Sahastraksheswar (काशी का सुवर्णतीर्थ एवं अधिष्ठाता ६८ आयतन देवता सहस्राक्षेश्वर तत्पश्चात बोलचाल की भाषा में काशीस्थ सुवर्णतीर्थ को धनेसरा तीर्थ बोला जाना)

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Sahastraksheswar
सहस्राक्षेश्वर
काशीस्थ सुवर्णतीर्थ को धनेसरा तीर्थ बोला जाना : जिस प्रकार कुतर्कों द्वारा धनतेरस को धन से जोड़ दिया गया उसी प्रकार काशी के धनेसरा (सुवर्ण) तीर्थ को धनतेरस और भगवान धन्वन्तरि से जोड़ दिया गया। स्कंदपुराण काशीखंड या अन्य पुराणों में काशी स्थित तीर्थों को संकेत करता हुआ धनेसरा नाम से कोई तीर्थ ही नहीं है। तो यह नामकरण हुआ कैसे? सबसे पहले यह स्पष्ट कर दें कि धनेसरा नाम भी गलत नहीं है, एवं धनद (कुबेर) नाम का पौराणिक तीर्थ काशी में अन्नपूर्णा मंदिर में स्थित है। जिस प्रकार काशी की स्त्रियों द्वारा १६ दिवसीय महालक्ष्मी व्रतानुष्ठान लक्ष्मीकुंड पर होता है, और महालक्ष्मीश्वर महादेव को स्त्रियों ने सोरहिया महादेव कहना शुरू कर दिया अतः महालक्ष्मीश्वर एवं सोरहिया महादेव नाम भी एक ही देवता का है। इसी प्रकार काशी स्थित सुवर्ण तीर्थ को बोलचाल की भाषा में धनेसरा तीर्थ कहा जाने लगा। पौराणिक नाम अज्ञात होने के कारण शैलेश्वर के दक्षिण में स्थित सहस्राक्षेश्वर (धनेसर) महादेव कहे जाने लगे।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६९

॥ स्कंद उवाच ॥
शृण्वगस्त्य तपोराशे काश्यां लिंगानि यानि वै ॥ सेवितानि नृणां मुक्त्यै भवेयुर्भावितात्मनाम् ॥१॥
कृत्तिप्रावरणं यत्र कृतं देवेन लीलया ॥ रुद्रावास इति ख्यातं तत्स्थानं सर्वसिद्धिदम् ॥२॥
स्थिते तत्रोमया सार्धं स्वेच्छया कृत्तिवाससि ॥ आगत्य नंदी विज्ञप्तिं चक्रे प्रणतिपूर्वकम् ॥३॥
देवदेवेश विश्वेश प्रासादाः सुमनोहराः ॥ सर्वरत्नमया रम्याः साष्टाषष्टिरभूदिह ॥४॥
भूर्भुवःस्वस्तले यानि शुभान्यायतनानि हि ॥ मुक्तिदान्यपि तानीह मयानीतानि सर्वतः ॥५॥
यतो यच्च समानीतं यत्र यच्च कृतास्पदम् ॥ कथयिष्याम्यहं नाथ क्षणं तदवधार्यताम् ॥६॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे अगस्त्य! तपोराशि! काशी में जो लिङ्ग सेवा किये जाने पर पवित्रात्मा मनुष्यों के लिये मुक्तिप्रद होते हैं, मैं उनका वर्णन करता हूं। सुनिये! पूर्व में महेश्वर ने जहां पर गजासुर का चर्म पहना था, वह सर्वसिद्धिप्रद स्थान रुद्रावास कहलाता है। यहां रुद्रावास में भगवान्‌ कृत्तिवास स्वेच्छा से उमा के साथ रने लगे। तभी किसी समय नंदी ने आकर प्रणाम करके उनसे कहा- हे देवेश! हे विश्वेश। यहां इस समय सर्वरत्नमय सुरम्य, सुमहान्‌ ६८ प्रासाद विराजित हैं तथा भूलोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोकस्थ मुक्तिदायक शुभ शिवलिङ्गों को मैं यहां लाया हूं। हे नाथ! मैं जिस स्थान से जिस लिङ्ग को लाया हूं, उसे एकाग्रता पूर्वक सुनिये -

इह लिंगं सहस्राक्षं सुवर्णाख्यात्समागतम् ॥ यस्य संदर्शनात्पुंसां ज्ञानचक्षुः प्रजायते ॥८५॥
शैलेश्वरादवाच्यां तु सहस्राक्षेश्वरं विभुम् ॥ दृष्ट्वा जन्मसहस्राणां शतानां पातकं त्यजेत् ॥८६॥
सुवर्णतीर्थ से सहस्त्राक्ष लिङ्ग का आगमन काशी में हुआ है। इनके दर्शन द्वारा मनुष्य में ज्ञानचक्षु का उदय होता है। शैलेश्वर के दक्षिण में स्थित सहस्राक्षेश्वर का दर्शन करने से शत-सहस्त्र (१ लाख) जन्मार्जित पापराशि विलीन हो जाती है।


सुवर्णतीर्थ
पद्मपुराणम्/खण्डः_३_(स्वर्गखण्डः)/अध्यायः_२८
॥ नारद उवाच ॥
ततो गच्छेत्सुवर्णाख्यं त्रिषुलोकेषु विश्रुतम् ॥ यत्र कृष्णः प्रसादार्थं रुद्रमाराधयत्पुरा ॥१९॥
वरांश्च सुबहूँल्लेभे देवैरपि स दुर्ल्लभान् ॥ उक्तश्च त्रिपुरघ्नेन परितुष्टेन भारत ॥२०॥
अपि चात्माप्रियतरो लोके कृष्ण भविष्यसि ॥ त्वन्मुखं च जगत्कृत्स्नं भविष्यति न संशयः ॥२१॥
तत्राभिगम्य राजेंद्र पूजयित्वा वृषध्वजम् ॥ अश्वमेधमवाप्नोति गाणपत्यं च विंदति ॥२२॥
नारद जी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात सुवर्णतीर्थ की यात्रा करे। वहाँ पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने रुद्रदेव की प्रसन्नता के लिये उनकी अराधना की और उनसे अनेक देवदुर्लभ उत्तम वर प्राप्त किये। भारत! उस समय संतुष्टचित्त त्रिपुरारि शिव ने श्रीविष्णु से कहा- श्रीकृष्ण! तुम मुझे लोक में अत्यन्त प्रिय होओगे। संसार में सर्वत्र तुम्हारी ही प्रधानता होगी, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! उस तीर्थ मे जाकर भगवान् शंकर की पूजा करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और गणपति पद प्राप्त कर लेता है।
महाभारतम्-आरण्यकपर्व-८२
॥ पुलस्त्येन भीष्मंप्रति नानातीर्थमाहात्म्यकथनम् ॥
॥ पुलस्त्य उवाच॥
ततो गच्छेत्सुवर्णाख्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। तत्र विष्णुः प्रसादार्थं रुद्रकमाराधयत्पुरा ॥१७॥      
वरांश्च सुबर्हूल्लेभे दैवतेषु सुदुर्लभान्। उक्तश्च त्रिपुरघ्नेन परितुष्टेन भारत ॥१८॥
अपिच त्वं प्रियतरो लोके कृष्ण भविष्यसि। त्वन्मुखं च जगत्सर्वं भविष्ति न संशयः ॥१९॥
तत्राभिगम्य राजेन्द्र पूजयित्वा वृषध्वजम्। अश्वमेधमवाप्नोति गाणपत्यं च विन्दति ॥२०॥
पुलस्त्य जी कहते हैं- तदनन्तर त्रिभुवनविख्यात सुवर्णतीर्थ की यात्रा करे। वहाँ पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने रुद्रदेव की प्रसन्नता के लिये उनकी अराधना की और उनसे अनेक देवदुर्लभ उत्तम वर प्राप्त किये। भारत! उस समय संतुष्टचित्त त्रिपुरारि शिव ने श्रीविष्णु से कहा- श्रीकृष्ण! तुम मुझे लोक में अत्यन्त प्रिय होओगे। संसार में सर्वत्र तुम्हारी ही प्रधानता होगी, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! उस तीर्थ मे जाकर भगवान् शंकर की पूजा करने से मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और गणपति पद प्राप्त कर लेता है।


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EXACT GPS LOCATION : 25.326696978635038, 83.01809261418653

सहस्त्राक्षेश्वर लिङ्ग सुवर्णतीर्थ सहित पीलीकोठी, धनेसरा मठ, जे.४/९१ वाराणसी में स्थित है।
Sahasrakshesvara Linga along with Suvarnatirtha is located at Peeli Kothi, Dhanesara Math, J.4/91 Varanasi.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


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