Pashupatishwar (पशुपतिश्वर - काशी में भगवान शिव द्वारा श्रीनारायण एवं ब्रह्मादि अमरगण को पाशुपतयोग से दीक्षित करना )

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Pashupatishwar
पशुपतिश्वर

दर्शन महात्म्य : चैत्र शुक्ल पक्ष चतुर्दशी
भगवान नारायण कहते हैं : पशुपतितीर्थ मणिकर्णिका के पश्चिमांश पर स्थित हैं। यहां तर्पणादि करके पशुपतिश्वर का दर्शन-पूजन करना चाहिए। यहीं भगवान शिव ने मुझे (नारायण को) तथा ब्रह्मादि अमरगण को मायारूपी बंधननाशक पाशुपतयोग से दीक्षित किया था। पशुपाश से मोक्ष देने के लिये (पशुयोनि, अज्ञान से मुक्ति देने हेतु) आज भी भगवान शंकर वहां पर लिङ्गरूपी (पशुपतीश्वर) होकर स्थित हैं। जो मानव चैत्र शुक्लपक्षीय चतुर्दशी के दिन शुद्ध भाव के साथ यत्नतः यहां की यात्रा करके उपवासी रहते हैं तथा रात्रि जागरण करके पशुपतिश्वर की अर्चना सम्पन्न करने के अनन्तर पूर्णिमा के दिन पारण करते हैं, वह पशुपाश (पशुयोनि, अज्ञान) से कभी नहीं बंधते। [स्कन्दपुराण/काशीखण्ड/अध्यायः६१]

काशी में पशुपतिश्वर का दर्शन माहात्म्य : काशी स्थित पशुपतिश्वर महादेव का दर्शन-पूजन कर विभूति लगाने मात्र से पशु अर्थात जीव, पाश अर्थात माया (प्रकृति) से मुक्त हो जाता है। यहीं काशी में भगवान शिव ने नारायण तथा ब्रह्मादि अमरगण को मायारूपी बंधननाशक पाशुपतयोग से दीक्षित किया था। दक्ष यज्ञ में साथ देने के कारण देवता पशु में परिवर्तित हो गये थे। देवताओं की वह स्थिति महाकाल वन में पशुपतिश्वर लिंग के दर्शन मात्र से ही दूर हो गई थी। काशी में भगवान पशुपति का किया हुआ एकल दर्शन, महाकाल वन में किया हुआ पांच बार दर्शन समतुल्य हो जाता है। काशी में अवंती क्षेत्र के ८४ लिंग भी स्वयं प्रकट हैं। यहां पर भगवान शिव प्रतिदिन सायं की शैव संध्या करते हैं
 
पशुपतिश्वर पौराणिक लेख की विशेषता : भगवान सर्वेश्वर, परमेश्वर श्रीसाम्बसदाशिव के मार्गदर्शन से पशुपतिश्वर का तत्वज्ञान समाहित कर पुराणों के माध्यम से पशुपति की व्याख्या को विस्तार पूर्वक वर्णित किया गया है। शैवागम के अनुसार पाशुपत ज्ञान तथा उसके साधनों के वर्णन का सन्दर्भ भी दिया गया है। भगवान अनंत है, अतः यह वर्णन अंश के अणु का भी परमाणु मात्र है

॥ पशुपति का तात्विक अर्थ 
अजडं च जडं चैव नियंतृ च तयोरपि ॥ पशुः पाशः पतिश्चेति कथ्यते तत्त्रयं क्रमात् ॥
वस्तु के विवेक का नाम ज्ञान है। वस्तु के तीन भेद माने गये हैं - जड (प्रकृति), चेतन (जीव) और उन दोनों का नियन्ता पति अर्थात परमेश्वर। इन्हीं तीनों को क्रम से पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं।
ब्रह्माद्याः स्थावरांतश्च पशवः परिकीर्तिताः ॥ पशूनामेव सर्वेषां प्रोक्तमेतन्निदर्शनम् ॥
ब्रह्माजी से लेकर स्थावर प्राणियों तक सभी जीव पशु कहे गये हैं। उन सभी पशुओं के लिये ही यह दृष्टान्त या दर्शन शास्त्र कहा गया है। यह जीव पाशों में बँधता और सुख-दुःख भोगता है, इसलिये 'पशु' कहलाता है।
अस्ति कश्चिदपर्यंतरमणीयगुणाश्रयः ॥ पतिर्विश्वस्य निर्माता पशुपाशविमोचनः ॥
अभावे तस्य विश्वस्य सृष्टिरेषा कथं भवेत् ॥ अचेतनत्वादज्ञानादनयोः पशुपाशयोः ॥
पशोः पाशस्य पत्युश्च तत्त्वतो ऽस्ति पदं परम् ॥ ब्रह्मवित्तद्विदित्वैव योनिमुक्तो भविष्यति ॥
वायुदेवता कहते हैं- महर्षियो! इस विश्व का निर्माण करने वाला कोई पति है, जो अनन्त रमणीय गुणों का आश्रय कहा गया है। वही पशुओं को पाश से मुक्त करने वाला है उसके बिना संसार की सृष्टि कैसे हो सकती है; क्योंकि पशु अज्ञानी और पाश अचेतन है। पशु, पाश और पति का जो वास्तव में पृथकृ-पृथक स्वरूप है, उसे जानकर ही ब्रह्मवेत्ता पुरुष योनि से मुक्त होता है। [शिवपुराण (वायवीयसंहिता) अध्यायः ५]
स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः७९
मुक्तिदा न मही सा मे वाराणस्यां महीयसी । तन्मही रजसा साम्यं त्रिलोक्यपि न चोद्वहेत् ॥९१॥
परं लिंगार्चनस्थानमविमुक्तेश्वरेश्वरम् । तत्र पूजां सकृत्कृत्वा कृतकृत्यो नरो भवेत् ॥९२॥
सायं पाशुपतीं संध्यां कुर्यां पशुपतीश्वरे । विभूतिधारणात्तत्र पशुपाशैर्न बध्यते ॥९३॥
भगवान शिव कहते हैं: वाराणसी में मणिकर्णिका मुक्तिदान का अत्यन्त प्रधान स्थल है। इस स्थान (मणिकर्णिका) के धूलकण इतना भी समस्त त्रैलोक्य तुलनीय नहीं है। अविमुक्त क्षेत्र लिङ्ग पूजा का परम स्थल है। यहां पर एक बार पूजा करके भी मानव कृतार्थ हो जाता है। पशुपतीश्वर लिङ्ग में नित्य सायंकाल शैव सन्ध्या करता हूं। उस समय वहां जो कोई विभूति लगाता है, वह पशुपाश में आबद्ध नहीं होता।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः ४ (काशीखण्डः)/अध्यायः ६१
मणिकर्ण्यां कृतस्नानो मणिकर्णीश वीक्षणात् । जननी जठरावासे वसतिं न लभेन्नरः ॥१०४॥
मणिकर्णीश्वरं लिंगंं पुरासंस्थापितं मया ॥ प्राग्द्वारेंतर्गृहस्यात्र समर्च्यो मोक्षकांक्षिभिः ॥१०५॥
ततः पाशुपतं तीर्थमवाच्यां मणिकर्णितः ॥ कृतोदकक्रियस्तत्र पश्येत्पशुपतीश्वरम् ॥ १०६ ॥
यत्र पाशुपतो योग उपदिष्टः पिनाकिना ॥ ममापि विधिमुख्यानां सुराणां पशुपाशहृत् ॥ १०७ ॥
अतः पशुपतिर्यत्र लिंगरूपधरः स्वयम्॥ पशुपाशविमोक्षाय नित्यं काश्यां प्रकाशते॥ १०८ ॥
तत्र चैत्र चतुर्दश्यां शुक्लायां शुचिमानसैः ॥ कार्या यात्रा प्रयत्नेन रात्रौ जागरणं तथा ॥ १०९ ॥
पूजयित्वा पशुपतिमुपोषणपरायणाः ॥ पशुपाशैर्न बध्यंते दर्शे विहितपारणाः ॥ ११० ॥
भगवान नारायण कहते हैं : जो व्यक्ति मणिकर्णिका में स्नान तथा मणिकर्णिका का अवलोकन (दर्शन) करता , उसे पुनः गर्भयातना का भोग नहीं करना पड़ता। पूर्व में मैंने अन्तर्गृह के पूर्वद्वार पर मणिकर्णिकेश्वर नामक शिवलिंग प्रतिष्ठित किया था। मोक्ष की इच्छा रखने वाले वहां उनकी पूजा करें। पशुपतितीर्थ मणिकर्णिका के पश्चिमांश पर स्थित हैं। यहां तर्पणादि करके पशुपतिश्वर का दर्शन-पूजन करना चाहिए। यहीं भगवान शिव ने मुझे (नारायण को) तथा ब्रह्मादि अमरगण को मायारूपी बंधननाशक पाशुपतयोग से दीक्षित किया था। पशुपाश से मोक्ष देने के लिये (पशुयोनि, अज्ञान से मुक्ति देने हेतु) आज भी भगवान शंकर वहां पर लिङ्गरूपी (पशुपतीश्वर) होकर स्थित हैं। जो मानव चैत्र शुक्लपक्षीय चतुर्दशी के दिन शुद्ध भाव के साथ यत्नतः यहां की यात्रा करके उपवासी रहते हैं तथा रात्रि जागरण करके पशुपतिश्वर की अर्चना सम्पन्न करने के अनन्तर पूर्णिमा के दिन पारण करते हैं, वह पशुपाश (पशुयोनि, अज्ञान) से कभी नहीं बंधते।
रुद्रावासस्ततस्तीर्थं तीर्थात्पाशुपतात्पुरः ॥ तत्र स्नात्वा नरैरर्च्यो रुद्रावासेश्वरो हरः ॥ १११ ॥
मणिकर्णीश्वराद्याम्यां रुद्रावासेश्वरं नरः ॥ समाराध्य वसेल्लोके रुद्रावासे न संशयः ॥ ११२ ॥
विश्वतीर्थं ततो याम्यां विश्वैस्तीर्थैरधिष्ठितम् ॥ तत्र स्नात्वा नरो भक्त्या विश्वनाथं विलोकयेत् ॥ ११३ ॥
विश्वां गौरीं च तदनु पूजयित्वाति भक्तितः ॥ विश्वस्य पूज्यो भवति ततो विश्वमयो भवेत् ॥ ११४ ॥
उक्त पाशुपततीर्थ के बाद रुद्रावास तीर्थ हैं। मानव यहां स्नान करके रुद्रावासेश्वर नामक महेश्वर की अर्चना करें। रुद्रावासेश्वर नामक महेश्वर मणिकर्णिकेश्वर के दक्षिणांश में स्थित हैं। उनकी अर्चना करने वाला मनुष्य निःसंदेह रुद्रलोक में निवास करता है। श्वेत नामक तीर्थ इस रुद्रावासतीर्थ के दक्षिण में स्थित है। यहां समुदय तीर्थों का अवस्थान है। जो व्यक्ति श्वेततीर्थ में स्नान के अनन्तर भक्तिपूर्ण हृदय से विश्वेश्वर का दर्शन और विश्वागौरी की पूजा भक्तिपूर्वक सम्पन्न करता है, वह विश्व में पूज्य एवं विश्वमय हो जाता है।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः९७
यत्समाप्याप्यते पुण्यं निष्ठा पाशुपतव्रतम् । तदाप्यतेत्र विश्वेश सकृदीक्षणतः क्षणात् ॥१७९॥
तदीशानेवधूतेशो योगज्ञानप्रवर्तकः । तीर्थं चैवावधूतेशं सर्वकल्मषनाशकृत् ॥१८०॥
अवधूतेश्वरात्पूर्वे लिंगं पशुपतीश्वरम् । तल्लिंगसेवया पुंसां पशुपाशविमोक्षणम् ॥१८१॥
तद्दक्षिणे गोभिलेशो महाभिलषितप्रदः । जीमूतवाहनेशश्च तत्पश्चाल्लिंगमुत्तमम् ॥१८२॥
विद्याधरपदप्राप्तिस्तल्लिंगपरिसेवनात् । मयूखार्कः पंचनदे गभस्तीशश्च तत्र वै ॥१८३॥
विश्वेश्वर का एक बार दर्शन करने मात्र से पाशुपतव्रत के उद्यापन का फललाभ होता है। योगज्ञान प्रवर्तक अवधूतेश्वर लिंग तथा सर्वपापनाशक अवधूत तीर्थ विश्वेश्वर के ईशान कोण में अवस्थित है। पशुपाश मोचनकारी (पशुयोनि, अज्ञान से मुक्ति दिलाने वाला) पशुपतीश्वर लिंग अवधूतेश्वर के पूर्व में अवस्थित है। महा अभिलाषा प्रदायक गोभिलेश्वर लिंग उसके दक्षिण में है तथा विद्याधर पद प्रदाता जीमूतवाहनेश्वर उसके पश्चात् अवस्थित है। पञ्चनद में मयूखार्क तथा गभस्तीश्वर लिंग विराजमान है।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः४(काशीखण्डः)/अध्यायः१००
अष्टायतन यात्रान्या कर्तव्या विघ्रशांतये ॥ दक्षेशः पार्वतीशश्च तथा पशुपतीश्वरः ॥४९॥
गंगेशो नर्मदेशश्च गभस्तीशः सतीश्वरः ॥ अष्टमस्तारकेशश्च प्रत्यष्टमि विशेषतः ॥५०॥
दृश्यान्येतानि लिंगानि महापापोपशांतये ॥ अपरापि शुभा यात्रा योगक्षेमकरी सदा ॥५१॥

॥ अवन्तीस्थचतुरशीतिलिङ्गमाहात्म्यम्  - श्री पशुपतिश्वर माहात्म्यवर्णनम् चतुष्षष्टितमोऽध्यायः 
स्कन्दपुराणम्/खण्डः५(अवन्तीखण्डः)/अवन्तीस्थचतुरशीतिलिङ्गमाहात्म्यम्/अध्यायः६४
॥ ईश्वर उवाच ॥
शृणु त्वं पशुपत्याख्यं चतुःषष्टिकमीश्वरम्॥ यस्य दर्शनमात्रेण पशुयोनिर्न लभ्यते ॥ १ ॥
ईश्वर ने कहा: चौंसठवें देवता पशुपतिश्वर नामक लिंग (की महिमा) को अवश्य सुनें। इसके दर्शन मात्र से मनुष्य का पशु योनि में जन्म टल जाता है।
पशुपालो महादेवि बभूव भुवि विश्रुतः ॥ राजा परम धर्मिष्ठः पशूनां पालने रतः ॥२॥
दिदृक्षुः स कदाचिच्च गतस्तोयनिधिं प्रति ॥
ददर्श तत्र पुरुषान्पंच प्राधान्यतः स्थितान् ॥ एका स्त्री मुक्तकेशा सा भ्रमन्ती च पुनःपुनः ॥ ३ ॥
अथ राजा भयाविष्टो विसंज्ञः समपद्यत ॥ संवेष्टितो दस्युभिस्तैस्तया नार्या विशेषतः ॥ ४ ॥
ततोन्ये समपातं च आगत्य नृपसत्तमम् ॥ संवेष्ट्य संस्थितैः सर्वैस्ततो रुद्धो महीपतिः ॥ ५ ॥
रुद्धे राजनि ते सर्वे एकीभूतास्तु दस्यवः ॥ घातिताः पशुपालेन न मृताः पुनरुत्थिताः ॥ ६ ॥
तस्य तां धृष्टतां ज्ञात्वा स्थैर्यं च नृपतेर्मृधे॥ तस्यैव नृपतेर्देहे लीनास्ते दश दस्यवः ॥ ७ ॥
अमूर्ता इव ते सर्वे एकीभूतास्ततोऽभवन् ॥ तान्दृष्ट्वा दुःखितो राजा पशुपालोऽभवत्क्षणात् ॥ ८ ॥
अथापश्यत्तदाऽऽयांतं नारदं मुनिपुंगवम् ॥ ब्रह्मपुत्रं तपोयुक्तं पप्रच्छ स नृपस्तदा ॥ ९ ॥
हे महादेवी, एक अत्यंत धर्मात्मा राजा था जो संपूर्ण पृथ्वी पर पशुपाल के नाम से प्रसिद्ध था। वह पशुओं की सुरक्षा में लगे हुए थे। एक बार वह समुद्र देखने की इच्छा से समुद्र की सैर पर निकला। वहाँ उसने पाँच पुरुषों को स्पष्ट रूप से खड़े देखा। वहाँ एक महिला थी जिसके बाल बिखरे हुए थे और वह लगातार घूम रही थी। भय से घबराकर राजा मूर्छित हो गया। वह उन लुटेरों और विशेषकर उस स्त्री से घिरा हुआ था। एक अन्य समूह (पाँच लुटेरों का) ने एक साथ आकर राजा को घेर लिया। राजा उन सभी से बंधा हुआ था जो उसे घेरकर खड़े थे। जैसे ही राजा संयमित होकर खड़ा हुआ, सभी लुटेरे एक में विलीन हो गये। पशुपाल ने उन पर प्रहार किया लेकिन वे मरे नहीं, वे फिर उठ खड़े हुए। राजा की निडरता और युद्ध में उसकी दृढ़ता देखकर वे सभी दस लुटेरे राजा के शरीर में ही समा गये। मानो वे सब मूलतः निराकार होकर एक हो गये। उन्हें देखकर राजा पशुपाल तुरन्त दुःखी हो गये। तभी उन्होंने तपस्या से संपन्न ब्रह्मा के पुत्र महर्षि नारद को अपनी ओर आते देखा। राजा ने उससे पूछा:
॥ पशुपाल उवाच ॥ ॥
भगवन्ब्रह्मपुत्राद्य मया दृष्टं तु कौतुकम् ॥ अकस्मात्पुरुषाः पंच समायाता भयावहाः ॥ १० ॥
तैरहं वेष्टितो दुष्टैर्व्याकुलश्च कृतस्तदा ॥ मुष्टिभिर्हन्यमानोऽहं स्वस्थो जातो द्विज क्षणात् ॥ ११ ॥
ततोऽन्ये पुरुषाः पञ्च समायाता नियुध्य माम् ॥ हन्यतां हन्यतामेष मुक्तिकामो नृपाधमः ॥ १२ ॥
एवं तैः पीडितोऽत्यर्थं पुनर्मोहमुपागतः ॥ एतस्मिन्नन्तरे सा स्त्री मामुवाच पुनःपुनः ॥ १३ ॥
दृढो भव महाराज मा विषादं कुरु प्रभो ॥ हीनवीर्या ह्यमी चोराः समर्थस्त्वं स्थिरो भव ॥ १४ ॥
तस्या वाक्येन विप्रेंद्र मया धैर्येण संयुगे ॥ दश प्रधान पुरुषा जितास्ते न मृताः प्रभो ॥ १५ ॥
प्रलीना मच्छरीरे तु केप्यते कापि साऽबला ॥ पशुपालवचः श्रुत्वा नारदो वाक्यमब्रवीत् ॥ १६ ॥
पशुपाल ने कहा: हे भगवन! हे ब्रह्मा के पुत्र! आज मुझे एक विचित्र बात दिखाई दी। अचानक, पाँच भयानक नर प्राणी मेरे पास आये। उन दुष्टों ने मुझे घेर लिया और मुक्कों से मार-मारकर मुझे व्याकुल कर दिया। लेकिन, हे ब्राह्मण, एक पल में मैं सामान्य हो गया। तभी पाँच लोगों का एक और समूह आया और मेरे साथ कुश्ती करने लगा। "मुक्ति की इच्छा रखने वाले इस नीच राजा को मार डालो, मार गिराओ।" इस प्रकार कह कर उन्होंने मुझे बहुत कष्ट दिया। मैं फिर से बेहोश हो गया। इस बीच उस महिला ने बार-बार मुझे सलाह दी: “हे राजन! दृढ़ और स्थिर रहो। राजन दुखी मत होइये, इन लुटेरों में शक्ति की कमी है। लेकिन आप कार्यकुशल हैं, इसलिए स्थिर रहें।” उसके कहने पर, हे ब्राह्मण! मैंने साहसपूर्वक उन दस महत्वपूर्ण व्यक्तियों से युद्ध किया और उन्हें हरा दिया। वे नहीं मरे, वे मेरे शरीर में विलीन हो गये। वे कौन हैं? वह महिला कौन है? पशुपाल के वचन सुनकर नारद ने ये शब्द बोले:
ये त्वया पुरुषा दृष्टास्त्वयि लीना जिता मृधे ॥
बुद्धीन्द्रियाणि ते पञ्च पंच कर्मेन्द्रियाणि च ॥ भ्रमन्ती या च नारी सा त्वया दृष्टा नृपोत्तम ॥ १७ ॥
मनोरूपेण सा बुद्धिर्भ्रमत्येव हि न स्थिरा ॥ जितानि तानि पूर्वेण ब्रह्मणा लोककर्तृणा ॥ १८ ॥
सोऽपि क्रोधवशं नीत इन्द्रियैर्विषयैः प्रियैः ॥ पितामहेन स्वे यज्ञे शम्भोर्भागो न कल्पितः ॥ १९ ॥
महादेवो जगन्नाथः सृष्टिसंहारकारकः ॥ इंद्रियैर्मोहितो राजन्क्रोधं चक्रे सुरा न्प्रति ॥ २० ॥
जिन पुरुषों को आपने युद्ध में जीत लिया था (लेकिन) जिन्हें आपने अपने शरीर में समाहित होते देखा था, वे पांच संज्ञानात्मक अंग और पांच शंकुधारी थे। हे श्रेष्ठ राजा! जो स्त्री तुम्हें घूमती हुई दिखाई दी, वह बुद्धि थी। मन के रूप में वह सदैव भटकती रहती है और कभी स्थिर नहीं रहती। वे (इंद्रियाँ) पहले जगत् के रचयिता ब्रह्मा द्वारा वश में थीं, (परन्तु) वे भी अपनी प्रिय इंद्रियों की वस्तुओं से क्रोधित हो गए। ब्रह्मा ने अपने यज्ञ में शम्भु का भाग ग्रहण नहीं किया। महादेव सृष्टि के संहारक हैं। (लेकिन,) हे राजन, वह (भी) अपनी इंद्रियों से मोहित हो  गये थे और सुर (देवों) पर क्रोधित हो गये थे।
सुरा विभूतयो यस्य क्रीडार्थं भुवनत्रयम् ॥ तेन भागनिमित्तार्थं चक्रे सज्यं धनुस्तदा ॥ २१ ॥
पूष्णश्च दंताः संभग्ना मोहितश्च दिवाकरः ॥ नेत्रे भग्ने भगस्यापि विद्धो यज्ञो मृगाकृतिः ॥ २२ ॥
पशवश्च कृता देवा मुनयो वेदवर्जिताः ॥ ऋषीणां धर्मशास्त्राणि हृतानि विभुना तथा ॥ २३ ॥
दुर्जयानीन्द्रियाण्याहुर्मुनयो वेदपारगाः ॥ मनोरूपेण या बुद्धिः सा चातीव सुदुर्जया ॥ २४ ॥
तस्माद्राजन्महाबाहो मा विषादं वृथा कृथाः ॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नारदस्य महात्मनः ॥ पशुपालो महादेवि वक्तुं समुपचक्रमे ॥ २५ ॥
सुर शिव की विभूतियाँ हैं। तीनों लोक उसके क्रीड़ा के लिये ही हैं। फिर भी, उसने हिस्से की खातिर धनुष अच्छी तरह से तान दिया था! पूषा के दाँत टूट गये। दिवाकर (सूर्य) को अचेत कर दिया गया। भग की आंखें फोड़ ली गईं और मृग के रूप में यज्ञ देवता पर प्रहार किया गया। देवताओं को पशु (जानवर) में परिवर्तित कर दिया गया अर्थात शिव का द्रोह करने कारण सभी देवताओं को पशुत्व प्राप्त हो गया। ऋषियों को वेदों से वंचित कर दिया गया। सर्वशक्तिमान भगवान ने ऋषियों के धर्मशास्त्र छीन लिये। (इसलिए) वेदों में पारंगत ऋषि कहते हैं कि इंद्रियाँ अजेय हैं। मन रूपी बुद्धि अतिशय है और उसे वश में नहीं किया जा सकता। अत: हे राजा, अकारण शोक मत करो।” हे महादेवी, पुण्यात्मा नारद के वचन सुनकर पशुपाल बोलने लगा।
॥ पशुपाल उवाच ॥
कथं ते भगवन्मुक्ता देवाः शक्रपुरोगमाः ॥ पशुभावाच्च ब्रह्मापि श्रोतुमिच्छामि कथ्यताम् ॥२६॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नारदः पुनरब्रवीत् ॥ पशु त्वेऽपि गता देवा ऋषिभिर्मुनिभिः सह ॥ २७ ॥
ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा गताः शरणमीश्वरम् ॥ स्तुतिभिस्तोषितो देवो भक्तानुग्रहकारकः ॥ २८ ॥
उवाच वचनं राजन्यत्कर्तव्यं तदुच्यताम्॥२९॥
पशुपाल ने कहा: हे भगवन! मैं यह सुनना चाहता हूं कि आपके द्वारा इंद्र को अपना नेता मानकर देवताओं तथा ब्रह्मा को पशु राज्य से कैसे मुक्त कराया गया था। इसे सुनाया जाए, उनके शब्दों को सुनकर, नारद ने फिर से कहा: “पशु राज्य के दौरान भी, ऋषियों और संतों की संगति में देवता ब्रह्मा को अपने सिर पर रखते थे और ईश्वर की शरण लेते थे। भक्त पर सदैव कृपा करने वाले देवता स्तुति से प्रसन्न होते थे। हे राजा, उन्होंने कहा: "क्या किया जाना चाहिए बताएं?"
॥ देवा ऊचुः ॥
वेदशास्त्राणि विज्ञानं देहि नो भव मा चिरम्॥ देवस्त्वं पूर्ववद्देव यदि तुष्टो महेश्वरः ॥३०॥
देवताओं ने कहा: हे भव! यदि महेश्वर हम पर पहले की भाँति प्रसन्न हैं, तो विलम्ब न करें; हमें वेद और शास्त्रों के साथ-साथ उत्तम ज्ञान भी प्रदान करें।
॥ ईश्वर उवाच ॥
भवंतः पशवः सर्वे मया सार्द्धं च गम्यताम् ॥ महाकालवने क्षेत्रे पशुभावविमोक्षके॥३१॥
अहं पतिर्वो भविता ततो मोक्षमवाप्स्यथ ॥
भवतामनुकंपार्थं लोकानुग्रहकारणम् ॥ लिंगरूपी भविष्यामि नाम्ना पशुपतीश्वरः ॥ ३२ ॥
अथ ते त्रिदशाः सर्वे दृष्ट्वा देवं तमीश्वरम् ॥ पशुभावविनिर्मुक्ता गता हृष्टास्त्रिविष्टपम् ॥ ३३॥
ईश्वर (शिव) ने कहा: आप सभी पशु हैं। मेरे साथ पवित्र स्थान महाकालवन चलो, जो पशु राज्य से मुक्ति दिलाता है। मैं तुम्हारी (पशुओं का) पति (भगवान) बन जाऊंगा और इस तरह तुम्हें मुक्ति मिलेगी। आपके प्रति सहानुभूति रखने के लिए और विश्व को आशीर्वाद देने के लिए मैं पशुपतिश्वर नाम से लिंग का रूप धारण करूंगा। तब सभी देवताओं ने भगवान के दर्शन किये और पशु राज्य से मुक्त हो गये। वे अत्यंत प्रसन्न होकर स्वर्ग को चले गये।
 ब्रह्मा पशुपतिं प्राह प्रसन्नेनांतरात्मना ॥  ये त्वां पश्यन्ति देवेश भक्त्या परमया युताः ॥३४॥
तेषां कुले पशुत्वं च ये गताः पितरः प्रभो ॥ स्वकैः कर्मविपाकैश्च तेषां मोक्षो भविष्यति ॥३५॥
अज्ञानाज्ज्ञानतो वापि यत्पापं क्रियते नरैः ॥ तत्पापं विलयं यातु तस्य देवस्य पूजनात् ॥३६॥
ते नराः पशवो लोके किं तेषां जीविते फलम् ॥ यैर्न दृष्टः पशुपतिः पशुयोनिविमोचकः ॥ ३७॥
कौमारे यौवने बाल्ये वार्द्धके यदुपार्जितम् ॥ तत्पापं विलयं याति दृष्ट्वा पशुपतिं शिवम्॥ ३८ ॥
ब्रह्मा ने प्रसन्न मन से पशुपति से कहा: "देवों के स्वामी, आपको बड़ी भक्ति से देखने वाले लोगों, उनके परिवारों के सभी व्यक्तियों, सभी पितरों के संबंध में, जिन्होंने फल के कारण पशुत्व (पशु का दर्जा) प्राप्त कर लिया है।" उनके कर्मों से मुक्ति मिल जाएगी। उस देवता की पूजा करने से मनुष्यों द्वारा जाने-अनजाने में किये गये पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि मनुष्य पशुओं की अवस्था से मुक्ति दिलाने वाले पशुपति के दर्शन नहीं करते तो वे संसार में पशुओं से बेहतर नहीं हैं। उनके जीवन से क्या लाभ? पशुपति नाम के शिव के दर्शन से बचपन, जवानी और बुढ़ापे में किए गए पाप नष्ट हो जाते हैं।
पौषमासे तु संप्राप्ते ये त्वां पश्यंति मानवाः ॥ तेषां त्वं वरदो देव सदाभीष्टकरो भवेत् ॥ ३९॥
सूर्यग्रहे यथा दत्तं कुरुक्षेत्रे विशेषतः ॥ पात्रे दानं सुवर्णस्य प्रोक्तमक्षय्यमव्ययम् ॥४०॥
पौषमासे दिनैकेन नराणामधिकं तथा ॥ तद्दर्शनेन देवेश भविष्यति न संशयः ॥४१॥
इत्युक्त्वा भगवान्ब्रह्मा ब्रह्मलोकं गतो नृप ॥ कृतकृत्यः प्रहृष्टात्मा मुनिभिः कविभिः सह ॥४२॥
तस्मात्त्वमपि राजेंद्र यदीच्छसि परां गतिम् ॥ समाराधय तल्लिंगं पशुयोनिविमोचनम् ॥४३॥
महाकालवनं गत्वा इन्द्रेश्वरस्य दक्षिणे ॥तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नारदस्य महात्मनः ॥४४॥
जगाम पशुपालोऽपि महाकालवनं प्रिये ॥ दर्शनात्तस्य लिंगस्य गतोऽसौ परमां गतिम् ॥
यदि पुरुष पौष माह में आपके दर्शन करते हैं, तो आप उन्हें वरदान देने वाले होंगे, हे भगवान, जो हमेशा उन्हें वही प्रदान करते हैं जो वे चाहते हैं। यदि पौष माह में एक दिन के दौरान, मनुष्य आपके दर्शन करते हैं, तो हे देवों के देव, निस्संदेह उन्हें सूर्य ग्रहण के दौरान  कुरूक्षेत्र में किसी योग्य व्यक्ति को सोना दान करने से प्राप्त होने वाले लाभ से कहीं अधिक प्राप्त होगा। यह चिरस्थायी और अक्षय होगा, लेकिन पौष माह में एक दिन भगवान के दर्शन करने से लाभ अधिक होगा। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।" नारद ने कहा: यह कहने के बाद भगवान ब्रह्मा ऋषियों और बुद्धिमान लोगों के साथ ब्रह्मलोक में चले गए। उन्होंने अपना कर्तव्य पूरा समझा। इसलिए, हे राजन! यदि आप महानतम लक्ष्य चाहते हैं, तो उस लिंग को प्रसन्न करें जो मनुष्य को क्रूर गर्भ से मुक्त कराता है। महाकालवन जाओ और इंद्रेश्वर के दक्षिण में स्थित देवता की पूजा करो। हे मेरे प्रिय, श्रेष्ठात्मा नारद के वचन सुनकर पशुपाल महाकालवन के पास गया। उस लिंग के दर्शन से उन्हें परम लक्ष्य की प्राप्ति हुई।
एष ते कथितो देवि प्रभावः पापनाशनः ॥ पशुपत्याख्यदेवस्य शृणु ब्रह्मेश्वरं शिवम् ॥
इस प्रकार, हे देवी, पशुपतिश्वर की पाप-विनाशकारी शक्ति का वर्णन किया गया है। देवता ब्रह्मेश्वर की कथा सुनो।

इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां पञ्चम आवन्त्यखण्डे चतुरशीतिलिङ्गमाहात्म्ये पशुपती श्वरमाहात्म्यवर्णनंनाम चतुष्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥

शिवपुराणम्/संहिता७(वायवीयसंहिता)/पूर्वभागः/अध्यायः५
॥ ऋषियों के पूछने पर वायुदेव द्वारा पशु, पाश एवं पशुपति का तात्त्विक विवेचन
॥ सूत उवाच ॥
तत्र पूर्वं महाभागा नैमिषारण्यवासिनः ॥ प्रणिपत्य यथान्यायं पप्रच्छुः पवनं प्रभुम् ॥ १ ॥
सूतजी बोले- हे महाभाग्यवान् ऋषियो ! नैमिषारण्य निवासी उन ऋषियों ने विधिपूर्वक वायुदेव को प्रणाम कर उनसे पहले पूछा
॥ नैमिषीया ऊचुः ॥
भवान् कथमनुप्राप्तो ज्ञानमीश्वरगोचरम् ॥ कथं च शिवभावस्ते ब्रह्मणो ऽव्यक्तजन्मनः ॥ २ ॥
नैमिषारण्य के ऋषियों ने पूछा- देव! आपने ईश्वरविषयक ज्ञान कैसे प्राप्त किया? तथा आप अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी के शिष्य किस प्रकार हुए ?
॥ वायुरुवाच ॥
एकोनविंशतिः कल्पो विज्ञेयः श्वेतलोहितः ॥ तस्मिन्कल्पे चतुर्वक्त्रस्स्रष्टुकामो ऽतपत्तपः ॥ ३ ॥
तपसा तेन तीव्रेण तुष्टस्तस्य पिता स्वयम् ॥ दिव्यं कौमारमास्थाय रूपं रूपवतां वरः ॥ ४ ॥
श्वेतो नाम मुनिर्भूत्वा दिव्यां वाचमुदीरयन् ॥ दर्शनं प्रददौ तस्मै देवदेवो महेश्वरः ॥ ५ ॥
तं दृष्ट्वा पितरं ब्रह्मा ब्रह्मणो ऽधिपतिं पतिम् ॥ प्रणम्य परमज्ञानं गायत्र्या सह लब्धवान् ॥ ६ ॥
ततस्स लब्धविज्ञानो विश्वकर्मा चतुर्मुखः ॥ असृजत्सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥ ७ ॥
यतश्श्रुत्वामृतं लब्धं ब्रह्मणा परमेश्वरात् ॥ ततस्तद्वदनादेव मया लब्धं तपोबलात् ॥ ८ ॥
वायुदेवता बोले- महर्षियो! उन्नीसवें कल्प का नाम श्वेतलोहितकल्प समझना चाहिये। उसी कल्प में चतुर्मुख ब्रह्मा ने सृष्टि की कामना से तपस्या की। उनकी उस तीव्र तपस्या से संतुष्ट हो स्वयं उनके पिता देवदेव महेश्वर ने उन्हें दर्शन दिया। वे दिव्य कुमारावस्था से युक्त रूप धारण करके रूपवानों में श्रेष्ठ श्वेत नामक मुनि होकर दिव्य वाणी बोलते हुए उनके सामने उपस्थित हुए। वेदों के अधिपति तथा सबके पालक पिता महेश्वर का दर्शन करके गायत्री सहित ब्रह्माजी ने उन्हें प्रणाम किया और उन्हीं से उत्तम ज्ञान पाया। ज्ञान पाकर विश्वकर्मा चतुर्मुख ब्रह्मा सम्पूर्ण चराचर भूतों की सृष्टि करने लगे। साक्षात् परमेश्वर शिव से सुनकर ब्रह्माजी ने अमृतस्वरूप ज्ञान प्राप्त किया था, इसलिये मैंने तपस्या के बल से उन्हीं के मुख से उस ज्ञान को उपलब्ध किया 
॥ मुनय ऊचुः ॥
किं तज्ज्ञानं त्वया लब्धं तथ्यात्तथ्यंतरं शुभम् ॥ यत्र कृत्वा परां निष्ठां पुरुषस्सुखमृच्छति ॥ ९ ॥
मुनियों ने पूछा- आपने वह कौन-सा ज्ञान प्राप्त किया, जो सत्य से भी परम सत्य एवं शुभ है तथा जिसमें उत्तम निष्ठा रखकर पुरुष परमानन्द को प्राप्त करता है?
॥ वायुरुवाच ॥
पशुपाशपतिज्ञानं यल्लब्धं तु मया पुरा ॥ तत्र निष्ठा परा कार्या पुरुषेण सुखार्थिना ॥ १० ॥
अज्ञानप्रभवं दुःखं ज्ञानेनैव निवर्तते ॥ ज्ञानं वस्तुपरिच्छेदो वस्तु च द्विविधं स्मृतम् ॥ ११ ॥
अजडं च जडं चैव नियंतृ च तयोरपि ॥ पशुः पाशः पतिश्चेति कथ्यते तत्त्रयं क्रमात् ॥ १२ ॥
अक्षरं च क्षरं चैव क्षराक्षरपरं तथा ॥ तदेतत्त्रितयं भूम्ना कथ्यते तत्त्ववेदिभिः ॥ १३ ॥
अक्षरं पशुरित्युक्तः क्षरं पाश उदाहृतः ॥ क्षराक्षरपरं यत्तत्पतिरित्यभिधीयते ॥ १४ ॥
वायुदेवता बोले- महर्षियो! मैंने पूर्वकाल में पशु-पाश और पशुपति का जो ज्ञान प्राप्त किया था, सुख चाहने वाले पुरुष को उसी में ऊँची निष्ठा रखनी चाहिये। अज्ञान से उत्पन्न होने वाला दुःख ज्ञान से ही दूर होता है। वस्तु के विवेक का नाम ज्ञान है। वस्तु के तीन भेद माने गये हैं- जड (प्रकृति), चेतन (जीव) और उन दोनों का नियन्ता पति अर्थात परमेश्वर। इन्हीं तीनों को क्रम से पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं। तत्त्वज्ञ पुरुष प्रायः इन्हीं तीन तत्त्वों को वर अक्षर तथा उन दोनों से अतीत कहते हैं। अक्षर ही पशु कहा गया है। क्षर तत्त्व का ही नाम पाश है तथा क्षर और अक्षर दोनों से परे जो परमतत्त्व है, उसी को पति या पशुपति कहते हैं
॥ मुनय ऊचुः ॥
किं तदक्षरमित्युक्तं किं च क्षरमुदाहृतम् ॥ तयोश्च परमं किं वा तदेतद्ब्रूहि मारुत ॥ १५ ॥
मुनिगण बोले- हे मारुत। क्षर किसे कहा गया है और अक्षर किसे कहते हैं एवं उन दोनों क्षराक्षर से परे क्या है? उसका वर्णन कीजिये।
॥ वायुरुवाच ॥
प्रकृतिः क्षरमित्युक्तं पुरुषो ऽक्षर उच्यते ॥ ताविमौ प्रेरयत्यन्यस्स परा परमेश्वरः ॥ १६ ॥
वायुदेव बोले- प्रकृति को ही क्षर कहा गया है। पुरुष (जीव) को अक्षर कहते हैं और जो इन दोनों को प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनों से भिन्न तत्त्व ही परमेश्वर कहा गया है।
॥ मुनय ऊचुः ॥
कैषा प्रकृतिरित्युक्ता क एष पुरुषो मतः ॥ अनयोः केन सम्बन्धः कोयं प्रेरक ईश्वरः ॥ १७ ॥
मुनिगण बोले- हे देव! यह प्रकृति कौन कही गयी है, और यह पुरुष कौन कहा गया है? इनका सम्बन्ध किसके द्वारा होता है और यह प्रेरक ईश्वर कौन है?
॥ वायुरुवाच ॥
माया प्रकृतिरुद्दिष्टा पुरुषो मायया वृतः ॥ संबन्धो मूलकर्मभ्यां शिवः प्रेरक ईश्वरः ॥ १८ ॥
वायुदेव बोले- माया का ही नाम प्रकृति है। पुरुष उस माया से आवृत है। मल और कर्म के द्वारा प्रकृति का पुरुष के साथ सम्बन्ध होता है। शिव ही इन दोनों के प्रेरक ईश्वर हैं।
॥ मुनय ऊचुः ॥
केयं माया समा ख्याता किंरूपो मायया वृतः ॥ मूलं कीदृक्कुतो वास्य किं शिवत्वं कुतश्शिवः ॥ १९ ॥
मुनिगण बोले- माया किसे कहते हैं, माया से आच्छादित होने पर पुरुष किस रूप का हो जाता है, यह मल क्या है और कहाँ से आया, शिवतत्त्व क्या है तथा शिव कौन है?
॥ वायुरुवाच ॥
माया माहेश्वरी शक्तिश्चिद्रूपो मायया वृतः ॥ मलश्चिच्छादको नैजो विशुद्धिश्शिवता स्वतः ॥ २० ॥
वायुदेव बोले- माया महेश्वर की शक्ति है। चित्स्वरूप जीव उस माया से आवृत है। चेतन जीव को आच्छादित करनेवाला अज्ञानमय पाश ही मल कहलाता है। उससे शुद्ध हो जाने पर जीव स्वतः शिव हो जाता है। वह विशुद्धता ही शिवत्व है
॥ मुनय ऊचुः ॥
आवृणोति कथं माया व्यापिनं केन हेतुना ॥ किमर्थं चावृतिः पुंसः केन वा विनिवर्तते ॥ २१ ॥
मुनियों ने पूछा- सर्वव्यापी चेतन को माया किस हेतु से आवृत करती है? किसलिये पुरुष को आवरण प्राप्त होता है? और किस उपाय से उसका निवारण होता है?
॥ वायुरुवाच ॥
आवृतिर्व्यपिनो ऽपि स्याद्व्यापि यस्मात्कलाद्यपि ॥ हेतुः कर्मैव भोगार्थं निवर्तेत मलक्षयात् ॥ २२ ॥
वायुदेवता बोले व्यापक तत्त्व को भी आंशिक आवरण प्राप्त होता है; क्योंकि कला आदि भी व्यापक हैं। भोग के लिये किया गया कर्म ही उस आवरण में कारण है। मल का नाश होने से वह आवरण दूर हो जाता है
॥ मुनय ऊचुः ॥
कलादि कथ्यते किं तत्कर्म वा किमुदाहृतम् ॥ तत्किमादि किमन्तं वा किं फलं वा किमाश्रयम् ॥ २३ ॥
कस्य भोगेन किं भोग्यं किं वा तद्भोगसाधनम् ॥ मलक्षयस्य को हेतुः कीदृक्क्षीणमलः पुमान् ॥ २४ ॥
मुनिगण बोले- हे वायुदेव। वह कलादि क्या है, कर्म किसे कहते हैं? उसका आदि एवं अन्त क्या है और उसका फल तथा आश्रय क्या है? किसके भोग से क्या भोगना पड़ता है, उस भोग का साधन क्या है, मलक्षय का हेतु क्या है और क्षीणमलवाला पुरुष कैसा होता है?
॥ वायुरुवाच ॥
कला विद्या च रागश्च कालो नियतिरेव च ॥ कलादयस्समाख्याता यो भोक्ता पुरुषो भवेत् ॥ २५ ॥
पुण्यपापात्मकं कर्म सुखदुःखफलं तु यत् ॥ अनादिमलभोगान्तमज्ञानात्मसमाश्रयम् ॥ २६ ॥
भोगः कर्मविनाशाय भोगमव्यक्तमुच्यते ॥ बाह्यांतःकरणद्वारं शरीरं भोगसाधनम् ॥ २७ ॥
भावातिशयलब्धेन प्रसादेन मलक्षयः ॥ क्षीणे चात्ममले तस्मिन् पुमाञ्च्छिवसमो भवेत् ॥ २८ ॥
वायुदेवता बोले- कला, विद्या, राग, काल और नियति इन्हीं को कलादि कहते हैं। कर्मफल का जो उपभोग करता है, उसी का नाम पुरुष (जीव) है। कर्म दो प्रकार के हैं - पुण्यकर्म और पापकर्म। पुण्यकर्म का फल सुख और पापकर्म का फल दुःख है। कर्म अनादि है और फल का उपभोग कर लेने पर उसका अन्त हो जाता है। यद्यपि जड कर्म का चेतन आत्मा से कुछ सम्बन्ध नहीं है, तथापि अज्ञानवश जीव ने उसे अपने-आप में मान रखा है। भोग कर्म का विनाश करनेवाला है, प्रकृति को भोग्य कहते हैं और भोग का साधन है शरीर बाह्य इन्द्रियाँ और अन्तःकरण उसके द्वार हैं। अतिशय भक्तिभाव से उपलब्ध हुए महेश्वर के कृपाप्रसाद से मलका नाश होता है और मलका नाश हो जाने पर पुरुष निर्मल-शिव के समान हो जाता है।
॥ मुनय ऊचुः ॥
कलादिपञ्चतत्त्वानां किं कर्म पृथगुच्यते ॥ भोक्तेति पुरुषश्चेति येनात्मा व्यपदिश्यते ॥ २९ ॥
किमात्मकं तदव्यक्तं केनाकारेण भुज्यते ॥ किं तस्य शरणं भुक्तौ शरीरं च किमुच्यते ॥ ३० ॥
मुनिगण बोले- कलादि पाँच तत्त्वों का अलग-अलग कर्म क्या कहा जाता है? क्या आत्मा को ही भोक्ता एवं पुरुष के नाम से पुकारा जाता है? उस अव्यक्त तत्त्व का स्वरूप क्या है और वह किस प्रकार से भोगा जाता है? उस [भोग्य] के भोग का आश्रय क्या है और शरीर किसे कहते हैं ?
॥ वायुरुवाच ॥
दिक्क्रियाव्यंजका विद्या कालो रागः प्रवर्तकः ॥ कालो ऽवच्छेदकस्तत्र नियतिस्तु नियामिका ॥ ३१ ॥
अव्यक्तं कारणं यत्तत्त्रिगुणं प्रभवाप्ययम् ॥ प्रधानं प्रकृतिश्चेति यदाहुस्तत्त्वचिंतकाः ॥ ३२ ॥
कलातस्तदभिव्यक्तमनभिव्यक्तलक्षणम् ॥ सुखदुःखविमोहात्मा भुज्यते गुणवांस्त्रिधा ॥ ३३ ॥
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः ॥ प्रकृतौ सूक्ष्मरूपेण तिले तैलमिव स्थिताः ॥ ३४ ॥
सुखं च सुखहेतुश्च समासात्सात्त्विकं स्मृतम् ॥ राजसं तद्विपर्यासात्स्तंभमोहौ तु तामसौ ॥ ३५ ॥
सात्त्विक्यूर्ध्वगतिः प्रोक्ता तामसी स्यादधोगतिः ॥ मध्यमा तु गतिर्या सा राजसी परिपठ्यते ॥ ३६ ॥
तन्मात्रापञ्चकं चैव भूतपञ्चकमेव च ॥ ज्ञानेंद्रियाणि पञ्चैक्यं पञ्च कर्मेन्द्रियाणि च ॥ ३७ ॥
प्रधानबुद्ध्यहंकारमनांसि च चतुष्टयम् ॥ समासादेवमव्यक्तं सविकारमुदाहृतम् ॥ ३८ ॥
तत्कारणदशापन्नमव्यक्तमिति कथ्यते ॥ व्यक्तं कार्यदशापन्नं शरीरादिघटादिवत् ॥ ३९ ॥
यथा घटादिकं कार्यं मृदादेर्नातिभिद्यते ॥ शरीरादि तथा व्यक्तमव्यक्तान्नातिभिद्यते ॥ ४० ॥
तस्मादव्यक्तमेवैक्यकारणं करणानि च ॥ शरीरं च तदाधारं तद्भोग्यं चापि नेतरत् ॥ ४१ ॥
वायुदेवता बोले- विद्या पुरुष की ज्ञानशक्ति को और कला उसकी क्रियाशक्ति को अभिव्यक्त करनेवाली है। राग भोग्य वस्तु के लिये क्रिया में प्रवृत्त करनेवाला होता है। काल उसमें अवच्छेदक होता है और नियति उसे नियन्त्रण में रखनेवाली है। अव्यक्तरूप जो कारण है, वह त्रिगुणमय है; उसी से जड जगत्की उत्पत्ति होती है और उसी में उसका लय होता है। तत्त्वचिन्तक पुरुष उस अव्यक्त को ही प्रधान और प्रकृति कहते हैं। अप्रकटित लक्षणोंवाला वह प्रधान तत्त्व कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति को प्राप्त करता है। उस सत्त्वादिगुणत्रयात्मक प्रधान का स्वरूप सुख-दुःख-विमोहात्मक है, जो पुरुष के द्वारा भोगा जाता है। सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण प्रकृति से प्रकट होते हैं; तिल में तेल की भाँति वे प्रकृति में सूक्ष्मरूप से विद्यमान रहते हैं। सुख और उसके हेतु को संक्षेप से सात्त्विक कहा गया है, दुःख और उसके हेतु राजस कार्य हैं तथा जडता और मोह-वे तमोगुण के कार्य हैं। सात्त्विकी वृत्ति ऊर्ध्व में ले जानेवाली है, तामसी वृत्ति अधोगति में डालनेवाली है तथा राजसी वृत्ति मध्यम स्थिति में रखनेवाली है। पाँच तन्मात्राएँ, पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा प्रधान (चित्त), महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार और मन-ये चार अन्तःकरण-सब मिलकर चौबीस तत्त्व होते हैं। इस प्रकार संक्षेप से ही विकारसहित अव्यक्त (प्रकृति) का वर्णन किया गया।  कारणावस्था में रहने पर ही इसे अव्यक्त कहते हैं और शरीर आदि के रूप में जब वह कार्यावस्था को प्राप्त होता है, तब उसकी 'व्यक्त' संज्ञा होती है ठीक उसी तरह, जैसे कारणावस्था में स्थित होनेपर जिसे हम 'मिट्टी' कहते हैं, वही कार्यावस्थामें 'घट' आदि नाम धारण कर लेती है। जैसे घट आदि कार्य मृत्तिका आदि कारण से अधिक भिन्न नहीं है, उसी प्रकार शरीर आदि व्यक्त पदार्थ अव्यक्त से अधिक भिन्न नहीं हैं। इसलिये एकमात्र अव्यक्त ही कारण, करण, उनका आधारभूत शरीर तथा भोग्य वस्तु है, दूसरा कोई नहीं
॥ मुनय ऊचुः ॥
बुद्धीन्द्रियशरीरेभ्यो व्यतिरेकस्य कस्यचित् ॥ आत्मशब्दाभिधेयस्य वस्तुतो ऽपि कुतः स्थितिः ॥ ४२ ॥
मुनियों ने पूछा— प्रभो! बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से व्यतिरिक्त किसी आत्मा नामक वस्तु की वास्तविक स्थिति कहाँ है ?
॥ वायुरुवाच ॥
बुद्धीन्द्रियशरीरेभ्यो व्यतिरेको विभोर्ध्रुवम् ॥ अस्त्येव कश्चिदात्मेति हेतुस्तत्र सुदुर्गमः ॥ ४३ ॥
बुद्धीन्द्रियशरीराणां नात्मता सद्भिरिष्यते ॥ स्मृतेरनियतज्ञानादयावद्देहवेदनात् ॥ ४४ ॥
अतः स्मर्तानुभूतानामशेषज्ञेयगोचरः ॥ अन्तर्यामीति वेदेषु वेदांतेषु च गीयते ॥ ४५ ॥
सर्वं तत्र स सर्वत्र व्याप्य तिष्ठति शाश्वतः ॥ तथापि क्वापि केनापि व्यक्तमेष न दृश्यते ॥ ४६ ॥
नैवायं चक्षुषा ग्राह्यो नापरैरिन्द्रियैरपि ॥ मनसैव प्रदीप्तेन महानात्मावसीयते  ॥ ४७ ॥
न च स्त्री न पुमानेष नैव चापि नपुंसकः ॥ नैवोर्ध्वं नापि तिर्यक्नाधस्तान्न कुतश्चन ॥ ४८ ॥
अशरीरं शरीरेषु चलेषु स्थाणुमव्ययम् ॥ सदा पश्यति तं धीरो नरः प्रत्यवमर्शनात् ॥ ४९ ॥
किमत्र बहुनोक्तेन पुरुषो देहतः पृथक् ॥ अपृथग्ये तु पश्यंति ह्यसम्यक्तेषु दर्शनम् ॥ ५० ॥
यच्छरीरमिदं प्रोक्तं पुरुषस्य ततः परम् ॥ अशुद्धमवशं दुःखमध्रुवं न च विद्यते ॥ ५१ ॥
विपदां वीजभूतेन पुरुषस्तेन संयुतः ॥ सुखी दुःखी च मूढश्च भवति स्वेन कर्मणा ॥ ५२ ॥
अद्भिराप्लवितं क्षेत्रं जनयत्यंकुरं यथा ॥ आज्ञानात्प्लावितं कर्म देहं जनयते तथा ॥ ५३ ॥
अत्यंतमसुखावासास्स्मृताश्चैकांतमृत्यवः ॥ अनागता अतीताश्च तनवो ऽस्य सहस्रशः ॥ ५४ ॥
आगत्यागत्य शीर्णेषु शरीरेषु शरीरिणः ॥ अत्यंतवसतिः क्वापि न केनापि च लभ्यते ॥ ५५ ॥
छादितश्च वियुक्तश्च शरीरैरेषु लक्ष्यते ॥ चंद्रबिंबवदाकाशे तरलैरभ्रसंचयैः ॥ ५६ ॥
अनेकदेहभेदेन भिन्ना वृत्तिरिहात्मनः ॥ अष्टापदपरिक्षेपे ह्यक्षमुद्रेव लक्ष्यते ॥ ५७ ॥
नैवास्य भविता कश्चिन्नासौ भवति कस्यचित् ॥ पथि संगम एवायं दारैः पुत्रैश्च बंधुभिः ॥ ५८ ॥
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ ॥  समेत्य च व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागमः ॥ ५९ ॥
स पश्यति शरीरं तच्छरीरं तन्न पश्यति ॥ तौ पश्यति परः कश्चित्तावुभौ तं न पश्यतः ॥ ६० ॥
ब्रह्माद्याः स्थावरांतश्च पशवः परिकीर्तिताः ॥ पशूनामेव सर्वेषां प्रोक्तमेतन्निदर्शनम् ॥ ६१ ॥
स एष बध्यते पाशैः सुखदुःखाशनः पशुः ॥ लीलासाधनभूतो य ईश्वरस्येति सूरयः ॥ ६२ ॥
अज्ञो जंतुरनीशो ऽयमात्मनस्सुखदुःखयोः ॥ ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा ॥ ६३ ॥
वायुदेवता बोले- महर्षियो! सर्वव्यापी चेतन का बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से पार्थक्य अवश्य है। आत्मा नामक कोई पदार्थ निश्चय ही विद्यमान है; परन्तु उसकी सत्ता में किसी हेतु की उपलब्धि बहुत ही कठिन है! सत्पुरुष बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर को आत्मा नहीं मानते; क्योंकि स्मृति (बुद्धिका ज्ञान) अनियत है तथा उसे सम्पूर्ण शरीर का एक साथ अनुभव नहीं होता। इसीलिये वेदों और वेदान्तों में आत्मा को पूर्वानुभूत विषयों का स्मरणकर्ता, सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों में व्यापक तथा अन्तर्यामी कहा जाता है। उसमें सब कुछ है और वह शाश्वत आत्मा सभी को व्याप्त करके सर्वत्र स्थित रहता है, फिर भी व्यक्तरूप में कोई भी कहीं भी उसे प्रत्यक्ष नहीं देख पाता है। यह नेत्र तथा अन्य इन्द्रियों से भी ग्राह्य नहीं है। वह महान् आत्मा ज्ञानप्रदीप्त मन से ही ग्राह्य है। यह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। न ऊपर है, न अगल-बगल में है, न नीचे है और न किसी स्थान विशेष में। यह सम्पूर्ण चल शरीरों में अविचल, निराकार एवं अविनाशीरूप से स्थित है ज्ञानी पुरुष निरन्तर विचार करने से उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर पाते हैं। बहुत कहने से क्या प्रयोजन ? आत्मा देह से पृथक् है। जो लोग इसे अपृथक् देखते हैं, उनको इसका यथार्थ ज्ञान नहीं है। पुरुष का जो वह शरीर कहा गया है, इससे बढ़कर अशुद्ध, पराधीन, दुःखमय और अस्थिर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। शरीर ही सब विपत्तियों का मूल कारण है। उससे युक्त हुआ पुरुष अपने कर्म के अनुसार सुखी, दुखी और मूढ़ होता है। जैसे पानी से सींचा हुआ खेत अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अज्ञान से आप्लावित हुआ कर्म नूतन शरीर को जन्म देता है। ये शरीर अत्यन्त दुःखों के आलय माने जाते हैं। इनकी मृत्यु अनिवार्य होती है। भूतकाल में कितने ही शरीर नष्ट हो गये और भविष्यकाल में सहस्त्रों शरीर आनेवाले हैं, वे सब आ-आकर जब जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, तब पुरुष उन्हें छोड़ देता है। कोई भी जीवात्मा किसी भी शरीरमें अनन्त कालतक रहने का अवसर नहीं पाता। कभी यह शरीरों में व्याप्त होकर निवास करता है और कभी उन्हें छोड़ देता है, जैसे चन्द्रबिम्ब आकाश में कभी चंचल मेघों से आच्छादित रहता है। और कभी मुक्त रहता है। इसकी वृत्ति देहभेद से भिन्न-भिन्न रसोंवाली होती है, जिस प्रकार पासा एक होते हुए भी पटल पर फेंके जाने पर भिन्न-भिन्न रूपों में दिखायी पड़ता है। यहाँ स्त्रियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों से जो मिलन होता है, वह पथिक को मार्ग में मिले हुए दूसरे पथिकों के समागम के ही समान है। जैसे महासागर में एक काष्ठ कहीं से और दूसरा काष्ठ कहीं से बहता आता है, वे दोनों काष्ठ कहीं थोड़ी देर के लिये मिल जाते हैं और मिलकर फिर बिछुड़ जाते हैं। उसी प्रकार प्राणियों का यह समागम भी संयोग-वियोग से युक्त है। वह [परमात्मा] शरीर [और जीवात्मा] को [तत्त्वतः] जानता है, किंतु शरीर उसे नहीं जान पाता; परमतत्त्व शरीरादि का द्रष्टा [ज्ञाता] होकर भी इनके द्वारा दृश्य अर्थात् ज्ञेय नहीं है। ब्रह्माजी से लेकर स्थावर प्राणियों तक सभी जीव पशु कहे गये हैं। उन सभी पशुओं के लिये ही यह दृष्टान्त या दर्शन शास्त्र कहा गया है। यह जीव पाशों में बँधता और सुख-दुःख भोगता है, इसलिये 'पशु' कहलाता है। यह ईश्वर की लीला का साधन भूत है, ऐसा ज्ञानी महात्मा कहते हैं। यह जीव अज्ञानी है एवं अपने सुख-दुःख को भोगन में सर्वदा परतन्त्र है। यह ईश्वर से प्रेरित होकर स्वर्ग अथवा नरक में जाता है
॥ सूत उवाच ॥
इत्याकर्ण्यानिलवचो मुनयः प्रीतमानसाः ॥ प्रोचुः प्रणम्य तं वायुं शैवागमविचक्षणम् ॥ ६४ ॥
सूतजी बोले- वायु का यह वचन सुनकर मुनिगण प्रसन्नचित्त हो गये और शैवागम में कुशल वायुदेव को प्रणाम करके कहने लगे

॥इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायां पूर्वखण्डे शिवतत्त्वज्ञानवर्णनं नाम पञ्चमो ऽध्यायः ॥

शिवपुराणम्/संहिता:७(वायवीयसंहिता)/पूर्वभागः/अध्यायः६
॥ मुनय ऊचुः ॥
यो ऽयं पशुरिति प्रोक्तो यश्च पाश उदाहृतः ॥ आभ्यां विलक्षणः कश्चित्कोयमस्ति तयोः पतिः ॥ १ ॥
मुनि बोले - हे देव! आपने पूर्व में पशु तथा पाश के विषय में बताया है, अब इन दोनों से विलक्षण तथा इन पर शासन करने वाले तत्त्व अर्थात् पशुपति के विषय में बताइये।
॥ वायुरुवाच ॥
अस्ति कश्चिदपर्यंतरमणीयगुणाश्रयः ॥ पतिर्विश्वस्य निर्माता पशुपाशविमोचनः ॥ २ ॥
अभावे तस्य विश्वस्य सृष्टिरेषा कथं भवेत् ॥ अचेतनत्वादज्ञानादनयोः पशुपाशयोः ॥ ३ ॥
प्रधानपरमाण्वादि यावत्किंचिदचेतनम् ॥ तत्कर्तृकं स्वयं दृष्टं बुद्धिमत्कारणं विना ॥ ४ ॥
जगच्च कर्तृसापेक्षं कार्यं सावयवं यतः ॥ तस्मात्कार्यस्य कर्तृत्वं पत्युर्न पशुपाशयोः ॥ ५ ॥
पशोरपि च कर्तृत्वं पत्युः प्रेरणपूर्वकम् ॥ अयथाकरणज्ञानमंधस्य गमनं यथा ॥ ६ ॥
आत्मानं च पृथङ्मत्वा प्रेरितारं ततः पृथक् ॥ असौ जुष्टस्ततस्तेन ह्यमृतत्वाय कल्पते ॥ ७ ॥
पशोः पाशस्य पत्युश्च तत्त्वतो ऽस्ति पदं परम् ॥ ब्रह्मवित्तद्विदित्वैव योनिमुक्तो भविष्यति ॥ ८ ॥
संयुक्तमेतद्द्वितयं क्षरमक्षरमेव च ॥ व्यक्ताव्यक्तं बिभर्तीशो विश्वं विश्वविमोचकः ॥ ९ ॥
भोक्ता भोग्यं प्रेरयिता मंतव्यं त्रिविधं स्मृतम् ॥ नातः परं विजानद्भिर्वेदितव्यं हि किंचनः ॥ १० ॥
वायुदेवता कहते हैं- महर्षियो! इस विश्व का निर्माण करने वाला कोई पति (परमेश्वर) है, जो अनन्त रमणीय गुणों का आश्रय कहा गया है। वही पशुओं (जीव) को पाश (जड़ प्रकृति, माया) से मुक्त करने वाला है उसके बिना संसार की सृष्टि कैसे हो सकती है; क्योंकि पशु अज्ञानी और पाश अचेतन है। प्रधान परमाणु आदि जितने भी जड़ तत्त्व हैं, उन सबका कर्ता वह पति ही है यह बात स्वयं समझ में आ जाती है। किसी बुद्धिमान् या चेतन कारण के बिना इन जड़ तत्वों का निर्माण कैसे सम्भव है। यह जगत् कर्तृसापेक्ष है; क्योंकि घटादि के समान कार्य सावयव है। अतः कार्य का कर्ता ईश्वर ही हो सकता है, पशु और पाश नहीं, पशु भी कर्ता होता है, किंतु वह ईश्वर की प्रेरणा से ही होता है, उसका यह कर्तृत्व दूसरे के आश्रय से अन्धे के चलने के समान भ्रमात्मक होता है। यह जीव जब अपने को प्रेरक ईश्वर से भिन्न मानकर उसकी उपासना करता है, तब ईश्वर से उपकृत हो जाने के कारण, वह अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है। पशु, पाश और पति का जो वास्तव में पृथकृ-पृथक स्वरूप है, उसे जानकर ही ब्रह्मवेत्ता पुरुष योनि से मुक्त होता है। क्षर और अक्षर-ये दोनों एक दूसरे से संयुक्त होते हैं। पति या महेश्वर ही व्यक्ताव्यक्त जगत्का भरण-पोषण करते हैं। वे ही जगत्‌को बन्धन से छुड़ानेवाले हैं। भोक्ता, भोग्य और प्रेरक-ये तीन ही तत्त्व जानने योग्य हैं। विज्ञ पुरुषों के लिये इनसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु जानने योग्य नहीं है।
तिलेषु वा यथा तैलं दध्नि वा सर्पिरर्पितम् ॥ यथापः स्रोतसि व्याप्ता यथारण्यां हुताशनः ॥ ११ ॥
एवमेव महात्मानमात्मन्यात्मविलक्षणम् ॥ सत्येन तपसा चैव नित्ययुक्तो ऽनुपश्यति ॥ १२ ॥
य एको जालवानीश ईशानीभिस्स्वशक्तिभिः ॥ सर्वांल्लोकानिमान् कृत्वा एक एव स ईशते ॥ १३ ॥
एक एव तदा रुद्रो न द्वितीयो ऽस्ति कश्चन ॥ संसृज्य विश्वभुवनं गोप्ता ते संचुकोच यः ॥ १४ ॥
विश्वतश्चक्षुरेवायमुतायं विश्वतोमुखः ॥ तथैव विश्वतोबाहुविश्वतः पादसंयुतः ॥ १५ ॥
द्यावाभूमी च जनयन् देव एको महेश्वरः ॥ स एव सर्वदेवानां प्रभवश्चोद्भवस्तथा ॥ १६ ॥
हिरण्यगर्भं देवानां प्रथमं जनयेदयम् ॥ विश्वस्मादधिको रुद्रो महर्षिरिति हि श्रुतिः ॥ १७ ॥
वेदाहमेतं पुरुषं महांतममृतं ध्रुवम् ॥ आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्संस्थितं प्रभुम् ॥ १८ ॥
अस्मान्नास्ति परं किंचिदपरं परमात्मनः ॥ नाणीयो ऽस्ति न च ज्यायस्तेन पूर्णमिदं जगत् ॥ १९ ॥
जिस प्रकार तिल में तेल, दही में घृत, स्त्रोत में जल तथा अरणि में अग्नि व्याप्त रहती है, उसी प्रकार विलक्षण महान् आत्मा को सत्य एवं तप से नित्ययुक्त व्यक्ति अपने में सतत देखता है। इन्द्रजाल के समान एक ही ईश्वर वश में करने वाली अपनी माया शक्तियों से इन सभी लोकों को वश में करके अपना ऐश्वर्य विस्तार करता है। सृष्टिके आरम्भमें एक ही रुद्रदेव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता। वे ही इस जगत्‌ की सृष्टि करके इसकी रक्षा करते हैं और अन्त में सबका संहार कर डालते हैं। उनके सब ओर नेत्र हैं, सब ओर मुख हैं, सब ओर भुजाएँ हैं और सब ओर चरण हैं। वे ही एक महेश्वर देव द्यौ तथा पृथ्वीको उत्पन्न करते हैं और वे ही सम्पूर्ण देवगणों को उत्पन्न करते हैं तथा उनकी अभिवृद्धि करते हैं। ये ही सबसे पहले देवताओं में ब्रह्माजी को उत्पन्न करते हैं। श्रुति कहती है कि 'रुद्रदेव सबसे श्रेष्ठ महान् ऋषि हैं। मैं इन महान् अमृतस्वरूप अविनाशी पुरुष परमेश्वर को जानता हूँ। इनकी अंगकान्ति सूर्य के समान है। ये प्रभु अज्ञानान्धकार से परे विराजमान हैं। इन परमात्मा से परे दूसरी कोई वस्तु नहीं है। इनसे अत्यन्त सूक्ष्म और इनसे अधिक महान् भी कुछ नहीं है। इनसे यह सारा जगत् परिपूर्ण है।
सर्वाननशिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः ॥ सर्वव्यापी च भगवांस्तस्मात्सर्वगतश्शिवः ॥ २० ॥
सर्वतः पाणिपादो ऽयं सर्वतो ऽक्षिशिरोमुखः ॥ सर्वतः श्रुतिमांल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ २१ ॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासस्सर्वेन्द्रियविवर्जितः ॥ सर्वस्य प्रभुरीशानः सर्वस्य शरणं सुहृत् ॥ २२ ॥
अचक्षुरपि यः पश्यत्यकर्णो ऽपि शृणोति यः ॥ सर्वं वेत्ति न वेत्तास्य तमाहुः पुरुषं परम् ॥ २३ ॥
अणोरणीयान्महतो महीयानयमव्ययः ॥ गुहायां निहितश्चापि जंतोरस्य महेश्वरः ॥ २४ ॥
उन परमात्मा रुद्र के मुख, सिर और ग्रीवा सर्वत्र व्याप्त हैं, सभी प्राणियों के हृदयस्थल में वे स्थित हैं, वे सर्वव्यापी, सर्वगत, ऐश्वर्यशाली एवं शिवस्वरूप हैं। इनके सब ओर हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक, मुख और कान हैं। ये लोक में सबको व्याप्त करके स्थित हैं ये सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाले हैं, परंतु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित हैं। सबके स्वामी, शासक, शरणदाता और सुहृद् हैं। ये नेत्र के बिना भी देखते हैं और कान के बिना भी सुनते हैं। ये सबको जानते हैं, किंतु इनको पूर्णरूप से जानने वाला कोई नहीं है। इन्हें परम पुरुष कहते हैं। ये अणु से भी अत्यन्त अणु और महान्से भी परम महान् हैं। ये अविनाशी महेश्वर इस जीव की हृदय-गुफा में निवास करते हैं।
तमक्रतुं क्रतुप्रायं महिमातिशयान्वितम् ॥ धातुः प्रसादादीशानं वीतशोकः प्रपश्यति ॥ २५ ॥
वेदाहमेनमजरं पुराणं सर्वगं विभुम् ॥ निरोधं जन्मनो यस्य वदंति ब्रह्मवादिनः ॥ २६ ॥
एको ऽपि त्रीनिमांल्लोकान् बहुधा शक्तियोगतः ॥ विदधाति विचेत्यंते विश्वमादौ महेश्वरः ॥ २७ ॥
उस यज्ञरहित, यज्ञस्वरूप, अतिशय महिमावाले जगन्नियन्ता [परमात्मा] को उसी परमात्मा की कृपा से शोकरहित हुआ पुरुष देख पाता है। मैं उस जरारहित, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञ पुराण पुरुष को जानता हूँ, जिसके ध्यान से जन्म, मरणादिका निरोध हो जाता है- ऐसा ब्रह्मवेत्ता लोग कहते हैं। वे अकेले महेश्वर ही सर्वप्रथम अपनी शक्ति के साथ मिलकर बहुत प्रकार से इन तीनों लोकों की सृष्टि करते हैं और अन्त में उसका संहार भी करते हैं।

शैवागम के अनुसार पाशुपत ज्ञान तथा उसके साधनों का वर्णन : शिवपुराणम्/संहिता:७(वायवीयसंहिता)/पूर्वभागः/अध्यायः३२

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पशुपतिश्वर महादेव, पशुपतिश्वर गली, नंदन साहू लेन, सी.के.13/66 में स्थित है।
Pashupatishwar Mahadev is located at Pashupatishwar Gali, Nandan Sahu Lane, CK 13/66.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥



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