Saraswati of Kashi Established By Adi Shankaracharya (आदिशंकराचार्य द्वारा काशी में मां सरस्वती की प्रतिष्ठा एवं स्थान का सरस्वती द्वार के नाम से काशीवासियों में प्रचलित होना...)

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काशी विश्वनाथ धाम निर्माण के समय जीर्णावस्था में, माता सरस्वती का आदिशंकराचार्य कालीन विग्रह। 

आदि शंकराचार्य ने पूरे भारत में मंदिरों और शक्तिपीठों की पुनः स्थापना की। नील पर्वत पर स्थित चंडी देवी मंदिर इन्हीं द्वारा स्थापित माना जाता है। शिवालिक पर्वत शृंखला की पहाड़ियों के मध्य स्थित माता शाकंभरी देवी शक्तिपीठ में जाकर इन्होंने पूजा अर्चना की और शाकंभरी देवी के साथ तीन देवियां भीमा, भ्रामरी और शताक्षी देवी की प्रतिमाओं को स्थापित किया। कामाक्षी देवी मंदिर भी इन्हीं द्वारा स्थापित है। 

आदिशंकराचार्य द्वारा काशी में मां सरस्वती की प्रतिष्ठा : आदि शंकराचार्य कुछ मास पर्यन्त काशी में रहे। काशी में जिन-जिन स्थानों पर शंकराचार्य रहे वहां आज भी शंकराचार्य मंदिर एवं मठ विद्यमान है। देव विग्रहों के स्थापना क्रम में आदिशंकराचार्य द्वारा काशी में मां सरस्वती का विग्रह शुक्ल पक्ष की पंचमी को प्राण प्रतिष्ठित है। जिस स्थान पर यह प्रतिष्ठा की गयी वह स्थान सरस्वती द्वार (फाटक) के नाम से काशीवासियों में प्रचलित हुआ। प्रत्येक मास की शुक्लपक्ष पंचमी एवं विशेषतः वसंत पंचमी पर दर्शन-पूजन की परंपरा सरस्वती द्वार पर सतत रही है। काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर निर्माण के समय माता सरस्वती के आदिशंकराचार्य कालीन विग्रह को मूल स्थान से विस्थापित कर दिया गया है।

देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः९/अध्यायः४
आदौ सरस्वतीपूजा श्रीकृष्णेन विनिर्मिता ॥
यत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ मूर्खो भवति पण्डितः ॥
आविर्भूता यथा देवी वक्त्रतः कृष्णयोषितः ॥
सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने कृष्णवल्लभा राधा के मुख से प्रकट हुई सरस्वती की पूजा प्रारम्भ की, जिनकी कृपा से मूर्ख भी बृहस्पति (विद्वान्) हो जाता है। [एवं ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)/अध्यायः ४]

॥ शारदा स्तुति

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं । वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् 

हस्ते स्फाटिकमालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थितां । वन्दे ताम् परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् 

जिनका रूप श्वेत है, जो ब्रह्मविचार की परम तत्व हैं, जो सब संसार में फैले रही हैं, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिकमणि की माला लिए रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान होती हैं और बुद्धि देनेवाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ।

सरस्वति नमौ नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम: । वेदवेदान्तवेदाङ्गविद्यास्थानेभ्य एव च 

सरस्वती को नित्य नमस्कार है, भद्रकाली को नमस्कार है और वेद, वेदान्त, वेदांग तथा विद्याओं के स्थानों को प्रणाम है।

सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने । विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोऽस्तु ते 

हे महाभाग्यवती ज्ञानरूपा कमल के समान विशाल नेत्र वाली, ज्ञानदात्री सरस्वती ! मुझको विद्या दो, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

मोहान्धकारभरिते ह्रदये मदीये मात: सदैव कुरु वासमुदारभावे । 

स्वीयाखिलावयवनिर्मलसुप्रभाभि: शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् 

हे उदार बुद्धिवाली माँ! मोहरूपी अन्धकार से भरे मेरे हृदय में सदा निवास करो और अपने सब अंगो की निर्मल कान्ति से मेरे मन के अन्धकार का शीघ्र नाश करो।

सरस्वतीद्वादशनामावलिः

ॐ ऐं भारत्यै नमः । ॐ सरस्वत्यै नमः । ॐ शारदायै नमः । ॐ हंसवाहिन्यै नमः । ॐ जगतिख्यातायै नमः । ॐ वाणीश्वर्यै नमः । ॐ कौमार्यै नमः । ॐ ब्रह्मचारिण्यै नमः । ॐ बुद्धिदात्र्यै नमः । ॐ वरदायिन्यै नमः । ॐ क्षुद्रघण्टायै नमः । ॐ भुवनेश्वर्यै नमः । 
 इति सरस्वतीद्वादशनामावलिः समाप्ता 

काशी में आदि शंकराचार्य द्वारा माता सरस्वती के विग्रह प्रतिष्ठा की अनिवार्यता....

विष्णु पुराण के अनुसार अब तक २८ वेद व्यास हो गए हैं। कूर्म पुराण में भी वैवस्त मन्वतर के २८ द्वापर युगों के २८ व्यासों का उल्लेख है। “वेदव्यास” किसी व्यक्ति विशेष का नाम है ही नहीं अपितु वेदव्यास”,एक पद अथवा उपाधि है। वर्तमान वेदव्यास का नाम कृष्ण द्वैपायन है। द्वापर युग में महर्षि पराशर से निषाद-कन्या ‘सत्यवती’ ने एक पुत्र को जन्म दिया। चूंकि उस बालक का जन्म एक द्वीप पर हुआ था और जन्म के समय उसका रंग सांवला (कृष्ण-वर्ण) था तो उसका नाम हुआ, कृष्ण द्वैपायन। यही बालक कृष्ण द्वैपायन,आगे चलकर २८वां वेदव्यास कहलाया। 

विष्णु पुराण के अनुसार, मनुष्य का बल और तेज इतना अल्प है कि उसके लिए वेदों को समझना संभव नहीं है। इसलिए प्रत्येक द्वापर युग में भगवान विष्णु स्वयं वेदव्यास के रूप में अंश अवतार लेते हैं और समस्त प्राणियों के हित के लिए वेदों का विभाजन करते हैं। भगवान, जिस रूप में इस बृहत कार्य को संपन्न करते हैं, उसी रूप का नाम वेदव्यास है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः ४ (काशीखण्डः)/अध्यायः ९४
॥ स्कंद उवाच ॥
शृण्वगस्त्य महाभाग भविष्यं कथयाम्यहम् ॥
कृष्णद्वैपायनो व्यासोऽकथयद्यन्महद्वचः ॥
निश्चिकेतुमनाः पश्चाद्यत्करिष्यति तच्छृणु ॥५६॥
स्कन्ददेव कहते हैं : हे महात्मा अगस्त्य! भविष्य में महर्षि व्यास तथा उनके शिष्यों के बीच जो संवाद होगा, वह कहता हूं। उसे सुनिये।
स्कन्दपुराणम्/खण्डः ४ (काशीखण्डः) / अध्यायः ९५
॥ व्यास उवाच ॥
शृणु सूत महाबुद्धे यथा स्कंदेन भाषितम् । भविष्यं मम तस्याग्रे कुंभयोने महामते ॥१॥
व्यासदेव कहते हैं : हे मतिमान्‌ सूत! सर्वज्ञ स्कन्द ने अगस्त्य से जो मेरा भविष्य वर्णन किया था, उसे सुनो।
स्कन्दपुराणम् / खण्डः ४ (काशीखण्डः) / अध्यायः ९६
विद्यानां सदनं काशी काशी लक्ष्म्याः परालयः । मुक्तिक्षेत्रमिदं काशी काशी सर्वा त्रयीमयी ॥१२१॥
इति श्रुत्वा मुनिवरः पाराशर्यो महातपाः । एवं बभाषे ताञ्शिष्यान्पुनःश्लोकं पठंत्वमुम् ॥१२२॥
काशीक्षेत्र विद्या की जन्मभूमि है। यह लक्ष्मी का चिरन्तन आवास स्थल है तथा यह काशी मुक्तिक्षेत्र है। यह त्रयीमयी है। महातपा पाराशर्य व्यास ने शिष्यों का कथन सुनकर उनसे अंतिम श्लोक पुनः पढ़ने के लिये कहा।
॥ शिष्या ऊचुः ॥
विद्यानां चाश्रयः काशी काशी लक्ष्म्याः परालयः । मुक्तिक्षेत्रमिदं काशी काशी सर्वा त्रयीमयी ॥१२३॥
शिष्य कहते हैं : यह काशीक्षेत्र विद्या की जन्मस्थली है, लक्ष्मी का चिरन्तन आवासस्थल है। यह त्रयीमयी काशी सदा मुक्तिक्षेत्र है।
॥ स्कंद उवाच ॥
निशम्येति तदा व्यासः क्रोधांधीकृतलोचनः । क्षुत्कृशानुज्वलन्मूर्तिः काशीं शप्स्यति कुंभज ॥१२४॥
स्कन्ददेव कहते हैं : हे अगस्त्य! उस समय महर्षि व्यास क्षुधा-पिपासा से पीड़ित थे, अतः उन्होंने शिष्यों का यह वाक्य सुनकर अत्यन्त क्रोध से काशी को अभिशाप दिया।
॥ व्यास उवाच ॥
मा भूत्त्रैपूरुषीविद्या मा भूत्त्रैपूरुषं धनम् । मा भूत्त्रैपृरुषी मुक्तिः काशीं व्यासः शपन्निति ॥१२५॥
गर्वः परोत्र विद्यानां धनगर्वोत्र वै महान् । मुक्तिगर्वेण नो भिक्षां प्रयच्छंत्यत्र वासिनः ॥१२६॥
इति कृत्वा मतिं व्यासः काश्यां शापमदात्तदा । दत्त्वापि शापं स मुनिर्भिक्षितुं क्रोधवान्ययौ ॥१२७॥
प्रतिगेहं त्वरायुक्तः प्रविशन्व्योमदत्तदृक् । बभ्राम नगरीं सर्वां क्वापि भैक्षं न लब्धवान् ॥१२८॥
अंशुमालिनमावीक्ष्य मनाग्लोहितमंडलम् । भिक्षापात्रं परिक्षिप्य निर्ययावाश्रमं प्रति ॥१२९॥
व्यासदेव कहते हैं : “जिस कारण यहां काशी के विद्वान्‌ विद्यागर्व के कारण, धनी धनगर्व के कारण, कृती लोग मुक्तिगर्व के कारण भिक्षुक को भिक्षा देने में अहवेलना करते हैं, इस पाप के कारण यहां की विद्या, धन तथा मुक्ति तीन अगली पीढ़ी तक ही रहेगी।” वे यह शाप देकर नगरी में अपनी क्षुधा ज्वाला के कारण पुनः भिक्षार्थ निकले। समस्त नगर घूमने पर भी उनको कुछ नहीं मिला। इसलिये नितान्त क्षुब्ध मन से लौटते समय अस्तोन्मुख दिवाकर को देखकर अपना भिक्षापात्र ही दूर फेंक दिया, तदनन्तर अपने आश्रम लौटने लगे।
अथ गच्छन्महादेव्या गृहद्वारि निषण्णया । प्राकृतस्त्रीस्वरूपिण्या भिक्षायै प्रार्थितोतिथिः ॥१३०॥
मार्ग में भगवती पार्वती ने सामान्य मानवी गृहिणी का रूप धारण किया। वे एक घर के द्वार पर खड़ी होकर व्यास से अपने गृह का अतिथि होने की प्रार्थना करती कहने लगीं : -
॥ गृहिण्युवाच ॥
भगवन्भिक्षुकास्तावदद्य दृष्टा न कुत्रचित् । असत्कृत्यातिथिं नाथो न मे भोक्ष्यति कर्हिचित् ॥ १३१ ॥
वैश्वदेवादिकं कर्म कृत्वा गृहपतिर्मम । प्रतीक्षेतातिथिपथं तस्मात्त्वमतिथिर्भव ॥ १३२ ॥
विनातिथि गृहस्थोयस्त्वन्नमेको निषेवते । निषेवतेऽघं स परं सहितः स्वपितामहैः ॥ १३३ ॥
तस्मात्त्वरितमायाहि कुरु मे पत्युरीहितम् । गार्हस्थ्यं सफलं कर्तुमिच्छतोऽतिथिपूजनात् ॥ १३४ ॥
“हे प्रभो! आज खोजने पर भी कोई भिक्षुक नहीं मिला। अतिथि को भोजन कराये बिना मेरे स्वामी आहार ग्रहण नहीं करते। उन्होंने कुछ समय पूर्व ही वैश्वदेवादि कार्य सम्पन्न कर दिया तथा अतिथि की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अतः अब आपको अतिथि होना पड़ेगा। जो अतिथि को भोजन प्रदान किये बिना भोजन करता है, वे अपने पूर्वजों के साथ पेट में पापराशि ही संचित करता है। अब आप दयापूर्वक शीघ्र मेरे गृह में आकर मेरे पति का गृहस्थ धर्म पूर्ण करिये जिससे वे अतिथि पूजन कर सकें तथा इस प्रकार हमें कृतार्थ करिये।” यह सुनकर व्यासदेव का क्रोध शान्त हो गया तथा वे विस्मित होकर कहने लगे।
॥ व्यास उवाच ॥
यः स्वार्थसिद्धिमलभन्नभाग्याच्छपति क्रुधा । स शापः प्रत्युत भवेच्छप्तुरेवाविवेकिनः ॥ १८७ ॥
व्यासदेव कहते हैं : जो व्यक्ति अदृष्ट के कारण अपना प्रयोजन सिद्ध न होते देखकर क्रोधपूर्वक शाप देता है, उस शाप का पाप उसी विवेकरहित व्यक्ति को होगा
॥ गृहस्थ उवाच ॥ ॥
भवता भ्रमता विप्र नाप्ताभिक्षा यदाप्यहो । तदापराद्धं किमिह वराकैः क्षेत्रवासिभिः ॥ १८८ ॥
तपस्विञ्शृणु मे वाक्यं राजधान्यां ममेह यः । ऋद्धिं द्रष्टुं न शक्नोति परिशप्तः स एव हि ॥ १८९ ॥
अद्य प्रभृति न क्षेत्रे मदीये शापवर्जिते । आवस क्रोधन मुने न वासे योग्यतात्र ते ॥ ११९० ॥
इदानीमेव निर्गच्छ बहिः क्षेत्रादितो भव । त्वद्विधानां न योग्यं मे क्षेत्रं मोक्षैकसाधनम् ॥ १९१ ॥
अत्राल्पमपि यद्दौष्ट्यं कृतं मत्क्षेत्रवासिनाम् । तद्दौष्ट्यस्य परीपाको रुद्रपैशाच्यमेव हि ॥ १९२ ॥
गृहस्थ (महादेव) कहते हैं : हे द्विजप्रवर! अपने अभाग्य के कारण आपने कहीं भी भिक्षा नहीं पाया, तथापि आपका उन निदषि क्षेत्रवासियों ने क्या अपराध किया था? हे तपोधन! मेरी इस नगरी की सम्पदा जिनके आंखों को शूलरूप से खलती है, उन पर ही अभिशाप का आक्रमण होता है। हे क्रोधी स्वभाव! आप इस शापरहित (अर्थात काशी पर श्राप नहीं लगताक्षेत्र में रहने योग्य नहीं हैं। अतः आप शीघ्र यहां से चले जायें। आप इसी मुहूर्त क्षेत्र के बाहर चले जायें। आप इस मोक्षक्षेत्र काशी में निवास करने योग्य नहीं हैं। काशी में जो काशीवासी लोगों पर अत्याचार करता है, वह अपने इस कृतकार्य के कारण रुद्रपिशाच होता है। (आप शीघ्र अपने शिष्यों को बुलाकर सूर्यास्त के पहले ही यहां से चले जाईये।)
तच्छ्रुत्वा वेपमानः स परिशुष्कौष्ठतालुकः । जगाम शरणं गौरीं लुठंस्तच्चरणाग्रतः ॥ १९३ ॥
उवाच च वचो मातस्त्राहि त्राहि भृशं रुदन् । अनाथस्त्वत्सनाथोहं बालिशस्तव बालकः ॥ १९४ ॥
शरणागतं च संत्राहि रक्ष मां शरणागतम् । बहूनामागसां गेहमस्माकं दुष्टमानसम्॥ १९५ ॥
शंभुशापोऽन्यथाकर्तुं भवत्यापि न शक्यते । अहं च शरणायातस्तदेकं क्रियतां शिवे ॥ १९६ ॥
प्रत्यष्टमि सदा क्षेत्रे प्रतिभूतं च पार्वति । दिश प्रवेशनादेशं नेशस्त्वद्वाक्यलंघकः ॥ १९७ ॥
व्यासदेव यह सब सुनकर कांपने लगे। उनके ओष्ठ तथा तालु सूख गये। वे रोते-रोते भवानी के चरणों पर गिरकर शरणागत हो गये। तदनन्तर उन्होंने रोते हुये कहा--“हे माता! रक्षा करने वाली! इस अनाथ की रक्षा करिये! हे माता! आपका यह सन्तान नितान्त मूर्ख है। मैं शरण में हूं। मेरी रक्षा करिये। मेरा चित्त पापराशि से पूर्ण है। शिवशाप अन्यथा करने की क्षमता किसी में भी नहीं है। हे माता! आप शरणागत के प्रति करुणा करके एक उपाय करिये। जिससे दास को प्रति अष्टमी तथा चतुर्दशी तिथि के दिन काशी प्रवेश की अनुमति मिले। आपका वाक्य महादेव कभी नहीं टालते। यह मुझे ज्ञात है। आपके बिना शंभुशाप को कोई व्यर्थ नहीं कर सकता।


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आदिशंकराचार्य द्वारा काशी में प्रतिष्ठित मां सरस्वती, सरस्वती द्वार (फाटक) पर स्थित है।
Maa Saraswati, revered by Adi Shankaracharya in Kashi, is located at the Saraswati Fatak.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                        

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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