छा उदित होती है, वही आपकी सेवनीया शक्ति हो जाती है। आप ही एक होकर भी शिव तथा शक्ति भेद से दो होकर स्थित होते हैं। आप भगवान्‌ शिव ज्ञानरूपी हैं तथा आपकी इच्छा शक्तिरूपा है। शिव-शक्ति रूपी दोनों ही लीलाक्रमेण क्रिया शक्ति का उत्पादन करते हैं। वह क्रियाशक्ति ही समस्त जगत्‌ है। भवानीपति आप ज्ञानशक्ति हैं। इच्छाशक्ति उमा हैं। यह विश्व आप दोनों की क्रियाशक्ति है। अतएव आप ही जगत्कारणरूप हैं। ब्रह्मा आपके दाहिने अंग हैं। विष्णु आपके वाम अंग हैं। चन्द्र-सूर्य-अग्नि आपके तीन नेत्र हैं। वेदत्रय आपका निःश्वास हैं। आपके पसीने से चारों सागर उद्धृत होते हैं। वायु आपका कान है। दशों दिशायें आपकी बाहु हैं। ब्राह्मण आपके मुख हैं। क्षत्रिय आपकी दो बाहें हैं। वैश्यगण आपके उरुद्बय से उत्पन्न हैं। हे ईशान्‌! शूद्र आपके द्विपद हैं।
त्वं पुं प्रकृतिरूपेण ब्रह्मांडमसृजः पुरा॥ मध्ये ब्रह्मांडमखिलं विश्वमेतच्चराचरम्॥ २२ ॥
अतस्त्वत्तो न मन्येऽहं किंचिद्भिन्नं जगन्मय ॥ त्वयि सर्वाणि भूतानि सर्वभूतमयो भवान् ॥ २३ ॥
नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमस्तुऽभ्यं नमोनमः ॥ अयमेव वरो नाथ त्वयि मेऽस्तु स्थिरा मतिः ॥ २४ ॥
हे प्रभु! मेघजाल आपके केशकलाप हैं। आप पूर्व में प्रकृति-पुरुष रूप में यह ब्रह्माण्ड हैं। ब्रह्माण्ड में यह अखिल चराचर विश्वसृष्टि भी आप ही करते हैं। हे जगन्मय! अतएव जगत्‌ में कुछ भी आपसे भिन्न नहीं है। सभी भूतसमूह आप में विद्यमान हैं। आप ही सर्वभूतात्मक हैं। आपको प्रणाम! आपको प्रणाम! मैं यही वर मांगता हूं।
इत्युक्तवति देवेश स्तस्मिन्पूतात्मनि प्रभुः ॥ स्वमूर्तित्वं समारोप्य दिक्पालपदमादधे ॥ २५ ॥
सर्वगो मम रूपेण सर्वतत्त्वावबोधकः ॥ सर्वेषामायुषोरूपं भवानेव भविष्यति ॥ २६ ॥
तव लिंगमिदं दिव्यं ये द्रक्ष्यंतीह मानवाः ॥ सर्वभोगसमृद्धास्ते त्वल्लोकसुखभागिनः ॥ २७ ॥
पवमानेश्वरं लिंगं मध्ये जन्मसकृन्नरः ॥ यथोक्तविधिना पूज्य सुगंधस्नपनादिभिः ॥ २८ ॥
सुगंधचंदनैः पुष्पैर्मम लोके महीयते ॥ ज्येष्ठेशात्पश्चिमेभागे वायुकुंडोत्तरेण तु ॥ २९ ॥
पावमानं समाराध्य पूतो भवति तत्क्षणात् ॥ इति दत्त्वा वरान्देवस्तस्मिँल्लिंगे लयं ययौ ॥३०॥
पूतात्मा के यह कहने पर प्रभु देवदेव ने पूतात्मा को अपनी अष्ठमूत्ति के अन्तर्गत्‌ करके दिकपाल पद पर स्थापित कर दिया। तदनन्तर भगवान्‌ ने कहा- तुम मेरे स्वरूप में सर्वत्रगा्मी होगे। तुम सर्वतत्वज्ञ होगे। सबके जीवन स्वरूप हो जाओगे। इस शिवलिंग का दर्शन करने वाले लोक प्राप्ति का सुख लाभ करेगे। जो मानव जीवन में एक बार भी पवमानेश्वर (पवनेश्वर) शिवलिंग का पूजन सुगन्धित जल तथा सुगन्धित चन्दन एवं पुष्प से करेगा, वह सम्मानित होकर मेरा स्थानलाभ करेगा। ज्येष्ठेश्वर लिंग के पश्चिम की ओर तथा वायुकुण्ड के उत्तर में अवस्थित पवनेश्वर लिंग की आराधना द्वारा मनुष्य तत्क्षण पवित्र हो जाते हैं। देवदेव यह सब वर पूतात्मा को देकर पवनेश्वर लिंग में लयीभूत हो गये।

GPS LOCATION OF THIS TEMPLE CLICK HERE

EXACT GPS LOCATION : 25.31751734580187, 83.01059354555012


पवनेश्वर लिंग K-63/14, भूत भैरव मोहल्ले में ज्येष्ठेश्वर के निकट स्थित हैं।
Pavaneshwar Ling is located at K-63/14, Bhoot Bhairav Mohalla, near Jyesthesvara.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)