विद्यानां सदनं काशी काशी लक्ष्म्याः परालयः । मुक्तिक्षेत्रमिदं काशी काशी सर्वा त्रयीमयी ॥१२१॥
इति श्रुत्वा मुनिवरः पाराशर्यो महातपाः । एवं बभाषे ताञ्शिष्यान्पुनःश्लोकं पठंत्वमुम् ॥१२२॥
काशीक्षेत्र विद्या की जन्मभूमि है। यह लक्ष्मी का चिरन्तन आवास स्थल है तथा यह काशी मुक्तिक्षेत्र है। यह त्रयीमयी है। महातपा पाराशर्य व्यास ने शिष्यों का कथन सुनकर उनसे अंतिम श्लोक पुनः पढ़ने के लिये कहा।
॥ शिष्या ऊचुः ॥
विद्यानां चाश्रयः काशी काशी लक्ष्म्याः परालयः । मुक्तिक्षेत्रमिदं काशी काशी सर्वा त्रयीमयी ॥१२३॥
शिष्य कहते हैं : यह काशीक्षेत्र विद्या की जन्मस्थली है, लक्ष्मी का चिरन्तन आवासस्थल है। यह त्रयीमयी काशी सदा मुक्तिक्षेत्र है।
॥ स्कंद उवाच ॥
निशम्येति तदा व्यासः क्रोधांधीकृतलोचनः । क्षुत्कृशानुज्वलन्मूर्तिः काशीं शप्स्यति कुंभज ॥१२४॥
स्कन्ददेव कहते हैं : हे अगस्त्य! उस समय महर्षि व्यास क्षुधा-पिपासा से पीड़ित थे, अतः उन्होंने शिष्यों का यह वाक्य सुनकर अत्यन्त क्रोध से काशी को अभिशाप दिया।
॥ व्यास उवाच ॥
मा भूत्त्रैपूरुषीविद्या मा भूत्त्रैपूरुषं धनम् । मा भूत्त्रैपृरुषी मुक्तिः काशीं व्यासः शपन्निति ॥१२५॥
गर्वः परोत्र विद्यानां धनगर्वोत्र वै महान् । मुक्तिगर्वेण नो भिक्षां प्रयच्छंत्यत्र वासिनः ॥१२६॥
इति कृत्वा मतिं व्यासः काश्यां शापमदात्तदा । दत्त्वापि शापं स मुनिर्भिक्षितुं क्रोधवान्ययौ ॥१२७॥
प्रतिगेहं त्वरायुक्तः प्रविशन्व्योमदत्तदृक् । बभ्राम नगरीं सर्वां क्वापि भैक्षं न लब्धवान् ॥१२८॥
अंशुमालिनमावीक्ष्य मनाग्लोहितमंडलम् । भिक्षापात्रं परिक्षिप्य निर्ययावाश्रमं प्रति ॥१२९॥
व्यासदेव कहते हैं : “जिस कारण यहां काशी के विद्वान् विद्यागर्व के कारण, धनी धनगर्व के कारण, कृती लोग मुक्तिगर्व के कारण भिक्षुक को भिक्षा देने में अहवेलना करते हैं, इस पाप के कारण यहां की विद्या, धन तथा मुक्ति तीन अगली पीढ़ी तक ही रहेगी।” वे यह शाप देकर नगरी में अपनी क्षुधा ज्वाला के कारण पुनः भिक्षार्थ निकले। समस्त नगर घूमने पर भी उनको कुछ नहीं मिला। इसलिये नितान्त क्षुब्ध मन से लौटते समय अस्तोन्मुख दिवाकर को देखकर अपना भिक्षापात्र ही दूर फेंक दिया, तदनन्तर अपने आश्रम लौटने लगे।
अथ गच्छन्महादेव्या गृहद्वारि निषण्णया । प्राकृतस्त्रीस्वरूपिण्या भिक्षायै प्रार्थितोतिथिः ॥१३०॥
मार्ग में भगवती पार्वती ने सामान्य मानवी गृहिणी का रूप धारण किया। वे एक घर के द्वार पर खड़ी होकर व्यास से अपने गृह का अतिथि होने की प्रार्थना करती कहने लगीं : -
॥ गृहिण्युवाच ॥
भगवन्भिक्षुकास्तावदद्य दृष्टा न कुत्रचित् । असत्कृत्यातिथिं नाथो न मे भोक्ष्यति कर्हिचित् ॥ १३१ ॥
वैश्वदेवादिकं कर्म कृत्वा गृहपतिर्मम । प्रतीक्षेतातिथिपथं तस्मात्त्वमतिथिर्भव ॥ १३२ ॥
विनातिथि गृहस्थोयस्त्वन्नमेको निषेवते । निषेवतेऽघं स परं सहितः स्वपितामहैः ॥ १३३ ॥
तस्मात्त्वरितमायाहि कुरु मे पत्युरीहितम् । गार्हस्थ्यं सफलं कर्तुमिच्छतोऽतिथिपूजनात् ॥ १३४ ॥
“हे प्रभो! आज खोजने पर भी कोई भिक्षुक नहीं मिला। अतिथि को भोजन कराये बिना मेरे स्वामी आहार ग्रहण नहीं करते। उन्होंने कुछ समय पूर्व ही वैश्वदेवादि कार्य सम्पन्न कर दिया तथा अतिथि की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अतः अब आपको अतिथि होना पड़ेगा। जो अतिथि को भोजन प्रदान किये बिना भोजन करता है, वे अपने पूर्वजों के साथ पेट में पापराशि ही संचित करता है। अब आप दयापूर्वक शीघ्र मेरे गृह में आकर मेरे पति का गृहस्थ धर्म पूर्ण करिये जिससे वे अतिथि पूजन कर सकें तथा इस प्रकार हमें कृतार्थ करिये।” यह सुनकर व्यासदेव का क्रोध शान्त हो गया तथा वे विस्मित होकर कहने लगे।
॥ व्यास उवाच ॥
यः स्वार्थसिद्धिमलभन्नभाग्याच्छपति क्रुधा । स शापः प्रत्युत भवेच्छप्तुरेवाविवेकिनः ॥ १८७ ॥
व्यासदेव कहते हैं : जो व्यक्ति अदृष्ट के कारण अपना प्रयोजन सिद्ध न होते देखकर क्रोधपूर्वक शाप देता है, उस शाप का पाप उसी विवेकरहित व्यक्ति को होगा।
॥ गृहस्थ उवाच ॥ ॥
भवता भ्रमता विप्र नाप्ताभिक्षा यदाप्यहो । तदापराद्धं किमिह वराकैः क्षेत्रवासिभिः ॥ १८८ ॥
तपस्विञ्शृणु मे वाक्यं राजधान्यां ममेह यः । ऋद्धिं द्रष्टुं न शक्नोति परिशप्तः स एव हि ॥ १८९ ॥
अद्य प्रभृति न क्षेत्रे मदीये शापवर्जिते । आवस क्रोधन मुने न वासे योग्यतात्र ते ॥ ११९० ॥
इदानीमेव निर्गच्छ बहिः क्षेत्रादितो भव । त्वद्विधानां न योग्यं मे क्षेत्रं मोक्षैकसाधनम् ॥ १९१ ॥
अत्राल्पमपि यद्दौष्ट्यं कृतं मत्क्षेत्रवासिनाम् । तद्दौष्ट्यस्य परीपाको रुद्रपैशाच्यमेव हि ॥ १९२ ॥
गृहस्थ (महादेव) कहते हैं : हे द्विजप्रवर! अपने अभाग्य के कारण आपने कहीं भी भिक्षा नहीं पाया, तथापि आपका उन निदषि क्षेत्रवासियों ने क्या अपराध किया था? हे तपोधन! मेरी इस नगरी की सम्पदा जिनके आंखों को शूलरूप से खलती है, उन पर ही अभिशाप का आक्रमण होता है। हे क्रोधी स्वभाव! आप इस शापरहित (अर्थात काशी पर श्राप नहीं लगता) क्षेत्र में रहने योग्य नहीं हैं। अतः आप शीघ्र यहां से चले जायें। आप इसी मुहूर्त क्षेत्र के बाहर चले जायें। आप इस मोक्षक्षेत्र काशी में निवास करने योग्य नहीं हैं। काशी में जो काशीवासी लोगों पर अत्याचार करता है, वह अपने इस कृतकार्य के कारण रुद्रपिशाच होता है। (आप शीघ्र अपने शिष्यों को बुलाकर सूर्यास्त के पहले ही यहां से चले जाईये।)
तच्छ्रुत्वा वेपमानः स परिशुष्कौष्ठतालुकः । जगाम शरणं गौरीं लुठंस्तच्चरणाग्रतः ॥ १९३ ॥
उवाच च वचो मातस्त्राहि त्राहि भृशं रुदन् । अनाथस्त्वत्सनाथोहं बालिशस्तव बालकः ॥ १९४ ॥
शरणागतं च संत्राहि रक्ष मां शरणागतम् । बहूनामागसां गेहमस्माकं दुष्टमानसम्॥ १९५ ॥
शंभुशापोऽन्यथाकर्तुं भवत्यापि न शक्यते । अहं च शरणायातस्तदेकं क्रियतां शिवे ॥ १९६ ॥
प्रत्यष्टमि सदा क्षेत्रे प्रतिभूतं च पार्वति । दिश प्रवेशनादेशं नेशस्त्वद्वाक्यलंघकः ॥ १९७ ॥
व्यासदेव यह सब सुनकर कांपने लगे। उनके ओष्ठ तथा तालु सूख गये। वे रोते-रोते भवानी के चरणों पर गिरकर शरणागत हो गये। तदनन्तर उन्होंने रोते हुये कहा--“हे माता! रक्षा करने वाली! इस अनाथ की रक्षा करिये! हे माता! आपका यह सन्तान नितान्त मूर्ख है। मैं शरण में हूं। मेरी रक्षा करिये। मेरा चित्त पापराशि से पूर्ण है। शिवशाप अन्यथा करने की क्षमता किसी में भी नहीं है। हे माता! आप शरणागत के प्रति करुणा करके एक उपाय करिये। जिससे दास को प्रति अष्टमी तथा चतुर्दशी तिथि के दिन काशी प्रवेश की अनुमति मिले। आपका वाक्य महादेव कभी नहीं टालते। यह मुझे ज्ञात है। आपके बिना शंभुशाप को कोई व्यर्थ नहीं कर सकता।