Vyas (South) Kashi Of Varanasi

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 Vyas (Dakshin) Kashi

व्यास (दक्षिण) काशी

अहोरात्रं सपश्यन्वैक्षेत्रं दृष्टेरदूरगम् । प्राप्याष्टमीञ्च भूताञ्च मध्ये क्षेत्रं सदाविशेत्‌॥ 
लोलार्कादग्निदिग्भागे स्वर्धुनींपूर्वरोधसि । स्थितो ह्यद्यापि पश्येत्स काशीप्रासादराजिकाम्
वेदव्यास रात-दिन दूर से (काशी) क्षेत्र को देखते रहते थे तथा इस प्रकार प्रतीक्षा के पश्चात्‌ जब अष्टमी तथा चतुर्दशी तिथि आती तब काशी में प्रवेश करते। भागीरथी के पूर्व के उस पार लोलार्क से अग्निकोण मे रहकर वेदव्यास आज भी शेष तिथियों पर काशी की शोभा का अवलोकन वहीं से करते रहते है। (KKH-96)
Ved Vyas used to watch the Kashi region from afar day and night and thus after waiting, when Ashtami and Chaturdashi dates came, he would enter Kashi. Staying in the angle of fire from Lolark on the other side of Bhagirathi's east, Ved Vyas still observes the beauty of Kashi on the remaining dates from there. (KKH-96)

PIC 1 : Connecting Lolark With Vyaseshwar Mahadev (Vyas Kashi)
PIC 2 : Lolark Point Of View (Following Yellow Line)

Temple View (Below GPS)
PIC 3: Vyas Point Of View (Following Yellow Line)

वेदव्यास

यमुना के किसी द्वीप में वेदव्यास का जन्म हुआ था। व्यासजी कृष्ण द्वैपायन कहलाये क्योंकि उनका रंग श्याम था। वे पैदा होते ही माँ की आज्ञा से तपस्या करने चले गये थे और कह गये थे कि जब भी तुम स्मरण करोगी, मैं आ जाऊंगा। वे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता ही नहीं, अपितु विपत्ति के समय वे छाया की तरह पाण्डवों का साथ भी देते थे। उन्होंने तीन वर्षों के अथक परिश्रम से महाभारत ग्रंथ की रचना की थी-
जब इन्होंने धर्म का ह्रास होते देखा तो इन्होंने वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया और वेदव्यास कहलाये। वेदों का विभाग कर उन्होंने अपने शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल और वैशम्पायन तथा पुत्र शुकदेव को उनका अध्ययन कराया तथा महाभारत का उपदेश दिया। आपकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण आपको भगवान् का अवतार माना जाता है।
Vedvyas was born in an island of Yamuna. Vyasji was called Krishna Dwaipayan because his complexion was dark. As soon as he was born, he went to do penance by the order of his mother and said that whenever you remember, I will come. He was not only the creator of Dhritarashtra, Pandu and Vidura, but also used to accompany the Pandavas like a shadow in times of calamity. He had composed the Mahabharata Granth with tireless labor of three years-
When he saw the decline of religion, he divided the Vedas into Vyas and was called Vedvyas. By dividing the Vedas, he made his disciples Sumantu, Jaimini, Pail and Vaishampayan and son Shukdev study them and preached the Mahabharata. Because of this supernatural talent of yours, you are considered an incarnation of God.
प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए।
In every Dwapar Yuga, Vishnu incarnates as Vyasa and presents the divisions of the Vedas. Thus the Vedas were divided twenty-eight times. Brahma himself became Vedvyas in the first Dwapar, Prajapati in the second, Shukracharya in the third, and Brihaspati Vedvyas in the fourth. Similarly Surya, Mrityu, Indra, Dhananjay, Krishna Dwaipayan Ashwatthama etc. became twenty eight Vedvyas.

शुकदेव


आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः॥
(श्रीमद्भा० १।७। १०)
‘जो आत्माराम, आप्तकाम, मायाके समस्त बन्धनोंसे मुक्त मुनिगण हैं, वे भी भगवान में निष्काम भक्ति रखते हैं, वे भी बिना किसी कारणके ही भगवान से प्रेम करते हैं; क्योंकि भगवान के मङ्गलमय दिव्य गुण ही ऐसे हैं।’

शुकदेव जी भगवान् वेदव्यास के पुत्र थे। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलती हैं। कहीं इन्हें व्यास की पत्नी वटिका के तप का परिणाम और कहीं व्यास जी की तपस्या के परिणाम स्वरूप भगवान शंकर का अद्भुत वरदान बताया गया है।
श्री शुकदेवजी की जन्मसम्बन्धी विविध कथाएँ विभिन्नविभिन्न पुराणों एवं इतिहास-ग्रन्थोंमें मिलती हैं। कल्पभेदसे वे सभी सत्य हैं। एक जगह आया है-इनकी माता वटिका एवं पिता बादरायण श्रीव्यासजीने पृथ्वी, जल, आकाश और वायुके समान धैर्यशील एवं तेजस्वी पुत्र प्राप्त करनेके लिये भगवान् गौरीशङ्करकी विहारस्थली सुमेरुशृङ्गपर अत्यन्त घोर तपस्या की। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन की इच्छा और दृष्टिमात्रसे कई महापुरुषोंका जन्म हो सकता था और हुआ है, तथापि अपने ज्ञान तथा सदाचारके धारण करने योग्य पुत्रकी प्राप्तिके लिये एवं संसारमें किस प्रकारके पुत्रकी सृष्टि करनी चाहिये-यह बात बतानेके लिये ही उन्होंने तपस्या की। इनकी तपस्यासे प्रसन्न हो भगवान् शङ्करजीने तेजस्वी पुत्रकी प्राप्तिका वरदान दे इन्हें कृतकृत्य किया। 
भगवान शिव, पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी को कथा सुनते-सुनते नींद आ गयी और उनकी जगह पर वहां बैठे एक शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये दौड़े और उसके पीछे अपना त्रिशूल छोड़ा। शुक जान बचाने के लिए तीनों लोकों में भागता रहा, भागते-भागते वह व्यास जी के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। वह उनके गर्भ में रह गया। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले और व्यासजी के पुत्र कहलाये। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था।

जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इनके पीछे-पीछे “हा पुत्र! हा पुत्र!” पुकारते रहे, किन्तु इन्होंने उसपर कोई ध्यान न दिया। व्यास शुकदेवजी को पुकारते हुए उनके पीछे विह्वल हुए चले जा रहे थे। एक स्थानपर उन्होंने देखा कि वनके एकान्त सरोवरमें कुछ देवाङ्गनाएँ स्नान कर रही थीं। वे व्यासजीको आते देख लज्जावश बड़ी शीघ्रतासे जलसे निकलकर अपने वस्त्र पहनने लगीं। आश्चर्यमें पड़कर व्यासजीने पूछा-‘देवियो! मेरा पुत्र युवक है, दिगम्बर है, इधरसे अभी गया है। आप सब उसे देखकर तो जलक्रीड़ा करती रहीं, उसे देखकर आपने लज्जाका भाव नहीं प्रकट किया; फिर मुझ वृद्धको देखकर आपने लज्जाका भाव क्यों प्रकट किया?

बड़ी नम्रतासे देवियोंने कहा-‘महर्षे! आप हमें क्षमा करें। आप यह पहचानते हैं कि यह पुरुष है और यह स्त्री है; अतः आपको देखकर हमें लज्जा करनी ही चाहिये। किंतु आपके पुत्रमें तो स्त्री-पुरुषका भाव ही नहीं है। वे तो सबको एक ही देखते हैं। उनके सम्मुख वस्त्र पहने रहना या न पहने रहना एक-सा ही है।

देवियोंकी बात सुनकर भगवान् व्यास लौट आये। उन्होंने समझ लिया कि ऐसे समदर्शीके लिये पितापुत्रका सम्बन्ध कोई अर्थ नहीं रखता। वह बुलानेसे नहीं लौटेगा। परंतु व्यासजीका स्नेह अपार था। वह बढ़ता ही जाता था। वे चाहते थे कि शुकदेव उनके समीप रहकर कुछ दिन शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करें। ब्रह्मनिष्ठ तो वे हैं ही, श्रोत्रिय भी हो जायें। व्यासजी जानते थे कि ऐसे आत्माराम विरक्तोंको केवल भगवान्का दिव्यरूप एवं मङ्गलमय चरित ही आकर्षित करता है। अतएव व्यासजीने अपने शिष्योंको श्रीश्यामसुन्दरके परम मनोहर स्वरूपकी झाँकीका वर्णन करनेवाला एक श्लोक पढ़ाकर आदेश दिया कि वनमें वे उसे बराबर मधुर स्वरसे गान किया करें। ब्रह्मचारीगण समिधा, फल, पुष्प, कुश लेने वनमें जाते तो वह श्लोक गाया करते थे। शुकदेवजीके कानोंमें जब वह श्लोक पड़ा, तब जैसे मृग सुन्दर रागपर मुग्ध होकर खिंचा चला आता है, वे उन ब्रह्मचारियोंके पास चले आये और उस श्लोकको सीखनेका आग्रह करने लगे। ब्रह्मचारी उन्हें व्यासजीके पास ले आये और वहाँ पूरे श्रीमद्भागवतका अध्ययन किया शुकदेवजीने।

गुरुके द्वारा प्राप्त ज्ञान ही उत्तम होता है। फिर जिसे लोकमें आचार्य होना है, उसे शास्त्रीय मर्यादाका पूरा पालन करना ही चाहिये। भगवान् व्यासकी आज्ञा स्वीकार करके शुकदेवजी मिथिला गये और मिथिला पहुँचकर जब वे राजमहलमें घुसने लगे, तब द्वारपालने उन्हें वहीं डाँटकर रोक दिया। वे निर्विकार शान्तचित्तसे वहीं खड़े रह गये। न उन्हें रास्तेकी थकावटका कोई ध्यान था, न भूखप्यासका और न प्रचण्ड घामका। कुछ समय बाद दूसरे एक द्वारपालने आकर आदरके साथ हाथ जोड़ तथा विधिके अनुसार पूजा करके उन्हें महलकी दूसरी कक्षामें पहुँचा दिया। अपमान और मानकी कुछ भी स्मृति न रखते हुए वे वहीं बैठकर आत्मचिन्तन करने लगे। धूप-छाँहका उन्हें कोई खयाल नहीं था। अब तीसरी परीक्षा हुई, उन्हें अन्तःपुरसे सटे हुए ‘प्रमदावन’ नामक सुन्दर बगीचेमें पहुँचा दिया गया और पचास खूब सजी हुई अति सुन्दरी नवयुवती वाराङ्गनाएँ उनकी सेवामें लग गयीं। वे बातचीत करने और नाचने-गानेमें निपुण थीं। मन्द मुसकानके साथ बातें करती थीं। वे वाराङ्गनाएँ श्रीशुकदेवजीकी पूजा करके उन्हें नहला तथा खिला-पिलाकर बगीचेकी सैर कराने ले गयीं। उस समय वे हँसती, गाती तथा नाना प्रकारकी क्रीड़ाएँ करती जाती थीं। परंतु श्रीशुकदेवजीका अन्त:करण सर्वथा विशुद्ध था। वे सर्वथा निर्विकार रहे। स्त्रियों की सेवा से ने उन्हें हर्ष हुआ न क्रोध तदनंतर उन्हें देवताओं के बैठने योग्य दिव्य रत्न जड़ित पलंग पर बहुमूल्य बिसौने बिछाकर उस पर चयन करने के लिए कहा गया। वे वही पवित्र आसन से बैठकर मोक्ष तत्व का विचार करते हुए ध्यानस्त हो गये। रात्रि के मध्य भाग में सोये और फिर ब्रह्ममुहूर्त में जग गये तथा शौच आदि से निवृत्त होकर पुनः ध्यान मग्न हो गये। अब राजा स्वयं मन्त्री और पुरोहितोंको साथ लेकर वहाँ आये, उनकी राजाने पूजा की और अंदर महलमें ले गये। वहाँ महाराज जनकसे उन्होंने अध्यात्म-विद्याका उपदेश ग्रहण किया। वैसे तो वे जन्मसे ही परम विरक्त हैं। नंगे, उन्मत्तकी भाँति अपने-आपमें आनन्दमग्न, भगवान्की लीलाओंका अस्फुट स्वरमें गान करते तथा हृदयमें भगवान्की दिव्य झाँकीका दर्शन करते वे सदा विचरण करते रहते हैं। वे नित्य अवधूत किसी गृहस्थके यहाँ उतनी देरसे अधिक कभी नहीं रुके, जितनी देरमें गाय दुही जाती है।

जब ऋषिके शापका समाचार महाराज परीक्षित्को मिला कि उन्हें सात दिन पश्चात् तक्षक काट लेगा और उससे उनका शरीरपात हो जायगा, तब वे अपने ज्येष्ठ पुत्र जनमेजयको राजतिलक करके स्वयं निर्जल व्रतका निश्चय कर गङ्गातटपर आ बैठे। इस समाचारके फैलते ही दूर-दूरसे ऋषिगण महाभागवत परीक्षित्पर कृपा करने वहाँ पधारे। उसी समय कहींसे घूमते हुए अकस्मात् शुकदेवजी भी वहाँ पहुँच गये। उन्हें उन्मत्त समझकर बालक घेरे हुए थे। शुकदेवजीको देखते ही सभी ऋषि उठ खड़े हुए। सबने उनका आदर किया। परीक्षित्ने उच्चासनपर बैठाकर उनका पूजन किया। परीक्षित्के पूछनेपर शुकदेवजीने सात दिनमें उन्हें पूरे श्रीमद्भागवतका उपदेश किया।

श्रीशुकदेवजी भागवताचार्य तो हैं ही, वे शाङ्कर अद्वैत सम्प्रदायके भी आद्याचार्यों में हैं। अगले मन्वन्तरमें वे सप्तर्षियोंमें स्थान ग्रहण करेंगे। वे अवधूत व्रजेन्द्रसुन्दरको हृदयमें धारण किये, उनके स्मरण एवं गुणगानमें मत्त सदा विचरण ही किया करते हैं। भगवत्कृपासे अनेक बार अधिकारी महापुरुषोंने उनका दर्शन प्राप्त किया है। 

ऋषि अष्टावक्र : महाराज जनक के गुरु


GPS LOCATION OF THIS TEMPLE CLICK HERE


For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey 

Kamakhya, Kashi 8840422767 

Email : sudhanshu.pandey159@gmail.com


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                                        

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय                                                      कामाख्याकाशी 8840422767                                                    ईमेल : sudhanshu.pandey159@gmail.com



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