Vimal Aaditya (विमल नाम के क्षत्रिय का कुष्ठ रोग से पीड़ित हो काशी आकर भगवान सूर्य की उपासना करना तथा उससे सन्तुष्ट होकर सूर्यदेव का काशी में विमलादित्य नाम से सर्वदा स्थित रहकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण करना )

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Vimal Aaditya
विमलादित्य
स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः५१
॥ स्कंद उवाच ॥
अतः परं शृणु मुने विमलादित्यमुत्तमम् ॥ हरिकेशवने रम्ये वाराणस्यां व्यवस्थितम्॥ ८३ ॥
उच्चदेशेभवत्पूर्वं विमलो नाम बाहुजः ॥ स प्राक्तनात्कर्मयोगाद्विमले पथ्यपि स्थितः ॥ ८४ ॥
कुष्ठरोगमवाप्योच्चैस्त्यक्त्वा दारान्गृहं वसु ॥ वाराणसीं समासाद्य ब्रध्नमाराधयत्सुधीः ॥ ८५ ॥
स्कन्ददेव कहते हैं- हे मुनिवर! अब विमलादित्य का उत्तम प्रसंग श्रवण करिये। यह हरिकेश वन में अवस्थित विमलादित्य का सुन्दर इतिहास है। पूर्वकाल में पर्वतप्रदेश में विमल नामक क्षत्रिय रहता था। उसकी बुद्धि यद्यपि धार्मिक थी, तथापि जन्मान्तरी पापों के फलस्वरूप वह कुष्ठरोगी हो गया। तत्पश्चात्‌ उसने अपने स्वजन तथा विषय वैभव का त्याग किया तथा काशी आकर सूर्यदेव की आराधना करने लगा।
करवीरैर्जपाभिश्च गंधकैः किंशुकैः शुभैः ॥ रक्तोत्पलैरशोकैश्च स समानर्च भास्करम् ॥ ८६ ॥
विचित्ररचनैर्माल्यैः पाटलाचंपकोद्भवैः ॥ कुंकुमागुरुकर्पूरमिश्रितैः शोणचंदनैः ॥ ८७ ॥
देवमोहनधूपैश्च बह्वामोदततांबरैः ॥ कर्पूरवर्तिदीपैश्च नैवेद्यैर्घृतपायसैः ॥ ८८ ॥
अर्घदानैश्च विधिवत्सौरेः स्तोत्रजपैरपि ॥ एवं समाराधयतस्तस्यार्को वरदोभवत् ॥ ८९ ॥
उवाच च वरं ब्रूहि विमलामलचेष्टित ॥ कुष्ठश्च ते प्रयात्वेष प्रार्थयान्यं वरं पुनः ॥ ९० ॥
वह सर्वदा कनेर, जपापुष्प (गुड़हल), बन्धूक, किंशुक, लालकमल, अशोक, चम्पकादि पुष्प तथा जिनके सौरभ से दिगन्त आमोदित हो उठे, ऐसी मालाओं से प्रभु सूर्य का पूजन करता था। वह कुंकुम, रक्तचन्दन, धूप, कर्पूरदीप तथा घृत पायस युक्त नैवेद्य, अर्घ्य तथा स्तुति प्रणाम द्वारा सूर्योपासना करने लगा। उसकी उपासना से सन्तुष्ट होकर सूर्यदेव वहां आये और उससे कहा- हे विमलचित्त विमल! मैं प्रसन्न हो गया। तुम कुष्ठरोगरहित हो जाओ। तुम्हारी जो अन्य अभिलाषा हो, उसे कहो।
आकर्ण्य विमलश्चेत्थमालापं रश्मिमालिनः ॥ प्रणतो दंडवद्भूमौ संप्रहष्टतनूरुहः । ९१ ॥
शनैर्विज्ञापयांचक्र एकचक्ररथं रविम् ॥ जगच्चक्षुरमेयात्मन्महाध्वांतविधूनन ॥ ९२ ॥
यदि प्रसन्नो भगवन्यदि देयो वरो मम ॥ तदा त्वद्भक्तिनिष्ठा ये कुष्ठं मास्तु तदन्वये ॥ ९३ ॥
अन्येपि रोगा मा संतु मास्तु तेषां दरिद्रता ॥ मास्तु कश्चन संतापस्त्वद्भक्तानां सहस्रगो ॥ ९४ ॥
सूर्य का वाक्य सुनकर विमल क्षत्रिय की देह में रोमांच हो गया। उसने सूर्यदेव को दण्डवत्‌ प्रणाम करके अत्यन्त मृदुता पूर्वक एक चक्रात्मक रथ वाले सूर्यदेव से कहना प्रारंभ किया - हे अमेयात्मा, तामनाशक! आप विश्व के चक्षु (नेत्र) हैं। यदि आप प्रेसन्न होकर वर देने आये हैं, तब यह आशीर्वाद करिये जिससे आपके भक्तों के वंश में कोई कुष्ठरोगी, दरिद्र तथा सन्ताप युक्त न हो।
॥ श्रीसूर्य उवाच ॥
तथास्त्विति महाप्राज्ञ शृण्वन्यं वरमुत्तमम् ॥ त्वयेयं पूजिता मूर्तिरेवं काश्यां महामते ॥ ९५ ॥
अस्याः सान्निध्यमत्राहं न त्यक्ष्यामि कदाचन ॥ प्रथिता तव नाम्ना च प्रतिमैषा भविष्यति ॥९६॥
विमलादित्य इत्याख्या भक्तानां वरदा सदा ॥ सर्वव्याधि निहंत्री च सर्वपापक्षयंकरी ॥९७॥
इति दत्त्वा वरान्सूर्यस्तत्रैवांतरधीयत ॥ विमलो निर्मलतनुः सोपि स्वभवनं ययौ ॥ ९८ ॥
इत्थं स विमलादित्यो वाराणस्यां शुभप्रदः ॥ तस्य दर्शनमात्रेण कुष्ठरोगः प्रणश्यति ॥९९॥
यश्चैतां विमलादित्यकथां वै शृणुयान्नरः ॥ प्राप्नोति निर्मलां शुद्धिं त्यज्यते च मनोमलैः ॥१००॥
सूर्य कहते हैं- हे विचक्षण, तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हो। अब मैं तुमको अन्य एक वर प्रदान करता हूं। श्रवण करो। हे मतिमान! इस काशीधाम में तुमने जिस मूर्ति में मेरा पूजन किया है, मैं उसी मूर्ति में तुम्हारे नाम मे अर्थात्‌ विमलादित्य नाम से सर्वदा स्थित रहकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण करता सर्वविध व्याधि तथा पापभय दूर करूंगा। यह कहके सूर्यदेव वहां से अन्तर्हित्‌ हो गये। विमल क्षत्रिय भी निरोगदेह होकर अपने स्थान पर लौट गया। इस प्रकार से आविर्भूत शुभप्रद भगवान्‌ विमलादित्य के दर्शनमात्र से जीव का कुष्ठरोग दूरीभूत हो जाता है। जो सभक्ति इस उपाख्यान का श्रवण करते हैं, उनके शरीर की पापराशि तथा मानसिक मल दूरीभूत होता है तथा उसका अन्तर्मन परिशुद्धि प्राप्त करता है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः४६
कुपितोपि हि मे रुद्रस्तेजोहानिं विधास्यति ॥ काश्यां च लप्स्ये तत्तेजो यद्वै स्वात्मावबोधजम् ॥ ४२ ॥
इतराणीह तेजांसि भासंते तावदेव हि ॥ खद्योताभानि यावन्नो जृंभते काशिजं महः ॥ ४३ ॥
इति काशीप्रभावज्ञो जगच्चक्षुस्तमोनुदः ॥ कृत्वा द्वादशधात्मानं काशीपुर्यां व्यवस्थितः ॥ ४४ ॥
भगवान भास्कर विचार करने लगे : सतीनाथ (भगवान शिव) के कोप करने पर मेरे वाह्म तेज का ही नाश करेंगे, लेकिन काशीवासी होने पर मैं सुविमल तेज का लाभ करूंगा। जब तक काशीसेवा जनित तेज प्रकाशित नहीं होता, तब तक ही अन्य तेजराशि दीप्तिमान लगती है। काशी प्रभाव ज्ञाता तम:नाशक द्वादशरूप सूर्य यह चिन्तन करके काशी में ही रहने लगे। वे द्वादश रूप में विभक्त थे।
लोलार्क उत्तरार्कश्च सांबादित्यस्तथैव च ॥ चतुर्थो द्रुपदादित्यो मयूखादित्य एव च ॥ ४५ ॥
खखोल्कश्चारुणादित्यो वृद्धकेशवसंज्ञकौ ॥ दशमो विमलादित्यो गंगादित्यस्तथैव च ॥ ४६ ॥
द्वादशश्च यमादित्यः काशिपुर्यां घटोद्भव ॥ तमोऽधिकेभ्यो दुष्टेभ्यः क्षेत्रं रक्षंत्यमी सदा ॥ ४७ ॥
इस प्रकार काशीधाम में (१) लोलार्क, (२) उत्तरार्क, (३) साम्बादित्य, (४) द्रौपदादित्य, (५) मयूखादित्य, (६) खाखोलक, (७) अरुणादित्य, (८) वृद्धादित्य, (९) केशवादित्य, (१०) विमलादित्य, (११) गंगादित्य, (१२) यमादित्य नामक १२ आदित्यों  (सूर्य) द्वारा काशी पापीगण से सदा रक्षित रहती है ।


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EXACT GPS LOCATION : 25.307601953753196, 83.00486554234193

विमलादित्य जंगमबाड़ी, खारी कुआं, डी.35/273 पर स्थित है।
Vimaladitya is located at Jangambadi, Khari Kuan, D.35/273

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                        

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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