Draupadaditya
द्रौपदादित्य
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव॥ (ऋग्वेद ५/८२/५)
समस्त संसार को उत्पन्न करने वाले (सृष्टि-पालन-संहार करने वाले) विश्व में सर्वाधिक देदीप्यमान एवं जगत को शुभकर्मों में प्रवृत्त करने वाले हे परब्रह्मस्वरूप सवितादेव! आप हमारे सभी आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक बुराइयों व पापों को हमसे दूर, बहुत दूर ले जाएं; किन्तु जो भला, कल्याण, मंगल व श्रेय है, उसे हमारे लिए–विश्व के सभी प्राणियों के लिए भली-भांति ले आवें (दें)।
पांडव जब वनवास काटने के लिए हस्तिनापुर से विदा हुए, तब राज्य के कई सारे ब्राह्मण भी उनके पीछे पीछे चल दिए। युधिष्ठिर को इस बात की चिंता सताने लगी कि यद्यपि पांडव और द्रौपदी तो कुछ भी रूखा सूखा खाकर वन में अपना निर्धारित समय व्यतीत कर लेंगे, किन्तु ये ब्राह्मणगण जो उनके अतिथि के तौर पर उनके साथ वन में जा रहे हैं, वे क्या खाएंगे? जब यही प्रश्न युधिष्ठिर ने अपने पुरोहित धौम्य से पूछा, तब उन्होंने युधिष्ठिर को भगवान् सूर्य नारायण के शरण में जाने को कहा।
काशी में युधिष्ठिर एवं द्रौपदी की सूर्य उपासना : धौम्य ने युधिष्ठिर को भगवान सूर्य की उपासना करने का निर्देश दिया परन्तु उनके तपस्या में जाने के पश्चात द्रौपदी ने भी भगवान भास्कर की उपासना की, ऐसा वर्णन भी पुराणों के माध्यम से मिलता है। युधिष्ठिर ने गंगा जी में तपस्या की परन्तु किस जगह यह वर्णन दृष्टिगोचर नहीं है। द्रौपदी ने काशी में सूर्य से वरदान एवं अक्षय पात्र ग्रहण किया यह स्कंदपुराण के काशीखण्ड से स्पष्ट है। इन समस्त कड़ियों को हम इस पौराणिक लेख के माध्यम से जोड़ने का प्रयत्न कर रहे हैं।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः४९
॥ सूत उवाच ॥
पाराशर्यमुने व्यास कुमारः कुंभजन्मने ॥ यदावदत्कथामेतां तदा क्व द्रुपदात्मजा ॥ १ ॥
सूत जी कहते हैं - हे पाराशर पुत्र, मुनिवर, व्यास! जब कार्त्तिकेय ने अगस्त्य मुनि से यह सब कथा कहा था, तब द्रौपदी कहां थीं? अर्थात् तब द्रौपदी का जन्म ही नहीं हुआ था।
॥ व्यास उवाच ॥
पुराणसंहितां सूत ब्रूते त्रैकालिकीं कथाम् ॥ संदेहो नात्र कर्तव्यो यतस्तद्गोचरोखिलम् ॥२॥
व्यास जी कहते हैं- हे सूत! पुराणशास्त्र से भूत, भविष्य तथा वर्त्तमान इन त्रिकाल वृत्तान्त से अवगत हो सकते हैं। इसलिये इस वेदोपम पुराणशास्त्र पर सन्देह उचित नहीं हैं।
॥ स्कंद उवाच॥
आकर्णय मुने पूर्वं पंचवक्त्रो हरः स्वयम् ॥ पृथिव्यां पंचधा भूत्वा प्रादुरासीज्जगद्धितः ॥३॥
उमापि च जगद्धात्री द्रुपदस्य महीभुजः ॥ यजतो वह्निकुंडाच्च प्रादुश्चक्रेति सुंदरी ॥ ४ ॥
पंचापि पांडुतनयाः साक्षाद्रुद्रवपुर्धराः ॥ अवतेरुरिह स्वर्गाद्दुष्टसंहारकारकाः ॥ ५ ॥
नारायणोपि कृष्णत्वं प्राप्य तत्साहचर्यकृत् ॥ उद्वृत्तवृत्तशमनः सद्वृत्तस्थितिकारकः ॥ ६ ॥
प्रतपंतः पृथिव्यां ते पार्थाश्चेरुः पृथक्पृथक् ॥ उदयानुदयौ तस्मिन्संपदां विपदामपि ॥ ७ ॥
कदाचित्ते महावीरा भ्रातृव्यप्रतिपादिताम् ॥ विपत्तिमाप्य महतीं बभूवुः काननौकसः ॥ ८ ॥
पांचाल्यपि च तत्पत्नी पतिव्यसनतापिता ॥ धर्मज्ञा प्राप्य तन्वंगी ब्रध्नमाराधयद्भृशम् ॥ ९ ॥
आराधितोथ सविता तया द्रुपदकन्यया ॥ सदर्वी सपिधानां च स्थालिकामक्षयां ददौ ॥ १० ॥
स्कन्ददेव कहते हैं--हे सूत! एकाग्र होईये! पूर्व में देव पंचानन (पांच मुख वाले भगवान शिव) जगत् के हितार्थ स्वयं पञ्चधा विभक्त होकर महीपति पाण्डु के पांच पुत्रों के रूप में आविर्भूत हुये थे। जगदम्बिका सती भी पतिविच्छेद न सह पाने के कारण द्रुपदराज के यज्ञकुण्ड से उत्पन्न होकर उनकी पत्नी हो गईं। रुद्रदेव ने दुष्ट दमनार्थ पञ्चपाण्डवों के रूप में पृथ्वी पर शरीर ग्रहण किया। तदनन्तर वैकुण्ठनाथ नारायण भी पञ्चपाण्डवों के सहायकरूपेण आविर्भूत हो गये। उन्होंने आकर दुष्टनिग्रह, शिष्टजन की रक्षा किया था। पाण्डुपुत्रगण सुख के पश्चात् दुःख, दुःख के अनन्तर सुख, इस क्रम से भोगते जा रहे थे। किसी समय ये वीर जातिकृत विपत्ति में पड़कर वनवासी हो गये। उनकी सहधर्मिणी धर्मपरायणा पाञ्चालतनया (पांचाल नरेश द्रुपद की पुत्री द्रौपदी) ने पतियों के सम्बन्ध में व्यथिता होकर सूर्योपासना किया। सूर्यदेव ने द्रौपदी की आराधना से प्रसन्न होकर उसे एक अक्षय थाली दिया था। तब सूर्यदेव ने कहा -
उवाच च प्रसन्नात्मा भास्करो द्रुपदात्मजाम् ॥ आराधयंतीं भावेन सर्वत्र शुचिमानसाम् ॥ ११ ॥
स्थाल्यैतया महाभागे यावंतोऽन्नार्थिनो जनाः ॥ तावंतस्तृप्तिमाप्स्यंति यावच्च त्वं न भोक्ष्यसे ॥ १२ ॥
भुक्तायां त्वयि रिक्तैषा पूर्णभक्ता भविप्यति ॥ रसवद्व्यंजननिधिरिच्छाभक्ष्यप्रदायिनी ॥ १३ ॥
इत्थं वरस्तया लब्धः काश्यामादित्यतो मुने ॥ अपरश्च वरो दत्तस्तस्यै देवेन भास्वता ॥ १४ ॥
सूर्यदेव कहते हैं--हे सुभगे! जब तक तुम भोजन नहीं कर लोगी, तब तक चाहे जितने भी क्षुधा पीड़ित लोग क्यों न आये, सभी इसके अन्न से तृप्त होते रहेंगे। इससे तुम इच्छित वस्तु पाती रहोगी, लेकिन उस दिन तुम्हारे भोजनोपरान्त सरसद्रव्य से परिपूर्ण यह थाली शून्य हो जायेगी। हे मुनिप्रवर! सूर्यदव ने काशी में द्रौपदी को यह वर देकर और भी एक वर प्रदान किया था।
॥ रविरुवाच ॥
विश्वेशाद्दक्षिणेभागे यो मां त्वत्पुरतः स्थितम् ॥ आराधयिष्यति नरः क्षुद्बाधा तस्य नश्यति ॥ १५ ॥
अन्यश्च मे वरो दत्तो विश्वेशेन पतिव्रते ॥ तपसा परितुष्टेन तं निशामय वच्मि ते ॥ १६ ॥
प्राग्रवे त्वां समाराध्य यो मां द्रक्ष्यति मानवः ॥ तस्य त्वं दुःखतिमिरमपानुद निजैः करैः ॥ १७ ॥
अतो धर्माप्रिये नित्यं प्राप्य विश्वेश्वराद्वरम् ॥ काशीस्थितानां जंतूनां नाशयाम्यघसंचयम् ॥ १८ ॥
ये मामत्र भजिष्यंति मानवाः श्रद्धयान्विताः ॥ त्वद्वरोद्यतपाणिं च तेषां दास्यामि चिंतितम् ॥ १९ ॥
भवतीं मत्समीपस्थां युधिष्ठिरपतिव्रताम् ॥ विश्वेशाद्दक्षिणेभागे दंडपाणेः समीपतः ॥ २० ॥
येर्चयिष्यंति भावेन पुरुषा वास्त्रियोपि वा ॥ तेषां कदाचिन्नो भावि भयं प्रियवियोगजम् ॥ २१ ॥
न व्याधिजं भयं क्वापि न क्षुत्तृड्दोषसंभवम् ॥ द्रौपदीक्षणतः काश्यां तव धर्मप्रियेनघे ॥ २२ ॥
सूर्यदेव कहते हैं- विश्वेश्वर के दक्षिण की ओर तुम रहोगी। तुम्हारे समक्ष मेरा अधिष्ठान होगा। यह मेरी आराधना करने वाला प्राणी कदापि क्षुधा पीड़ित नहीं होगा। हे रति परायणे! प्रभु विश्वनाथ के संतुष्ट होने पर मैंने उनसे जो वर प्राप्त किया था, वह सुनो। विश्वेश्वर ने कहा था कि “हे दिवाकर! जो व्यक्ति पहले तुम्हारा पूजन करके तब मेरा दर्शन करेगा, तुम उसके सभी दुःख दूरीभृत करोगे। हे द्रौपदी! विश्वेश्वर से यह वर पाकर तब से मैं काशीवासी जीवों का पापनाश करता हूं। यहां जिनसे मैं पूजित होता हूं, वह मुझसे पूर्ण मनोरथ लाभ करते हैं। विश्वेश्वर के दक्षिण की ओर मेरे एवं दण्डपाणि के निकट तुम रहोगी। काशी मे जो नर अथवा नारी श्रद्धापूर्वक तुम्हारी मूर्त्ति का पूजन करेंगे, वे कदापि प्रियजनवियोग से दुःखी नहीं होंगे! हे निष्पाप! धर्मशीले! काशी में तुम्हारे दर्शन से लोगों की व्याधि, क्षुधा तथा तृष्णाजनित दारुण के कष्ट दूरीभूत होगा।
इति दत्त्वा वरान्देव आदित्यः सर्वदः सताम् ॥ शंभुमाराधयामास धर्मं द्रौपद्युपाययौ ॥ २३ ॥
आदित्यस्य कथामेतां द्रौपद्याराधितस्य वै ॥ यः श्रोष्यति नरो भक्त्या तस्यैनः क्षयमेष्यति ॥ २४ ॥
भक्तों को अभीष्ट प्रदान करने वाले भगवान् दिवाकर ने पाञ्ञाल राजपुत्री को इस वरदान से आश्वस्त किया तथा वे स्वयं शिवोपासना मैं तत्पर हो गये। तब द्रौपदी भी कृतार्थ होकर पतिगण के पास चली गयीं। जो दिवाकर-द्रौपदी संवाद को भक्तिपूर्वक सुनता है, उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है।
॥ स्कंद उवाच ॥
द्रौपदादित्यमाहात्म्यं संक्षेपात्कथितं मया ॥ मयूखादित्यमाहात्म्यं शृण्विदानीं घटोद्भव ॥ २५ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- मैंने द्रौपदादित्य का माहात्म्य संक्षेप में कह दिया। हे घटसंभव कुंभज! अब आप मयूखादित्य का माहात्म्य श्रवण करें।
महाभारतम्/३:आरण्यकपर्व(वनपर्व)/अध्यायः३
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! धर्मराज के द्वारा इस प्रकार विनयपूर्वक अनुरोध किये जाने पर उन समस्त प्रजा ने ‘हां ! महाराज !' ऐसा कहकर एक ही साथ भयंकर आर्तनाद किया। कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर के गुणों का स्मरण करके प्रजा वर्ग के लोग दु:ख से पीड़ित और अत्यन्त आतुर हो गये। उनकी पाण्डवों के साथ जाने की इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी। वे केवल उनसे मिलकर लौट आये। पुरवासियों के लौट जाने पर पाण्डवगण रथों पर बैठकर गंगाजी के किनारे प्रमाणकोटि नामक वट के समीप आये। संध्या होते-होते उस वट के निकट पहुँचकर शूरवीर पाण्डवों ने पवित्र जल का स्पर्श (आचमन और संध्या वन्दन आदि ) करके वह रात वहीं व्यतीत की। दु:ख से पीडित हुए वे पाँचों पाण्डुकुमार उस रात में केवल जल पीकर ही रह गये। कुछ ब्राह्मण लोग भी इन पाण्डवों के साथ स्नेहवश वहाँ तक चले आये थे।
उनमें से कुछ साग्नि (अग्निहोत्री) थे और कुछ निराग्नि। उन्होंने अपने शिष्यों तथा भाई-बंधुओं को भी साथ ले लिया था। वेदों का स्वाध्याय करने वाले उन ब्राह्मणों से घिरे हुए राजा की बड़ी शोभा हो रही थी। संध्याकाल की नैसर्गिक शोभा से रमणीय तथा राक्षस, पिशाच आदि के संचरण का समय होने से अत्यंत भयंकर प्रतीत होने वाले उस मुहूर्त में अग्नि प्रज्वलित करके वेद मंत्रों के घोषपूर्वक अग्निहोत्र करने के बाद उन ब्राह्मणों में परस्पर संवाद होने लगा। हंस के समान मधुर स्वर में बोलने वाले उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने कुरूकुलरत्न राजा युधिष्ठिर को आश्वासन देते हुए सारी रात उनका मनोरंजन किया।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! शौनक के ऐसा कहने पर कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर अपने पुरोहित के पास आकर भाइयों के बीच में इस प्रकार बोले- विप्रवर! ये वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण मेरे साथ वन में चल रह हैं। परंतु मैं इनका पालन-पोषण करने में असमर्थ हूँ, यह सोचकर मुझे बड़ा दुख हो रहा है। भगवन ! मैं इनका त्याग नहीं कर सकता परंतु इस समय मुझमें अन्न देने की शक्ति नहीं है ऐसी अवस्था में क्या करना चाहिए यह कृपा करके बताइये।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धौम्यमुनि ने युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर दो घड़ी तक ध्यान-सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपाय का अन्वेषण करने के पश्चात उनसे इस प्रकार कहा।
धौम्य बोले- राजन ! सृष्टि के प्रारम्भकाल में जब प्राणी भूख से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे, तब भगवान सूर्य ने पिता की भाँति उन सब पर दया करके उत्तरायण में जाकर अपनी किरणों से पृथ्वी का रस (जल) खींचा और दक्षिणायण में लौटकर पृथ्वी को उस रस से प्रविष्ट किया। इस प्रकार सारे भूमण्डल में क्षेत्र तैयार हो गया तब औषधीय स्वामी चन्द्रमा ने अन्तरिक्ष मेघों के रूप में परिणत हुए सूर्य के तेज को प्रकट करके उसके द्वारा बरसाये हुए जल से अन्न आदि औषधियों को उत्पन्न किया। चन्द्रमा की किरणों से अभिशक्त हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृति में स्थित हो जाता है तब छः प्रकार के रसों से युक्त जो पवित्र औषधियां उत्पन्न होती हैं, वही पृथ्वी में प्राणियों के लिये अन्न होता है। इस प्रकार सभी जीवों के प्राणों की रक्षा करने वाला अन्न सूर्य रूप ही है। अतः भगवान सूर्य ही समस्त प्राणियों के पिता हैं, इसलिये तुम उन्हीं की शरण में जाओ। जो जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियों से परम उज्ज्वल हैं ऐसे महात्मा राजा भारी तपस्या का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्रजाजनों का संकट से उद्धार करते हैं। भीम, कार्तवीर्य, अर्जुन, वेनपुत्र पृथु तथा नहुष आदि नरेशों के तपस्या योग और समाधि में स्थित होकर भारी आपत्तियों से प्रजा को उबारा है। धर्मात्मा भरत! इसी प्रकार तुम भी सत्कर्म से शुद्ध होकर तपस्या का आश्रय ले, धर्मानुसार द्विजातियों का भरण-पोषण करो।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! पुरोहित धौम्य के इस प्रकार समयोचित बात कहने पर ब्राह्मणों को देने के लिये अन्न की प्राप्ति के उद्देश्य से नियम में स्थित होकर दृढ़ता पूर्वक व्रत का पालन करते हुए शुद्ध चेतना से धर्मराज युधिष्ठिर ने उत्तम तपस्या का अनुष्ठान आरम्भ किया। राजा युधिष्ठिर ने गंगा जी के जल से पुष्प और नैवेद्य आदि उपहारों द्वारा भगवान दिवाकर की पूजा की और उनके सम्मुख मुँह करके खड़े हो गये। धर्मात्मा पाण्डु कुमार चित्त को एकाग्र करके इंद्रियों को संयम में रखते हुए केवल वायु पीकर रहने लगे। गंगा जल का आचमन करके पवित्र हो वाणी को वश में रखकर तथा प्राणायामपूर्वक स्थित रहकर पूर्वोत्तर अष्टोत्तरशतनामात्मक स्तोत्र का जप किया।
॥ ब्रह्माजी द्वारा कहा हुआ अष्टोत्तरशतनाम सूर्य स्तोत्र ॥
॥ वैशंपायन उवाच ॥
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क: सविता रवि:। गभस्तिमानज: कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर:॥
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्। सोमो बृहस्पति: शुक्रो बुधो अंगारक एव च॥
इन्द्रो विवस्वान् दीप्तांशु: शुचि: शौरि: शनैश्चर:। ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यम:॥
वैद्युतो जाठरश्चाग्नि रैन्धनस्तेजसां पति:। धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदांगो वेदवाहन:॥
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलि: सर्वमलाश्रय:। कला काष्ठा मुहूर्त्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षण:॥
संवत्सरकरोऽश्वत्थ: कालचक्रो विभावसु:। पुरुष: शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्त: सनातन:॥
कालाध्यक्ष: प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुद:। वरुण: सागरोंऽशश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥
भूताश्रयो भूतपति: सर्वलोकनमस्कृत:। स्रष्टा संवर्तको वह्नि: सर्वस्यादिरलोलुप:॥
अनन्त: कपिलो भानु: कामद: सर्वतोमुख:। जयो विशालो वरद: सर्वधातुनिषेचिता॥
मन:सुपर्णो भूतादि: शीघ्रग: प्राणधारक:। धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवो दिते: सुत:॥
द्वादशात्मारविन्दाक्ष: पिता माता पितामह:। स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुख:। चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेय: करुणान्वित:॥
सूर्य के नामों की व्याख्या :
- सूर्य के अष्टोत्तरशतनामों में कुछ नाम ऐसे हैं जो उनकी परब्रह्मरूपता प्रकट करते हैं जैसे–अश्वत्थ, शाश्वतपुरुष, सनातन, सर्वादि, अनन्त, प्रशान्तात्मा, विश्वात्मा, विश्वतोमुख, सर्वतोमुख, चराचरात्मा, सूक्ष्मात्मा।
- सूर्य की त्रिदेवरूपता बताने वाले नाम हैं- ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शौरि, वेदकर्ता, वेदवाहन, स्रष्टा, आदिदेव व पितामह। सूर्य से ही समस्त चराचर जगत का पोषण होता है और सूर्य में ही लय होता है, इसे बताने वाले सूर्य के नाम हैं–प्रजाध्यक्ष, विश्वकर्मा, जीवन, भूताश्रय, भूतपति, सर्वधातुनिषेविता, प्राणधारक, प्रजाद्वार, देहकर्ता और चराचरात्मा।
- सूर्य का नाम काल है और वे काल के विभाजक है, इसलिए उनके नाम हैं–कृत, त्रेता, द्वापर, कलियुग, संवत्सरकर, दिन, रात्रि, याम, क्षण, कला, काष्ठा–मुहुर्तरूप समय।
- सूर्य ग्रहपति हैं इसलिए एक सौ आठ नामों में सूर्य के सोम, अंगारक, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर व धूमकेतु नाम भी हैं।
- उनका ‘व्यक्ताव्यक्त’ नाम यह दिखाता है कि वे शरीर धारण करके प्रकट हो जाते हैं। कामद, करुणान्वित नाम उनका देवत्व प्रकट करते हुए यह बताते हैं कि सूर्य की पूजा से इच्छाओं की पूर्ति होती है।
- सूर्य के नाम मोक्षद्वार, स्वर्गद्वार व त्रिविष्टप यह प्रकट करते हैं कि सूर्योपासना से स्वर्ग की प्राप्ति होती हैं। उत्तारायण सूर्य की प्रतीक्षा में भीष्मजी ने अट्ठावन दिन शरशय्या पर व्यतीत किए। गीता में कहा गया है- उत्तरायण में मरने वाले ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं। सूर्य के सर्वलोकनमस्कृत नाम से स्पष्ट है कि सूर्यपूजा बहुत व्यापक है।
वैशम्पायनजी कहते हैं- महाराज! जब युधिष्ठिर ने लोकभावन भगवान भास्कर का इस प्रकार स्तवन किया, तब दिवाकर ने प्रसन्न होकर उन पाण्डु कुमारों को दर्शन दिया उस समय उनके श्री अंग प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित हो रहे थे।
भगवान सूय बोले- धर्मराज! तुम जो कुछ चाहते हो, वह सब तुम्हें प्राप्त होगा। मैं बारह वर्षों तक तुम्हें अन्न प्रदान करूँगा। राजन! यह मेरी दी हुई ताँबे की बटलोई लो। सुवत! तुम्हारे रसोई घर में इस पात्र द्वारा फल- मूल भोजन करने के योग्य अन्य पदार्थ तथा साग आदि जो चार प्रकार की भोजन-सामग्री तैयार होगी, वह तब तक अक्षय बनी रहेगी, जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी। आज से चैदहवें वर्ष में तुम अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लोगे।
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन इतना कहकर भगवान सूर्य वहीं अंर्तधान हो गये। जो कोई अन्य पुरूष भी मन को संयम में रखकर चित्तवृत्तियों को एकाग्र करके इस स्तोत्र का पाठ करेगा वह यदि कोई अत्यन्त दुर्लभ वर भी माँगे तो भगवान सूर्य उसकी मनवांछित वस्तु को दे सकते हैं। जो प्रतिदिन इस स्तोत्र को धारण करता अथवा बार-बार सुनता है, वह यदि पुत्रार्थी हो तो पुत्र पाता है, धन चाहता है तो धन पाता है, विद्या की अभिलाषा रखता हो तो उसे विद्या प्राप्त होती है और पत्नी की इच्छा रखने वाले पुरुष को पत्नी सुलभ होती है। स्त्री हो या पुरुष यदि दोनों समय इस स्तोत्र का पाठ करता है तो आपत्ति में पड़कर भी उससे मुक्त हो जाता है। बन्धन में पड़ा हुआ मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह स्तुति सबसे पहले ब्रह्यजी ने महात्मा इन्द्र को दी, इन्द्र से नारद जी से धौम्य ने इसे प्राप्त किया। धौम्य से इसका उपदेश पाकर राजा युधिष्ठिर ने अपनी सब कामनाएँ प्राप्त कर लीं। जो इसका अनुष्ठान करता है ,वह सदा संग्राम में विजयी होता है, बहुत धन पाता है, सब पापों से मुक्त होता है और अन्त में सूर्यलोक को जाता है।
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! वर पाकर धर्म के ज्ञाता कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर गंगाजी के जल से बाहर निकले। उन्होंने धौम्य जी के दोनों चरण पकड़े और भाइयों को ह्रदय से लगा लिया। द्रौपदी ने उन्हें प्रणाम किया और वे उससे प्रेमपूर्वक मिले। फिर उसी समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने चूल्हे पर बटलोई रखकर रसोई तैयार कराई। द्रौपदी ने उन्हें प्रणाम किया और वे उससे प्रेमपूर्वक मिले। फिर उसी समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के प्रभाव से थोड़ी-सी रसोई उस पात्र में बढ़ गई और अक्षय हो गई। उसी से वे बाह्यणों को भोजन कराने लगे। बाह्यणों के भोजन कर लेने पर अपने छेाटे भाईयों को भी कराने के पश्चात विघस अवशिष्ट अन्न को युधिष्ठिर सबसे पीछे खाते थे। युधिष्ठिर के भोजन को कर लेने पर द्रौपदी शेष अन्न स्वयं खाती थी। द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उस पात्र का अन्न समाप्त हो जाता था। इस प्रकार सूर्य से मनोवांछित वरों को पाकर उन्हीं के समान तेजस्वी प्रभावशाली राजा युधिष्ठिर ब्राह्यणों को नियमपूर्वक अन्न दान करने लगे। पुरोंहितों को प्रणाम करके उत्तम तिथि, नक्षत्र एवं पर्वों पर विधि मन्त्र के प्रणाम के अनुसार उनके यज्ञ संबंधी कार्य करने लगे। तदनन्तर स्तिवाचन कराकर ब्राह्यण समुदाय से घिरे हुए पाण्डव धौम्यजी के साथ काम्यक वन को चले गये।
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For the benefit of Kashi residents and devotees:-
From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi
काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-
प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्या, काशी
॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥