Jyestheshwar (ज्येष्ठेश्वर - काशी का ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ क्षेत्र तथा शतकलाक पुत्र जैगीषव्य द्वारा काशी में जैगीषव्येश्वर लिंग की स्थापना एवं भगवान महादेव का जैगीषव्य को समस्त योगविद्या का वरदान देना )

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Jyestheshwar 

ज्येष्ठेश्वर - काशी का ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ क्षेत्र तथा शतकलाक पुत्र जैगीषव्य द्वारा काशी में जैगीषव्येश्वर लिंग की स्थापना एवं भगवान महादेव का जैगीषव्य को समस्त योगविद्या का वरदान देना....


॥  दर्शन महात्म्य 

ज्येष्ठ विनायक : ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी    ज्येष्ठा गौरीज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी 

ज्येष्ठेश्वर : ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्दशी (सोमवार, अनुराधा नक्षत्र अति दुर्लभ योग)


श्रीशिवनारायणसहस्रनामावलिः ॐ ज्येष्ठाय नमः ॥ ॐ श्रेष्ठाय नमः ॥


ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः_४०

नमो ज्येष्ठाय श्रेष्ठाय बलप्रमथनाय च। उग्राय च नमो नित्यं नमश्च दशबाहवे॥ ४०.२१ ॥


स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०३३

कालेश्वरकपर्दीशौ चरणावतिनिर्मलौ ॥ ज्येष्ठेश्वरो नितंबश्च नाभिर्वै मध्यमेश्वरः ॥ १७० ॥

भगवान विश्वनाथ के कालेश्वर और कपर्दिश्वर दो निष्कलंक पवित्र चरण हैं। ज्येष्ठेश्वर नितम्ब है और मध्यमेश्वर नाभि है।


स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६५

॥ स्कंद उवाच ॥

ज्येष्ठेश्वरस्य परितो यानि लिंगानि कुंभज॥ तानि पंचसहस्राणि मुनीनां सिद्धिदान्यलम् ॥ १ ॥

पराशरेश्वरं लिंगं ज्येष्ठेशादुत्तरे महत्॥ तस्य दर्शनमात्रेण निर्मलं ज्ञानमाप्यते ॥ २ ॥

तत्रैव सिद्धिदं लिंगं मांडव्येश्वरसंज्ञितम् ॥ न तस्य दर्शनाज्जातु दुर्बुद्धिं प्राप्नुयान्नरः ॥ ३ ॥

लिंगं च शंकरेशाख्यं तत्रैव शुभदं सदा ॥ भृगुनारायणस्तत्र भक्तानां सर्वसिद्धिदः ॥ ४ ॥

जाबालीश्वर संज्ञं च लिंगं तत्रातिसिद्धिदम् ॥ तस्य संदर्शनाज्जातु न जंतुर्दुर्गतिं व्रजेत् ॥ ५ ॥

 सुमंतु मुनिना श्रेष्ठस्तत्रादित्यः प्रतिष्ठितः ॥ तस्य संदर्शनादेव कुष्ठव्याधिः प्रशाम्यति ॥ ६ ॥

भैरेवी भीषणा नाम तत्र भीषणरूपिणी ॥ क्षेत्रस्य भीषणं सर्वं नाशयेद्भावतोर्चिता ॥ ७ ॥

स्कन्ददेव कहते हैं- हे कुम्भज! ज्येष्ठेश्वर के चतुर्दिक्‌ जो सब शिवलिङ्ग हैं, उनकी संख्या पांच हजार है। मुनिगण उनके निकट परमसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। ज्येष्ठेश्वर के उत्तर में पराशरेश्वर नामक महत्‌ एक शिवलिङ्ग  विराजित है। इनके दर्शनमात्र से निर्मल ज्ञानलाभ होता है तथा वहीं माण्डव्येश्वर नामक अन्य एक सिद्धिदायक लिङ्ग स्थित है। इनका दर्शन करने वाले मनुष्य में कभी भी दुर्बुद्धि का उदय नहीं होता। वहां सतत्‌ शुभप्रद शंकरेश्वर नामक एकलिङ्ग तथा भक्तों को सर्वसिद्धिप्रद वृद्धनारायण भी स्थित हैं। वहीं परम सिद्धिदायक जाबालीश्वर नामक लिङ्ग भी है। प्राणीगण उनका निरीक्षण करके कभी भी दुर्गति का भोग नहीं करते। वहीं पर सुमन्तु मुनि द्वारा प्रतिष्ठापित अत्युत्तम श्रेष्ठादित्य मूर्ति विराजमान है। इनका दर्शन करने से कुष्ठ रोग प्रशमित होता है। वही भीषणा नाम्नी भीषणरूपा भैरवी भी हैं। भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करने से क्षेत्र की समस्त विपत्ति दूरीभूत हो जाती है।

तत्रोपजंघने लिंगं कर्मबंधविमोक्षणम् ॥ नृभिः संसेवितं भक्त्या षण्मासात्सिद्धिदं परम्॥८॥

भारद्वाजेश्वरं लिंगं लिंगं माद्रीश्वरं वरम् ॥ एकत्र संस्थिते द्वे तु द्रष्टव्ये सुकृतात्मना ॥९॥

अरुणि स्थापितं लिंगं तत्रैव कलशोद्भव ॥ तस्य लिंगस्य सेवातः सर्वामृद्धिमवाप्नुयात्॥१०॥

लिंगं वाजसनेयाख्यं तत्रास्त्यतिमनोहृरम् ॥ तस्य संदर्शनात्पुंसां वाजपेयफलं भवेत्॥११॥

कण्वेश्वरं शुभं लिंगं लिंगं कात्यायनेश्वरम् ॥ वामदेवेश्वरं लिंगमौतथ्येश्वरमेव च ॥ १२ ॥

हारीतेश्वरसंज्ञं च लिंगं वै गालवेश्वरम् ॥ कुंभेर्लिंगं महापुण्यं तथा वै कौसुमेश्वरम् ॥ १३ ॥

अग्निवर्णेश्वरं चैव नैध्रुवेश्वरमेव च ॥ वत्सेश्वरं महालिंगं पर्णादेश्वरमेव च ॥ १४ ॥

सक्तुप्रस्थेश्वरं लिंगं कणादेशं तथैव च ॥ अन्यत्तत्र महालिंगं मांडूकाय निरूपितम् ॥ १५ ॥

वाभ्रवेयेश्वरं लिंगं शिलावृत्तीश्वरं तथा ॥ च्यवनेश्वर लिंगं च शालंकायनकेश्वरम् ॥ १६ ॥

कलिंदमेश्वरं लिंगं लिंगमक्रोधनेश्वरम् ॥ लिंगं कपोतवृत्तीशं कंकेशं कुंतलेश्वरम ॥ १७ ॥

कंठेश्वरं कहोलेशं लिंगं तुंबुरुपूजितम् ॥ मतगेशं मरुत्तेशं मगधेयेश्वरं तथा ॥ १८ ॥

जातूकर्णेश्वरं लिंगं जंबूकेश्वरमेव च ॥ जारुधीशं जलेशं च जाल्मेशं जालकेश्वरम् ॥ १९ ॥

एवमादीनि लिंगानि अयुतार्धानि कुंभज ॥ स्मरणाद्दर्शनात्स्पर्शादर्चनान्नमनात्स्तुतेः ॥२०॥

न जातु जायते जंतोः कलुषस्य समुद्भवः ॥ एतेषां शुभलिंगानां ज्येष्ठस्थानेति पावने ॥ २१ ॥

वहीं पर उपजंघ स्थापित कर्मबन्धविमोचक एक लिङ्ग है। मनुष्य उनकी भक्तिपूर्वक सेवा करके छह मास में ही सिद्धिलाभ कर लेते हैं। वहां एक स्थान पर भारद्वाजेश्वर तथा माद्रीश्वर लिङ्ग हैं। सुकृतात्मा व्यक्ति अवश्य उनका दर्शन करें। हे कलसोद्धव अगस्त्य! वहीं आरुणि ऋषि स्थापित एक अन्य लिङ्ग भी है। उसकी सेवा से सर्वसम्पत्ति लाभ होता है। वहीं पर वाजसनेय नामक जो अन्य एक मनोहर लिङ्ग है, उसका दर्शन करने से मनुष्य अश्वमेध फललाभ करते हैं। वहीं पर शुभ कण्वेश्वर, कात्यायनेश्वर, वामदेवेश्वर, औतथ्येश्वर, हारीतेश्वर, गालवेश्वर, कुम्भेश्वर, कौसुमेश्वर, अग्निवर्णेश्वर, नैध्रुवेश्वर, वत्सेश्वर महालिङ्ग है। वहीं पर्णादेश्वर, शत्तुप्रस्थेश्वर, कणादेश्वर लिङ्ग है। कुछ आगे माण्डुकेश्वर, वाभ्रवेयेश्वर, शिलावृत्तीश्वर, च्यवनेश्वर, शालंङ्कायनेश्वर, कलिन्दमेश्वर, अक्रोधनेश्वर, कपोतवृत्तीश्वर, कंकेश्वर, कुन्तलेश्वर, कण्ठेश्वर, कहोलेश्वर जो तुम्बुरु पूजित लिङ्ग है, मतंगेश्वर, मरुत्तेश्वर, मागधेश्वर, जातुकर्णेश्वर, जम्बुकेश्वर, जारुधीशेश्वर, जलेश्वर, जाल्मेश्वर, जलाकेश्वर लिङ्ग स्थित हैं। ऐसे 5000 लिङ्ग वहां विराजमान हैं। पवित्र ज्येष्ठस्थान पर अवस्थित शुभप्रद इन लिङ्ग के स्मरण-दर्शन-स्पर्शन-मनन तथा स्तुति करने से जीवगण को कभी पापस्पर्श नहीं होगा।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६६

॥ स्कन्द उवाच ॥

ज्येष्ठेश्वरस्य परितो लिंगान्यन्यानि यानि तु ॥ तानि ते कथयिष्यामि शृणु वातापितापन ॥ १ ॥

ज्येष्ठेशाद्दक्षिणे भागे लिंगमप्सरसां शुभम् ॥ तत्रैवाप्सरसः कूपः सौभाग्योदकसंज्ञकः ॥ २ ॥

तत्कूपजलसुस्नातो विलोक्याप्सरसेश्वरम् ॥ न दौर्भाग्यमवाप्नोति नारी वा पुरुषोथवा ॥ ३ ॥

तत्रैव कुक्कुटेशाख्यं लिंगं वापीसमीपगम्॥ तस्य पूजनतः पुंसां कुटुंबं परिवर्धते ॥ ४ ॥

पितामहेश्वरं लिंगं ज्येष्ठवापीतटे शुभम् ॥ तत्र श्राद्धं नरः कृत्वा पितॄणां मुदमर्पयेत्॥ ५ ॥

पितामहेशान्नैर्ऋत्यां पूजनीयं प्रयत्नतः ॥ गदाधरेश्वरं लिंगं पितॄणां परितृप्तिदम् ॥ ६ ॥

दिशि पुण्यजनाख्यायां लिंगाज्ज्येष्ठेश्वरान्मुने॥ वासुकीश्वरसंज्ञं च लिंगमर्च्यं समंततः॥ ७ ॥

स्कन्ददेव कहते हैं- हे वातापि दैत्यनाशक अगस्त्य! ज्येष्ठेश्वर के चारों ओर जो सब अन्य लिङ्ग हैं, मैं उनका वर्णन करता हूं। आप श्रवण करिये। ज्येष्ठेश्वर के दक्षिण में अप्सराओं का एक शुभलिङ्ग अप्सरेश्वर है। यहां उनका सौभाग्योदक नामक एक कूप है। पुरुष अथवा नारी इस कूपजल से स्नान के पश्चात्‌ अप्सरेश्वर का दर्शन करें। इस दर्शनादि से मनुष्य कभी भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में नहीं पड़ता। यहीं वापी के समीप कुक्कुटेश्वर नामक एक अन्य लिङ्ग भी है। इनकी अर्चना करने से पूजक का कुटुम्ब बढ़ता है। ज्येष्ठवापी के तट पर पितामहेश्वर लिङ्ग है। जो मनुष्य यहां श्राद्ध करता है, उसके पितृगण इससे तृप्त हो जाते हैं। इन पितामहेश्वर के नैऋत्यकोण में पितरों को परम तृप्त करने वाला गदाधरेश्वर नामक लिङ्ग है। हे मुनिवर! ज्येष्ठेश्वर के नैऋत्यकोण में वासुकीश्वर नामक एक अन्य लिङ्ग है। अतिशय यत्नपूर्वक इनकी अर्चना करने से तथा वहां स्थित वासुकि कुण्ड पर स्नान-दानादि कृत्य सम्पन्न करने से वासुकीश्वर के प्रभाव से सर्पभय नहीं रह जाता।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६९

अद्यापि दृश्यते कैश्चित्पुण्यसंभारगौरवात् । श्रेष्ठं लिंगमिहायातं तीर्थात्कोटीश्वरादपि ॥ १६३ ॥

कोटिलिंगे क्षणे पुण्यं तल्लिंगस्य निरीक्षणात् । श्रेष्ठं ज्येष्ठेश्वरात्पश्चाच्छ्रेष्ठ सिद्धिप्रदायकम्॥ १६४ ॥


स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६३

॥ अगस्त्य उवाच ॥

दृष्ट्वा काशीं दृगानंदां तारकारे पुरारिणा ॥ किमकारि समाचक्ष्व प्राप्तां बहुमनोरथैः ॥ १ ॥

महर्षि अगस्त्य कहते हैं- हे तारकारि स्कन्द! जब नेत्रानन्दप्रदा काशी को त्रिपुरारि शंकर ने देखा, तब उन्होंने क्या किया? कृपया कहिये।

॥ स्कंद उवाच ॥

पतिव्रतापते ऽगस्त्य शृणु वक्ष्याम्यशेषतः ॥ मृगांकलक्ष्मणोत्कंठं काशी नेत्रातिथीकृता ॥ २ ॥

अथ सर्वज्ञनाथेन भक्तवत्सलचेतसा ॥ जैगीषव्यो मुनिश्रेष्ठो गुहां तस्थो निरीक्षितः ॥ ३ ॥

यमनेहसमारभ्य मदंराद्रिं विनिर्ययौ ॥ अद्रींद्र सुतया सार्धं रुद्रेणोक्षेंद्रगामिना ॥ ४ ॥

तं वासरं पुरस्कृत्य जग्राह नियमं दृढम् ॥ जैगीषव्यो महामेधाः कुंभयोने महाकृती ॥५॥

विषमेक्षण पादाब्जं समीक्षिष्ये यदा पुनः ॥ तदांबुविप्रुषमपि भक्षयिष्यामि चेत्यहो ॥६॥

कुतश्चिद्धारणायोगादथवा शंभ्वनुग्रहात ॥ अनश्नन्नपिबन्योगी जैगीषव्यः स्थितो मुने ॥ ७ ॥

तं शंभुरेव जानाति नान्यो जानाति कश्चन ॥ अतएव ततः प्राप्तः प्रथमं प्रमथाधिपः ॥ ८ ॥

ज्येष्ठशुक्लचतुर्दश्यां सोमवारानुराधयोः ॥ तत्पर्वणि महायात्रा कर्तव्या तत्र मानवैः ॥ ९ ॥

ज्येष्ठस्थानं ततः काश्यां तदाभूदपि पुण्यदम् ॥ तत्र लिंगं समभवत्स्वयं ज्येष्ठेश्वराभिधम् ॥ १० ॥

तल्लिंगदर्शनात्पुंसां पापं जन्मशतार्जितम् ॥ तमोर्कोदयमाप्येव तत्क्षणादेव नश्यति ॥११॥

ज्येष्ठवाप्यां नरः स्नात्वा तर्पयित्वा पितामहान् ॥ ज्येष्ठेश्वरं समालोक्य न भूयो जायते भुवि ॥ १२ ॥

स्कन्ददेव कहते हैं- हे पतिव्रता के पति अगस्त्य! भगवान्‌ सोमशेखर ने काशी को देखकर जिस-जिस कार्य का अनुष्ठान किया, उसे सुनिये। भक्ताधीन सर्वतत्वज्ञ भगवान्‌ शंकर ने काशी में आकर पहले गुहा स्थित महर्षि जैगीषव्य को देखा। जब पूर्वकाल में भगवान्‌ ने पार्वती के साथ वृषारूढ़ होकर काशी का त्याग करते मंदराचल गमन किया था, तब से ऋषिवर जैगीषव्य ने इस प्रकार के भीषण ब्रत का अवलम्बन किया था कि जब मैं पुनः शंकर के चरणकमल का दर्शन पा लूंगा, तभी जलविन्दु पान करूंगा। तभी से वे महर्षि उपवासी थे। ये योगीप्रवर किसी वचनातीत कारण से अथवा भगवान्‌ शंकर की कृपा से जलपान तथा भोजनरहित होकर भी इतने काल तक जीवित थे। इन ऋषिप्रवर के इस व्रताचरण की घटना का ज्ञान केवल देवदेव शंकर को ही था। अन्य कोई भी नहीं जानता था। वे इसी कारण सबसे पहले इनके ही पास आये। भगवान्‌ महेश्वर सोमवार को अनुराधा नक्षत्र युक्त ज्येष्ठमास की शुक्लाचतुर्दशी के दिन मुनिप्रवर जैगीषव्य की गुफा में आये थे। इसीलिये इसी दिन सभी लोगों को वहां जाना चाहिये। वाराणसी में उसी दिन से इस स्थान को सर्व स्थान की अपेक्षा ज्येष्ठ माना गया। तभी से वहां ज्येष्ठेश्वर नामक शिवलिंग स्वयं प्रकट है। जैसे दिवाकर के प्रकाश द्वारा समस्त अन्धकार विलीन हो जाता है, उसी प्रकार ज्येष्ठेश्वर नामक शिवलिंग का दर्शन करने मात्र से मनुष्यों का सौ जन्मों का कलुष दूरीभूत हो जाता है। जो मानव ज्येष्ठवापी में स्नान करके तथा पितरों का तर्पण करके उक्त शिवलिंग ज्येष्ठेश्वर का दर्शन लाभ करते हैं, उनको पुनः मातृगर्भ में प्रवेश नहीं करना पड़ता

आविरासीत्स्वयं तत्र ज्येष्ठेश्वर समीपतः ॥ सर्वसिद्धिप्रदा गौरी ज्येष्ठाश्रेष्ठा समंततः ॥ १३ ॥

ज्येष्ठे मासि सिताष्टम्यां तत्र कार्यो महोत्सवः ॥ रात्रौ जागरणं कार्यं सर्वसंपत्समृद्धये ॥ १४ ॥

ज्येष्ठां गौरीं नमस्कृत्य ज्येष्ठवापी परिप्लुता ॥ सौभाग्यभाजनं भूयाद्योषा सौभाग्यभागपि॥ १५ ॥

निवासं कृतवाञ्शंभुस्तस्मिन्स्थाने यतः स्वयम् ॥ निवासेश इति ख्यातं लिंगं तत्र परं ततः ॥ ॥ १६ ॥

निवासेश्वरलिंगस्य सेवनात्सर्वसंपदः ॥ निवसंति गृहे नित्यं नित्यं प्रतिपदं पुनः ॥ १७ ॥

इन ज्येष्ठेश्वर के समीप सर्वसिद्धिप्रदा ज्येष्ठा गौरी स्वयं प्रकाशित हो रही हैं। ज्येष्ठमासीय शुक्लाष्टमी के दिन उनके सत्निधान में महोत्सव तथा रात्रि जागरण करने वाला सर्वसम्पत्तिलाभ करता है। जो नारी अतिशय अभागी है, वह भी यदि (ज्येष्ठमासीय शुक्लाष्टमी के दिन) इस ज्येष्ठवापी में स्नान करके परम भक्ति के साथ ज्येष्ठागौरी को प्रणाम करती है, तब शीघ्र ही उसका सौभाग्योदय हो जाता है। वहां सबसे पहले महेश्वर ने कुछ काल पर्यंत निवास किया था। तभी से यहां पर निवासेश्वर नामक विशुद्ध शिवलिंग की प्रसिद्धि है। निवासेश्वर लिंग की सेवा से समस्त सम्पत्ति का लाभ होता है। निवासेश्वर की कृपा से उनके भक्तों के गृह में प्रतिदिन-प्रतिक्षण सर्वप्रकार की सम्पत्ति प्रकाशित होती रहती है।

कृत्वा श्राद्धं विधानेन ज्येष्ठस्थाने नरोत्तमः ॥ ज्येष्ठां तृप्तिं ददात्येव पितृभ्यो मधुसर्पिषा ॥ १८ ॥

ज्येष्ठतीर्थे नरः काश्यां दत्त्वा दानानि शक्तितः ॥ ज्येष्ठान्स्वर्गानवाप्नोति नरो मोक्षं च गच्छति ॥ १९ ॥

ज्येष्ठेश्वरो र्च्यः प्रथमं काश्यां श्रेयोर्थिभिर्नरैः ॥ ज्येष्ठागौरी ततोभ्यर्च्या सर्वज्येष्ठमभीप्सुभिः ॥ २० ॥

अथ नंदिनमाहूय धूर्जटिः स कृपानिधिः ॥ शृण्वतां सर्वदेवानामिदं वचनमब्रवीत् ॥ २१ ॥

जो व्यक्ति ज्येष्ठेश्वर के पास घृत- मधु आदि से यथाविधि श्राद्ध करता है, उसके पितरों को अतिशय सन्तुष्टि होती है। इस वाराणसी स्थित ज्येष्ठतीर्थ में सामर्थ्य के अनुरूप दान द्वारा मानव को उत्तम स्वर्गादि भोग करने के पश्चात्‌ उत्तम निर्वाणपद लाभ होता है। जो अपना मंगल चाहते हैं, वे काशीधाम में सबसे पहले ज्येष्ठेश्वरार्चन के उपरान्त ज्येष्ठागौरी की अर्चना करें, यही नियम है। तदनन्तर परम कृपालु भगवान्‌ धूर्जटि ने नन्‍दी को बुलाया तथा सभी देवगण के समक्ष उनसे कहा

॥ ईश्वर उवाच ॥

शैलादे प्रविशाशु त्वं गुहास्त्यत्र मनोहरा ॥ तदंतरेस्ति मे भक्तो जैगीषव्यस्तपोधनः ॥ २२ ॥

महानियमवान्नंदिस्त्वगस्थिस्नायु शेषितः ॥ तमिहानय मद्भक्तं मद्दर्शन दृढव्रतम् ॥ २३ ॥

यदाप्रभृत्यगां काश्या मंदरं सर्वसुंदरम् ॥ महानियमवानेष तदारभ्योज्झिताशनः ॥ २४ ॥

गृहाण लीलाकमलमिदं पीयूषपोषणम् ॥ अनेन तस्य गात्राणि स्पृश सद्यः सुबृंहिणा ॥ २५ ॥

ततो नंदी समादाय तल्लीलाकमलं विभोः ॥ प्रणम्य देवदेवेशमाविशद्गह्वरां गुहाम् ॥२६॥

नंदी दृष्ट्वाथ तं तत्र धारणादृढमानसम् ॥ तपोग्नि परिशुष्कांगं कमलेन समस्पृशत् ॥ २७ ॥

तपांते वृष्टिसंयोगाच्छालूर इव कोटरे ॥ उल्ललास स योगींद्रः स्पर्शमात्रात्तदब्जजात् ॥ २८ ॥

अथ नंदी समादाय सत्वरं मुनिपुंगवम् ॥ देवदेवस्य पादाग्रे नमस्कृत्य न्यपातयत् ॥ २९ ॥

जैगीषव्योथ संभ्रांतः पुरतो वीक्ष्य शंकरम् ॥ वामांगसन्निविष्टाद्रितनयं प्रणनाम ह ॥ ३० ॥

प्रणम्य दंडवद्भूमौ परिलुठ्य समंततः ॥ तुष्टाव परया भक्त्या स मुनिश्चंद्रशेखरम् ॥३१॥

ईश्वर कहते हैं--“हे नंदी। इस स्थान में एक मनोहर गुहा है। तुम शीघ्र उसमें प्रवेश करो। देखना कि उसमें गैगीषव्य नामक महानियमपालक मेरे भक्त एक तपस्वी स्थित हैं। मेरी दर्शनाभिलाषा के कारण वे कठोर व्रत का पालन करते हुए, त्वक्‌ तथा अस्थिमात्र रह गये हैं। उन मुनिप्रवर को यहां ले आओ। जब मैं काशी से मंदराचल चला गया था, तब से ही जैगीषव्य ने जल पीना तथा भोजन करना छोड़कर महानियम धारण किया है। अब इस अमृतोपन लीलाकमल को लेकर उनके सर्वांग में इसका स्पर्श करा देना। नंदी  ने भगवान्‌ शंकर से उस लीलाकमल को ग्रहण किया और देवदेवेशशिव को प्रणाम उपरांत उस विशुद्ध गहृरयुक्त गुहा में प्रवेश कर गये। तदनन्तर नन्दीश्वर ने तपस्यारूपी अग्नि के समान, अत्यन्त सूखे शरीरवाले, बाह्मज्ञानशून्य उन योगीप्रवर को देखकर उनके अंगों से उस लीलाकमल का स्पर्श कराया। जिस प्रकार ग्रीष्मऋतु के अनन्तर वृष्टिजल का स्पर्श होते ही मेढक उल्लसित हो जाता है, उसी प्रकार उस कमल के स्पर्श मात्र से ऋषि जैगीषव्य उल्लसित हो उठे। इसके पश्चात्‌ नन्‍दी ने उनको साथ लिया और शीघ्रता से देवाधिदेव शंकर के चरणों में प्रणामोपरान्त वहीं ऋषि को रखा। मुनिप्रवर जैगीषव्य ने अपने सामने भगवान शिव का दर्शन पाकर ससम्भ्रम उनको प्रणाम किया तथा उनके चरणों पर अपना मस्तक रखकर परममक्ति के साथ उन ईश्वर विश्वेश्वर का स्तव करने लगे।

॥ जैगीषव्य उवाच ॥

 महर्षि जैगीषव्य द्वारा शिव स्तुति 

नमः शिवाय शांताय सर्वज्ञाय शुभात्मने॥ जगदानंदकंदाय परमानंदहेतवे ॥ ३२ ॥

अरूपाय सरूपाय नानारूपधराय च ॥ विरूपाक्षाय विधये विधिविष्णुस्तुताय च ॥३३॥

स्थावराय नमस्तुभ्यं जंगमाय नमोस्तुते ॥ सर्वात्मने नमस्तुभ्यं नमस्ते परमात्मने ॥ ३४॥

नमस्त्रैलोक्यकाम्याय कामांगदहनाय च ॥ नमो शेषविशेषाय नमः शेषांगदाय ते ॥३५॥

श्रीकंठाय नमस्तुभ्यं विषकंठाय ते नमः ॥ वैकुंठवंद्यपादाय नमोऽकुंठितशक्तये ॥३६॥

नमः शक्त्यर्धदेहाय विदेहाय सुदेहिने ॥ सकृत्प्रणाममात्रेण देहिदेहनिवारिणे॥ ३७ ॥

कालाय कालकालाय कालकूट विषादिने ॥ व्यालयज्ञोपवीताय व्यालभूषणधारिणे ॥ ३८ ॥

नमस्ते खंडपरशो नमः खंडें दुधारिणे ॥ खंडिताशेष दुःखाय खड्गखेटकधारिणे ॥ ३९ ॥

गीर्वाणगीतनाथाय गंगाकल्लोलमालिने ॥ गौरीशाय गिरीशाय गिरिशाय गुहारणे ॥४०॥

चंद्रार्धशुद्धभूषाय चंद्रसूर्याग्निचक्षुषे ॥ नमस्ते चर्मवसन नमो दिग्वसनायते ॥ ४१ ॥

जगदीशाय जीर्णाय जराजन्महराय ते ॥ जीवायते नमस्तुभ्यं जंजपूकादिहारिणे ॥ ४२ ॥

नमो डमरुहस्ताय धनुर्हस्ताय ते नमः ॥ त्रिनेत्राय नमस्तुभ्यं जगन्नेत्राय ते नमः ॥ ४३ ॥

त्रिशूलव्यग्रहस्ताय नमस्त्रिपथगाधर ॥ त्रिविष्टपाधिनाथाय त्रिवेदीपठिताय च ॥ ४४ ॥

त्रयीमयाय तुष्टाय भक्ततुष्टिप्रदाय च ॥ दीक्षिताय नमस्तुभ्यं देवदेवाय ते नमः ॥ ४५ ॥

दारिताशेषपापाय नमस्ते दीर्घदर्शिने ॥ दूराय दुरवाप्याय दोषनिर्दलनाय च ॥ ४६ ॥

दोषाकर कलाधार त्यक्तदोषागमाय च ॥ नमो धूर्जटये तुभ्यं धत्तूरकुसुमप्रिय ॥४७॥

नमो धीराय धर्माय धर्मपालाय ते नमः ॥ नीलग्रीव नमस्तुभ्यं नमस्ते नीललोहित ॥ ४८ ॥

नाममात्रस्मृतिकृतां त्रैलोक्यैश्वर्यपूरक ॥ नमः प्रमथनाथाय पिनाकोद्यतपाणये ॥ ॥ ४९ ॥

पशुपाशविमोक्षाय पशूनां पतये नमः ॥ नामोच्चारणमात्रेण महापातकहारिणे ॥ ५० ॥

परात्पराय पाराय परापरपराय च ॥ नमोऽपारचरित्राय सुपवित्रकथाय च ॥ ५१ ॥

वामदेवाय वामार्धधारिणे वृषगामिने ॥ नमो भर्गाय भीमाय नतभीतिहराय च ॥ ५२ ॥

भवाय भवनाशाय भूतानांपतये नमः ॥ महादेव नमस्तुभ्यं महेश महसांपते ॥ ५३ ॥

नमो मृडानीपतये नमो मृत्युंजयाय ते ॥ यज्ञारये नमस्तुभ्यं यक्षराजप्रियाय च ॥ ५४॥

यायजूकाय यज्ञाय यज्ञानां फलदायिने ॥ रुद्राय रुद्रपतये कद्रुद्राय रमाय च ॥ ५५ ॥

शूलिने शाश्वतेशाय श्मशानावनिचारिणे ॥ शिवाप्रियाय शर्वाय सर्वज्ञाय नमोस्तु ते ॥ ५६ ॥

हराय क्षांतिरूपाय क्षेत्रज्ञाय क्षमाकर ॥ क्षमाय क्षितिहर्त्रे च क्षीरगौराय ते नमः ॥ ५७ ॥

अंधकारे नमस्तुभ्यमाद्यंतरहिताय च ॥ इडाधाराय ईशाय उपेद्रेंद्रस्तुताय च ॥ ५८ ॥

उमाकांताय उग्राय नमस्ते ऊर्ध्वरेतसे ॥ एकरूपाय चैकाय महदैश्वर्यरूपिणे ॥ ५९ ॥

अनंतकारिणे तुभ्यमंबिकापतये नमः ॥ त्वमोंकारो वषट्कारो भूर्भुवःस्वस्त्वमेव हि ॥६०॥

दृश्यादृश्य यदत्रास्ति तत्सर्वं त्वमु माधव ॥ स्तुतिं कर्तुं न जानामि स्तुतिकर्ता त्वमेव हि ॥ ॥ ६१ ॥

वाच्यस्त्वं वाचकस्त्वं हि वाक्च त्वं प्रणतोस्मि ते ॥ नान्यं वेद्मि महादेव नान्यं स्तौमि महेश्वर ॥ ६२ ॥

नान्यं नमामि गौरीश नान्याख्यामाददे शिव ॥ मूकोन्यनामग्रहणे बधिरोन्यकथाश्रुतौ ॥६३॥

पंगुरन्याभिगमनेऽस्म्यंधोऽन्यपरिवीक्षणे॥ एक एव भवानीश एककर्ता त्वमेव हि॥ ६४ ॥

पाता हर्ता त्वमेवैको नानात्वं मूढकल्पना ॥ अतस्त्वमेव शरणं भूयोभूयः पुनःपुनः ॥६५॥

संसारसागरे मग्नं मामुद्धर महेश्वर ॥ इति स्तुत्वा महेशानं जैगीषव्यो महामुनिः ॥ ६६ ॥

वाचंयमो भवत्स्थाणोः पुरतः स्थाणुसन्निभः ॥ इति स्तुतिं समाकर्ण्य मुनेश्चंद्रविभूषणः ॥

उवाच च प्रसन्नात्मा वरं ब्रूहीति तं मुनिम् ॥ ६७ ॥


॥ जैगीषव्य उवाच ॥

यदि प्रसन्नो देवेश ततस्तव पदांबुजात् ॥ मा भवानि भवानीश दूरं दूरपदप्रद ॥६८॥

अपरश्च वरो नाथ देयोयमविचारतः ॥ यन्मया स्थापितं लिंगं तत्र सान्निध्यमस्तु ते ॥६९॥

ऋषि जैगीषव्य कहते है - परमपदप्रदाता, देवेश! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तब मुझे यह वर दीजिये जिससे आपके चरणकमलों से कभी मेरा मन अलग न हो। हे नाथ! कृपया एक वर और दीजिये कि मैंने जो आपका लिंग स्थापित किया है, वहां आपका सदा अधिष्ठान हो।

॥ ईश्वर उवाच ॥

जैगीषव्य महाभाग यदुक्तं भवतानघ ॥ तदस्तु सर्वं तेभीष्टं वरमन्यं ददामि च ॥ ७० ॥

योगशास्त्रं मया दत्तं तव निर्वाणसाधकम् ॥ सर्वेषां योगिनां मध्ये योगाचार्योऽस्तु वै भवान् ॥ ७१ ॥

रहस्यं योगविद्याया यथावत्त्वं तपोधन ॥ संवेत्स्यसे प्रसादान्मे येन निर्वाणमाप्स्यसि ॥ ७२ ॥

यथा नदी यथा भृंगी सोमनंदी यथा तथा ॥ त्वं भविष्यसि भक्तो मे जरामरणवर्जितः ॥ ७३ ॥

संति व्रतानि भूयांसि नियमाः संत्यनेकधा ॥ तपांसि नाना संत्यत्र संति दानान्यनेकशः ॥ ७४ ॥

श्रेयसां साधनान्यत्र पापघ्नान्यपि सर्वथा ॥ परं हि परमश्चैष नियमो यस्त्वया कृतः ॥ ७५॥

परो हि नियमश्चैष मां विलोक्य यदश्यते ॥ मामनालोक्य यद्भुक्तं तद्भुक्तं केवलत्वघम् ॥ ७६ ॥

असमर्च्य च यो भुङ्क्ते पत्रपुष्पफलैरपि ॥ रेतोभक्षी भवेन्मूढः स जन्मान्येकविंशतिम् ॥ ७७ ॥

महतो नियमस्यास्य भवतानुष्ठितस्य वै ॥ नार्हंति षोडशी मात्रामप्यन्ये नियमा यमाः ॥ ७८ ॥

अतो मच्चरणाभ्याशे त्वं निवत्स्यसि सर्वथा ॥ अतो नैःश्रेयसीं लक्ष्मीं तत्रैव प्राप्स्यसि ध्रुवम् ॥ ७९ ॥

जैगीषव्येश्वरं नाम लिंगं काश्यां सुदुर्लभम् ॥ त्रीणि वर्षाणि संसेव्य लभेद्योगं न संशयः ॥ ८० ॥

जैगीषव्यगुहां प्राप्य योगाभ्यसनतत्परः ॥ षण्मासेन लभेत्सिद्धिं वाञ्छितां मदनुग्रहात् ॥ ८१ ॥

तव लिंगमिदं भक्तैः पूजनीयं प्रयत्नतः ॥ विलोक्या च गुहा रम्या परासिद्धिमभीप्सुभिः ॥ ८२ ॥

अत्र ज्येष्ठेश्वरक्षेत्रे त्वल्लिंगं सर्वसिद्धिदम् ॥ नाशयेदघसंघानि दृष्टं स्पृष्टं समर्चितम् ॥ ८३ ॥

अस्मिञ्ज्येष्ठेश्वरक्षेत्रे संभोज्य शिवयोगिनः ॥ कोटिभोज्यफलं सम्यगेकैकपरिसंख्यया॥८४ ॥

जैगीषव्येश्वरं लिंगं गोपनीयं प्रयत्नतः ॥ कलौ कलुषबुद्धीनां पुरतश्च विशेषतः ॥ ८५ ॥

ईश्वर कहते हैं--हे निष्पाप! महाभाग जैगीषव्य! तुमने जो प्रार्थना किया है, वह सब तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध हो जाये। मैं इनके अतिरिक्त एक अन्य वर भी देता हूं। में तुमको निर्वाणसाधक योगशास्त्र प्रदान करता हूं तुम समस्त समस्त योगियों की योगशिक्षा के आचार्य रहोगे। हे तपोधन! तुम मेरी कृपा से योगविद्या सम्बन्धित समस्त गूढ़तत्व के ज्ञाता हो जाओगे। फलस्वरूप तुमको निर्वाणपद की प्राप्ति होगी। नंदी, भृंगी तथा सोमनन्दी की तरह तुम भी जरामरण रहित तथा परमभक्तरूप से गण्य हो जाओगे। इस जगत में अनेक परममंगलग्रद तथा पापहारी व्रत, अनेक नियम, अनेक तप तथा अनेक दान हैं, लेकिन तुमने बिना मेरा दर्शन प्राप्त किये जलपान तथा भोजन का त्याग का नियम ग्रहण किया था, यह उन सबकी अपेक्षा श्रेष्ठतम है। मेरा दर्शन किये बिना जो भोजन करता है वह तो केवल पापों का भोजन करता है। जो मूढ़ पत्र-पुष्प-फल से मेरी अर्चना के बिना भोजन करता है, वह इक्कीस जन्म पर्यन्त वीर्यभोजी होता है। तुमने जिस नियम का पालन किया था, अन्य कोई यम-नियम उसके १/१६ भाग के बराबर भी नहीं है। अतएव तुम सततू मेरे चरणों में स्थिति प्राप्त करोगे। इसके फलस्वरूप तुमको निर्वाणपद का लाभ होगा। जो व्यक्ति काशीधाम में तीन वर्ष तुम्हारे द्वारा प्रतिष्ठित जैगीषव्येश्वर लिंग की अर्चना करेगा, उसे सभी योग की प्राप्ति होगी। इसमें विन्दुमात्र सन्देह नहीं है। जो व्यक्ति जैगीषव्य गुहा में योगाभ्यास करेगा, मेरी कृपा से छः मास में सभी वांछित सिद्धि उसे प्राप्त होगी। जो व्यक्ति सिद्धि चाहते हैं, वे सभी मेरे भक्त तुम्हारे द्वारा प्रतिष्ठित जैगीषव्येश्वर लिंग की पूजा तथा इस रमणीय जैगीषव्य गुफा का दर्शन करे। ज्येष्ठेश्वर क्षेत्रस्थ इन शिवलिंग का दर्शन, स्पर्शन, पूजन के से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस ज्येष्ठेश्वर क्षेत्र में जो व्यक्ति कतिपय शिवभक्तगण को भोजन करायेगा, उसे कोटि शिवभक्तों को भोजन कराने का फललाभ होगा। जैगीषव्येश्वर नामक यह लिंग सभी यत्नतः गोपित रखें। विशेषतः इसे कलि कलुषबुद्धि वालों से तो विशेषतः गुप्त रखना चाहिये।

करिष्याम्यत्र सांनिध्यमस्मिँल्लिंगे तपोधन॥ योगसिद्धिप्रदानाय साधकेभ्यः सदैव हि ॥८६॥

ददे शृणु महाभाग जैगीषव्यापरं वरम् ॥ त्वयेदं यत्कृतं स्तोत्रं योगसिद्धिकरं परम् ॥ ८७ ॥

महापापौघशमनं महापुण्यप्रवर्धनम् ॥ महाभीतिप्रशमनं महाभक्तिविवर्धनम् ॥ ८८ ॥

एतत्स्तोत्रजपात्पुंसामसाध्यं नैव किंचन ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन जपनीयं सुसाधकैः  ॥ ८९ ॥

इति दत्त्वा वरं तस्मै स्मरारिः स्मेरलोचनः ॥ ददर्श ब्राह्मणां स्तत्र समेतान्क्षेत्रवासिनः ॥ ९० ॥

हे तपोधन! मैं साधकों को योगसिद्धि प्रदानार्थ सर्वदा इस लिंग में अधिष्ठित रहूंगा। हे महाभाग! जैगीषव्य! अब अन्य एक वर देता हूं। सुनो। जो व्यक्ति तुम्हारे द्वारा कृत इस स्तोत्र का जप करेंगे उनके लिये कुछ भी असाध्य नहीं रहेगा। इससे योगसिद्धि, महान्‌ दोष शान्ति, महाभक्तिवर्द्धन, महापुण्य संचय तथा महापापों का निवारण होगा। इसलिये साधकगण सर्वप्रयत्न द्वारा इसका जप करें। कन्दर्पदर्पदहरता (कंदर्प= कामदेव, दर्प दबन (दमन)= कामदेव के बड़े भारी अभिमान को नाश करनेवाले) शंकर ने प्रीति से विस्फारिक नेत्रों वाले ऋषि जैगीषव्य को यह वर देकर वहां समागत क्षेत्रवासी ब्राह्मणों को देखा। 

॥ स्कंद उवाच ॥

निशम्याख्यानमतुलमेतत्प्राज्ञः प्रयत्नतः ॥ निष्पापो जायते मर्त्यो नोपसर्गैः प्रबाध्यते ॥९१ ॥

स्कन्ददेव कहते हैं-परमप्राज्ञ जो मानव यत्नपूर्वक इस आख्यान का श्रवण करेगा, वह पापशून्य हेगा। किसी प्रकार के उपद्रवों का उस पर आक्रमण नहीं होगा

इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंड उत्तरार्धे ज्येष्ठेशाख्यानं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥

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ज्येष्ठेश्वर लिंग K-62/144, भूत भैरव मोहल्ले में स्थित हैं।
Jyestheshwar Ling is located at K-62/144, Bhoot Bhairav Mohalla.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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