Tripurantakeshwar (त्रिपुरांतकेश्वर - द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं ६८ आयतन लिंग, काशीखण्ड)

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Tripurantakeshwar
त्रिपुरांतकेश्वर

काशी का श्रीगिरी (सिगरा) क्षेत्र : श्रीशैल प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में श्रीपर्वत या श्रीगिरी के नाम से भी प्रसिद्ध है। श्रीगिरी (श्रीशैल) का अपभ्रंश ही वर्तमान वाराणसी (2080 नल, विक्रम सम्वत) का सिगरा क्षेत्र है। अर्थात श्रीगिरी का सिगरा, यह काशी का श्रीगिरी (श्रीपर्वत या श्रीशैल) क्षेत्र है।


स्कंदपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण एवं अन्य पुराणों में भगवान शिव के ६८ दिव्य लिंग एवं अतिपुण्य पवित्र क्षेत्र वर्णित है। यह अतिपुण्य पवित्र क्षेत्र भारतवर्ष के चारो ओर फैले हैं। जिनमे से कुछ सुलभ, कुछ दुर्लभ, कुछ गुप्त एवं कुछ अत्यंत गुह्य है। इन सब का सम्पूर्ण दर्शन अत्यंत दुष्कर है। परम विद्वान् एवं नित्य तीर्थाटन करने वाले भक्तों को भी ये ६८ आयतन दर्शन दुर्लभ हैं। परन्तु धन्य है काशी जहाँ इन ६८ आयतन लिंगों ने स्वयं को वाराणसी में प्रकट कर काशी वासियों के लिये सर्वथा सुलभ कर दिया है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः ६ (नागरखण्डः)/अध्यायः १०९
यमलिंगं च दुष्कर्णे कपाली करवीरके ॥ जागेश्वरे त्रिशूली च श्रीशैले त्रिपुरांतकम् ॥ १६ ॥
दुष्कर्ण में यमलिंग; करवीर में कपाली; जागेश्वर में त्रिशूली; और श्रीशैल में त्रिपुरान्तक प्रमुख लिंग हैं।

शिवपुराणम्/संहिता_३_(शतरुद्रसंहिता)/अध्यायः ४२

॥ नन्दीश्वर उवाच ॥

अवताराञ्छृणु विभोर्द्वादशप्रमितान्परान् । ज्योतिर्लिङ्गस्वरूपान्वै नानोति कारकान्मुने ॥१॥

नन्दीश्वर जी बोले : हे सनकादि (सनक, सनन्दन, सनातन व सनत्कुमार) मुनियों! अब अनेक प्रकारकी लीला करने वाले परमात्मा शिवजी के ज्योतिर्लिंग रूप द्वादश संख्यक अवतारों को सुनिये :

सौराष्ट्रे सोमनाथश्च श्रीशैले मल्लिकार्जुनः । उज्जयिन्यां महाकाल ओंकारे चामरेश्वरः ॥२॥

केदारो हिमव त्पृष्टे डाकिन्याम्भीमशंकरः । वाराणस्यां च विश्वेशस्त्र्यम्बको गौतमीतटे ॥३॥

वैद्यनाथश्चिताभूमौ नागेशो दारुकावने । सेतुबन्धे च रामेशो घुश्मेशश्च शिवालये ॥४॥

सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन, उज्जयिनी में महाकाल, ॐकार में अमरेश्वर, हिमालय पर केदारेश्वर, डाकिनी में भीमशंकर, काशी में विश्वनाथ, गौतमी तट पर त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुका वन में नागेश्वर, सेतुबन्ध में रामेश्वर एवं शिवालय में घुश्मेश्वर- ये बारह शिवजी के ज्योतिर्लिंगस्वरूप अवतार हैं।

अवतारद्वादशकमेतच्छम्भोः परात्मनः । सर्वानन्दकरं पुंसान्दर्शनात्स्पर्शनान्मुने॥५॥

हे मुनियों! ये परमात्मा शिव के बारह ज्योतिर्लिंगावतार दर्शन तथा स्पर्श से पुरुषों का कल्याण करने वाले हैं।

मल्लिकार्जुनसंज्ञश्चावतारश्शंकरस्य वै । द्वितीयः श्रीगिरौ तात भक्ताभीष्टफलप्रदः ॥१०॥

संस्तुतो लिंगरूपेण सुतदर्शनहेतुतः । गतस्तत्र महाप्रीत्या स शिवः स्वगिरेर्मुने ॥११॥

ज्योतिर्लिंगं द्वितीयन्तद्दर्शनात्पूजनान्मुने । महासुखकरं चान्ते मुक्तिदन्नात्र संशयः ॥१२॥

हे तात! शिव का मल्लिकार्जुन नामक दूसरा अवतार श्रीशैल पर हुआ था, जो भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करता है। हे मुने! वे भगवान् शिव कैलासपर्वत से पुत्र कार्तिकेय को देखने के लिये अत्यन्त प्रीतिपूर्वक श्रीशैल पर गये और वहाँ लिंगरूपेण भक्तों के द्वारा संस्तुत हुए। हे मुने! उस द्वितीय ज्योतिर्लिंग की पूजा करने से महान् सुख की प्राप्ति होती है और अन्त समय में वह निःसन्देह मुक्ति प्राप्त करता है।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_१_(माहेश्वरखण्डः)/अरुणाचलमाहात्म्यम्_२/अध्यायः २

भ्रमरांबिकया देव्या महेशो मल्लिकार्जुनः । श्रीशैले सृष्टिसिद्धयर्थं पूजितः परमेष्ठिना ॥३९॥

पूर्व में सृजन की शक्ति प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा (परमेष्ठी) द्वारा श्रीशैल में मल्लिकार्जुन महादेव की भ्रमरांबिका देवी के साथ पूजा की गई थी।

अब चलते हैं...काशी में....

स्कन्दपुराणम्/खण्डः__(काशीखण्डः)/अध्यायः_०६९

प्रादुश्चकार देवेशः श्रीशैलात्त्रिपुरांतकः ॥ श्रीशैलशिखरं दृष्ट्वा यत्फलं समुदीरितम् ॥ ७३ ॥

त्रिपुरांतकमालोक्य तत्फलं हेलयाप्यते ॥ विश्वेरात्पश्चिमे भागे त्रिपुरांतकमीश्वरम् ॥ ७४ ॥

श्रीशैल से आकर देवाधिदेव त्रिपुरान्तक लिङ्ग काशीधाम में आविर्भूत हुआ है। श्रीशैल के शिखर के दर्शन से जो पुण्य "श्रीशैलशिखरं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते"  प्राप्त होने का वर्णन पुराणों में किया गया है, वह (काशी स्थित) त्रिपुरान्तकेश्वर के दर्शन से सहज ही प्राप्त हो जाता है। भक्तगण विश्वेश्वर के पश्चिम में स्थित इस लिङ्ग की परम भक्तिपूर्वक पूजा करें। इससे उनको पुनः गर्भयातना नहीं सहनी पड़ती।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः_४_(काशीखण्डः)/अध्यायः_००६

॥ लोपामुद्रोवाच ॥

श्रीशैलशिखरं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥ इदमेव हि सत्यं चेत्किमर्थं काशिरिष्यते ॥ १८ ॥

लोपामुद्रा कहती हैं - यदि श्रीशैल के शिखर का दर्शन पाकर पुनर्जन्म नहीं होता, यदि यह सत्य है, उस स्थिति काशीवास की कामना का क्‍या प्रयोजन?

॥ अगस्तिरुवाच ॥

आकर्णय वरारोहे सत्यं पृष्टं त्वयामले ॥ निर्णीतमसकृच्चैतन्मुनिभिस्तत्त्वचिंतकैः ॥ १९ ॥

मुक्तिस्थानान्यनेकानि कृतस्तत्रापिनिर्णयः ॥ तानि ते कथयाम्यत्र दत्तचित्ता भव क्षणम् ॥ २० ॥

प्रथमं तीर्थराजं तु प्रयागाख्यं सुविश्रुतम् ॥ कामिकं सर्वतीर्थानां धर्मकामार्थमोक्षदम् ॥ २१ ॥

नैमिषं च कुरुक्षेत्रं गंगाद्वारमवंतिका ॥ अयोध्या मथुरा चैव द्वारकाप्यमरावती ॥ २२ ॥

सरस्वती सिंधुसंगो गंगासागरसंगमः ॥ कांती च त्र्यंबकं चापि सप्तगोदावरीतटम् ॥ २३ ॥

कालंजरं प्रभासश्च तथा बद रिकाश्रमः ॥ महालयस्तथोंकारक्षेत्रं वै पौरुषोत्तमम् ॥ २४ ॥

गोकर्णो भृगुकच्छश्च भृगुतुंगश्च पुष्करम् ॥ श्रीपर्वतादि तीर्थानि धारातीर्थं तथैव च ॥ २५ ॥

मानसान्यपि तीर्थानि सत्यादीनि च वै प्रिये ॥ एतानि मुक्तिदान्येव नात्र कार्या विचारणा ॥ २६ ॥

गया तीर्थं च यत्प्रोक्तं पितॄणां हि मुक्तिदम् ॥ पितामहानामृणतो मुक्तास्तत्तनया अपि ॥ २७ ॥

महर्षि अगस्त्य कहते हैं-हे निष्पाप! तुमने उत्तम प्रश्न पूछा है। तत्वचिन्तक मुनियों ने इस सम्बन्ध में बारम्बार जो निश्चय किया है, उसे सुनों। मुक्तिप्रद स्थान तो अनेक हैं। जो-जो इसलिये निर्णीत हैं, उनके सम्बन्ध में श्रवण करो। इस विषय में कुछ समय ध्यान दो! प्रथम सुविख्यात तीर्थराज प्रयाग है। यह धर्मकामार्थ मोक्षदाता है। नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र-गंगाद्वार, अवन्ती, अयोध्या, मथुरा, द्वारका, गंगा, सरस्वती, सिन्धु संगमस्थल, गंगाद्वार, नदी संगमस्थल, कांची, ब्रह्मगिरि, सप्तगोदावरीतीर्थतट, कालञ्जर, प्रभास, बदरिकाश्रम, महास्थान, अमरकण्टक, श्रीक्षेत्र, गोकर्ण, भृगुकच्छ, भृगुतुंग, पुष्कर, श्रीपर्वत तथा धारातीर्थ प्रभृति बाह्मतीर्थ हैं। सत्य आदि मानसतीर्थ हैं। हे प्रिये! ये सभी तीर्थ मुक्तिदाता हैं। गंगाश्राद्ध करने वाले तथा उनके पुत्रगण पितर तथा पितामहों के ऋण से मुक्त हो जाते हैं।

काशीकांती च मायाख्या त्वयोध्याद्वारवत्यपि। मथुरावंतिका चैताः सप्त पुर्योत्र मोक्षदाः॥६८॥

श्रीशैलो मोक्षदः सर्वः केदारोपि ततोऽधिकः। श्रीशैलाच्चापि केदारात्प्रयागं मोक्षदं परम्॥६९॥

प्रयागादपि तीर्थाग्र्यादविमुक्तं विशिष्यते। यथाविमुक्ते निर्वाणं न तथाक्वाप्यसंशयम्॥७०॥

अन्यानि मुक्तिक्षेत्राणि काशीप्राप्तिकराणि च। काशीं ध्यायमिमं श्रुत्वा नरो नियतमानसः॥७१॥

पृथिवी पर काशी, काञ्ची, मायापुरी, द्वारका, अयोध्या, मथुरा तथा अवन्ती को मोक्षदा सप्तपुरी कहा गया है। समस्त श्रीशैल मुक्तिप्रद है। उससे अधिक केदार है। प्रयाग तो श्रीशैल तथा केदार से भी उत्तम तथा मुक्तिदायक है। तीर्थराज प्रयाग से भी विशिष्ट है अविमुक्त क्षेत्र। जैसा निर्वाण अविमुक्त क्षेत्र में प्राप्त होता है वैसा कहीं नहीं होता, यह निश्चित है। अन्य सभी मुक्तिक्षेत्र काशी प्राप्ति कराते हैं। काशी प्राप्ति के अनन्तर ही निर्वाण प्राप्ति होती है। अन्य प्रकार से किंवा कोटितीर्थ निवास द्वारा भी निर्वाण मुक्ति का लाभ नहीं होता।

पद्मपुराणम्/खण्डः_६_(उत्तरखण्डः)/अध्यायः_०१९

॥ युधिष्ठिर उवाच ॥

श्रीशैलः पर्वतो रम्यः कुत्र तिष्ठति नारद ॥

किं तत्र वर्त्तते तीर्थं कस्य देवस्य पूजनम् । कस्यां दिशि समाख्यातो लोकेषु च वदाधुना ॥१॥

युधिष्ठिर ने कहा: हे नारद जी! वह मनोरम पर्वत श्रीशैल कहाँ है? वहाँ कौन-सा पवित्र स्थान है? वहाँ किस देवता की पूजा की जाती है? अब बतायें कि यह किस दिशा में स्थित है?

॥ नारद उवाच ॥

शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि श्रीशैलं पर्वतोत्तमम् । यं श्रुत्वा मुच्यते लोको बालहत्यादि पातकात् ॥२॥

तत्पर्वतवनं रम्यं मुनिभिश्चोपसेवितम् । नानाद्रुमलताकीर्णं नानापुष्पोपशोभितम् ॥३॥

हंसकोकिलनादैश्च मयूरध्वनिनादितम् । श्रीवृक्षैश्च कपित्थैश्च शिरीषै राजवृक्षकैः ॥४॥

पारिजातकपुष्पैश्च कदंबोदुंबरैस्तथा । नानापुष्पैः सुगंधाढ्यैर्वासितं तद्वनं गिरौ ॥५॥

हे राजन! सुनो, मैं सर्वोत्तम श्रीशैल पर्वत का वर्णन करूंगा, जिसके श्रवण से लोग शिशुहत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं। पहाड़ पर उपवन मनमोहक है और ऋषि-मुनि इसका सहारा लेते हैं। यह अनेक प्रकार के पुष्पों से सुशोभित अनेक वृक्षों और लताओं से परिपूर्ण है। यह हंसों और कोयल के स्वरों से गुंजायमान है। पर्वत उपवन श्री वृक्षों, कपित्थ वृक्षों, शिरीष, पारिजातक फूलों, कदम्बों और उडुंबरों के साथ, कई सुगंधित फूलों के साथ तथा राज वृक्षों से सुवासित है।

सर्वाभिरृषिपत्नीभिः सशिष्याभिः सुसेवितम् । केचिदभ्यासयुक्ताश्च केचिद्व्याख्यानतत्पराः ॥६॥

केचिदूर्ध्वभुजास्तत्र अंगुष्ठाग्रैः स्थिताः परे । शिवध्यानरताः केचित्केचिद्विष्णुपरायणाः ॥७॥

निराहाराश्च केप्यत्र केचित्पर्णाशने रताः । कंदमूलफलाहाराः केचिन्मौनव्रताः स्थिताः ॥८॥

एकपादाः स्थिताः केचित्केचित्पद्मासने स्थिताः । केचिच्चैव निराहारास्तपस्तेपुः सुदुष्करम् ॥९॥

सभी ऋषि-मुनियों की पत्नियाँ अपने शिष्यों के साथ इसका आश्रय लेती हैं। कोई अध्ययन में रत है तो कोई व्याख्यान में। वहाँ कुछ ने हाथ खड़े कर दिये हैं; अन्य लोग अपने पैरों की उंगलियों पर खड़े हैं। कुछ शिव के ध्यान में लीन हैं; अन्य विष्णु को समर्पित हैं। कुछ तपस्वी कुछ नहीं खा रहे हैं; कुछ केवल पत्तों के सहारे हैं। कुछ कंद, जड़ और फल खाते हैं; अन्य लोगों ने मौन व्रत रखा है। कुछ एक पैर पर खड़े हैं; कुछ पद्मासन मुद्रा में बैठे हैं। कुछ लोगों ने बिना भोजन किये बहुत कठिन तपस्या की है।

आश्रमाणि च पुण्यानि नद्यश्च विविधाः शुभाः । देवखातान्यनेकानि तडागानि बहूनि च ॥१०॥

पर्वतोऽयं महाराज दृश्यते किल सर्वतः । मल्लिकार्जुनको राजन्यत्र तिष्ठति नित्यशः ॥११॥

तच्चैव शिखरं रम्यं पर्वतोपरि सेवितम् । शृंगदर्शनमात्रेण मुक्तिरेव न संशयः ॥१२॥

दक्षिणां दिशमाश्रित्य वर्त्तते पर्वतोत्तमः । अत्र गंगा महद्रम्या पातालेति समाश्रिता ॥१३॥

वहां शुभ आश्रम और अनेक सुन्दर नदियाँ हैं। यहां कई प्राकृतिक तालाब और कई कुंड हैं। हे राजन! यह पर्वत सर्वत्र से दिखाई देता है जिस पर मल्लिकार्जुन सदैव विराजमान रहते हैं। पर्वत की चोटी पर एक मनमोहक शिखर है, जिसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसमें कोई संदेह नहीं। दक्षिण की ओर जाने पर यह पर्वतोत्तम दृष्टिगोचर होता है। यहाँ अत्यंत सुन्दर पातालगंगा है।

तत्र च स्नानमात्रेण महापापैः प्रमुच्यते । श्रीशैलशिखरं दृष्ट्वा वाराणस्यां मृतौ ध्रुवम् ॥१४॥

केदारे ह्युदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते । तापसानां महत्स्थानं योगिनां च तथैव च ॥१५॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन दर्शनं तस्य कारयेत् । अयं विज्ञानदेवोऽसौ महापातकनाशनः ॥१६॥

सिद्धपुरं च नगरं रम्यं स्वर्गसुखावहम् । नित्यमप्सरसो यत्र गायंति च रमंति च ॥१७॥

अतः पर्वताराजोऽयं दर्शने सौख्यकारकः । तस्य तैर्दर्शनं कार्यं मुक्तिमिच्छंति ये नराः ॥१८॥

पातालगंगा में स्नान करने मात्र से ही मनुष्य महान पापों से मुक्त हो जाता है। श्रीशैल शिखर के दर्शन करने से, वाराणसी में मरने से तथा केदार में जल पीने से निश्चय ही पुनर्जन्म नहीं होता है। यह तपस्वियों और ध्यानमग्न संतों का महान स्थान है। अत: हर प्रयत्न के साथ इसका दर्शन करना चाहिए। यह विज्ञानदेव (ज्ञान के देवता) हैं। वह महान पापों का नाश करते हैं। वहाँ दिव्य सुख प्रदान करने वाला मनमोहक सिद्धपुर नगर है, जिसमें दिव्य देवांगनाएँ गाती हैं और आनन्द मनाती हैं। अत: इस श्रेष्ठ पर्वत (श्रीशैल) को देखने से दिव्या आनंद प्राप्त होता है। जो मनुष्य मोक्ष की इच्छा रखते हैं, उन्हें इसका दर्शन अवश्य करना चाहिए।

इति श्रीपाद्मे महापुराणे पंचपंचाशतसहस्रसंहितायां उत्तरखंडे श्रीशैलोपाख्याने एकोनविंशोऽध्यायः ॥१९॥


शिवपुराणम्/संहिता_४_(कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः_१५

॥ सूत उवाच ॥

अतः परं प्रवक्ष्यामि मल्लिकार्जुनसंभवम् ॥ यः श्रुत्वा भक्तिमान्धीमान्सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १ ॥

पूर्वं चा कथितं यच्च तत्पुनः कथयाम्यहम् ॥ कुमारचरितं दिव्यं सर्वपापविनाशनम् ॥२॥

सूतजी बोले - हे ऋषियो! इसके बाद मैं मल्लिकार्जुन की उत्पत्ति का वर्णन करूँगा, जिसे बुद्धिमान् भक्त सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। पहले मैंने कार्तिकेय के जिस चरित्र का वर्णन किया था, पापों का नाश करने वाले उस दिव्य चरित्र का सुनकर पुनः वर्णन करता हूँ :

यदा पृथ्वीं समाक्रम्य कैलासं पुनरागतः ॥ कुमारस्स शिवापुत्रस्तारकारिर्महाबलः ॥ ३ ॥

तदा सुरर्षिरागत्य सर्वं वृत्तं जगाद ह ॥ गणेश्वरविवाहादि भ्रामयंस्तं स्वबुद्धितः ॥ ४ ॥

तच्छुत्वा स कुमारो हि प्रणम्य पितरौ च तौ ॥ जगाम पर्वतं क्रौचं पितृभ्यां वारितोऽपि हि ॥ ५ ॥

कुमारस्य वियोगेन तन्माता गिरिजा यदा ॥ दुःखितासीत्तदा शंभुस्तामुवाच सुबोधकृत् ॥ ६ ॥

कथं प्रिये दुःखितासि न दुःखं कुरु पार्वति ॥ आयास्यति सुतः सुभ्रूस्त्यज्यतां दुःखमुत्कटम् ॥ ७ ॥

जब तारक का वध करने वाले महाबलवान् पार्वतीपुत्र कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा कर कैलास पर पुनः आये, उस समय देवर्षि नारद ने वहाँ आकर अपनी बुद्धि से उन्हें भ्रमित करते हुए गणेश के विवाह आदि का सारा वृत्तान्त कहा। इसे सुनकर अपने माता-पिता के मना करने पर भी वे कुमार उनको प्रणामकर क्रौंचपर्वत पर चले गये। जब माता पार्वती कार्तिकेय के वियोग से बहुत दुखी हुईं, तब शिवजी ने उन्हें समझाते हुए कहा - हे प्रिये! तुम दुखी क्यों हो रही हो, हे पार्वति! हे सुभ्रू! दुःख मत करो, तुम्हारा पुत्र अवश्य लौट आयेगा; तुम इस महान् दुःख का त्याग करो

सा यदा च न तन्मेने पार्वती दुःखिता भृशम् ॥ तदा च प्रेषितास्तत्र शंकरेण सुरर्षयः ॥ ८ ॥

देवाश्च ऋषयस्सर्वे सगणा हि मुदान्विताः ॥ कुमारानयनार्थं वै तत्र जग्मुः सुबुद्धयः ॥ ९ ॥

तत्र गत्वा च ते सर्वे कुमारं सुप्रणम्य च ॥ विज्ञाप्य बहुधाप्येनं प्रार्थनां चक्रुरादरात् ॥ १० ॥

देवादिप्रार्थनां तां च शिवाज्ञासंकुलां गुरुः ॥ न मेने स कुमारो हि महाहंकारविह्वलः ॥ ११ ॥

ततश्च पुनरावृत्य सर्वे ते हि शिवांतिकम् ॥ स्वंस्वं स्थानं गता नत्वा प्राप्य शंकरशासनम् ॥१२॥

तदा च गिरिजादेवी विरहं पुत्रसंभवम् ॥ शंभुश्च परमं दुःखं प्राप तस्मिन्ननागते ॥ १३ ॥

शंकरजी के बारंबार कहने के बाद भी जब पार्वती को सन्तोष नहीं हुआ, तो उन्होंने देवताओं तथा ऋषियों को कुमार के पास भेजा। उसके बाद गणों को साथ लेकर सभी बुद्धिमान् देवता एवं महर्षि प्रसन्न होकर कुमार को लाने के लिये वहाँ गये। वहाँ जाकर कुमार को भलीभाँति प्रणाम करके उन्हें अनेक प्रकार से समझाकर उन सभी ने आदरपूर्वक प्रार्थना की। तब स्वाभिमान से उद्दीप्त उन कार्तिकेय ने शिवजी की आज्ञा से युक्त उन देवगणों की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया। तत्पश्चात् वे सभी लोग पुनः शिवजी के समीप लौट आये और उन्हें प्रणामकर शिवजी से आज्ञा ले अपने-अपने धाम को चले गये। तब उनके न लौटने पर शिवजी एवं पार्वती को पुत्रवियोगजन्य महान् दुःख प्राप्त हुआ

अथो सुदुःखितौ दीनौ लोकाचारकरौ तदा ॥ जग्मतुस्तत्र सुस्नेहात्स्वपुत्रो यत्र संस्थितः ॥ १४ ॥

स पुत्रश्च कुमाराख्यः पित्रोरागमनं गिरेः ॥ ज्ञात्वा दूरं गतोऽस्नेहाद्योजनत्रयमेव च ॥ १५ ॥

क्रौंचे च पर्वते दूरं गते तस्मिन्स्वपुत्रके ॥ तौ च तत्र समासीनौ ज्योतीरूपं समाश्रितौ ॥ १६ ॥

इसके बाद वे दोनों लौकिकाचार प्रदर्शित करते हुए अत्यन्त दीन एवं दुखी हो परम स्नेहवश वहाँ गये, जहाँ उनके पुत्र कार्तिकेय रहते थे। तब वे पुत्र कार्तिकेय माता- पिता का आगमन जान स्नेहरहित हो उस पर्वत से तीन योजन दूर चले गये। अपने पुत्र के दूर चले जाने पर वे दोनों ज्योतिरूप धारणकर वहीं क्रौंचपर्वत पर विराजमान हो गये

पुत्रस्नेहातुरौ तौ वै शिवौ पर्वणिपर्वणि ॥ दर्शनार्थं कुमारस्य स्वपुत्रस्य हि गच्छतः ॥ १७ ॥

अमावास्यादिने शंभुस्स्वयं गच्छति तत्र ह ॥ पौर्णमासीदिने तत्र पार्वती गच्छति ध्रुवम् ॥ १८ ॥

तद्दिनं हि समारभ्य मल्लिकार्जुनसंभवम् ॥ लिंगं चैव शिवस्यैकं प्रसिद्धं भुवनत्रये ॥ १९ ॥

तल्लिंगं यः समीक्षेत स सर्वैः किल्बिषैरपि ॥ मुच्यते नात्र सन्देहः सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ २० ॥

दुःखं च दूरतो याति सुखमात्यंतिकं लभेत् ॥ जननीगर्भसंभूतं कष्टं नाप्नोति वै पुनः ॥ २१ ॥

धनधान्यसमृद्धिश्च प्रतिष्ठारोग्यमेव च ॥ अभीष्टफलसिद्धिश्च जायते नात्र संशयः ॥ २२ ॥

ज्योतिर्लिंगं द्वितीयं च प्रोक्तं मल्लिकसंज्ञितम् ॥ दर्शनात्सर्वसुखदं कथितं लोकहेतवे ॥२३ ॥

पुत्रस्नेह से व्याकुल हुए वे शिव तथा पार्वती अपने पुत्र कार्तिकेय को देखने के लिये प्रत्येक पर्व पर वहाँ जाते हैं। अमावास्या के दिन साक्षात् शिव वहाँ जाते हैं तथा पूर्णमासी के दिन पार्वती वहाँ निश्चित रूप से जाती हैं।उसी दिन से लेकर मल्लिका (पार्वती) तथा अर्जुन (शिवजी) का मिलित रूप वह अद्वितीय शिवलिंग तीनों लोकों में हुआ। जो मनुष्य उस लिंग का दर्शन करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है और समस्त मनोरथों को प्राप्त कर लेता है; इसमें सन्देह नहीं है। उसका दुःख सर्वथा दूर हो जाता है, वह परम सुख प्राप्त करता है, उसे माता के गर्भ में पुनः कष्ट नहीं भोगना पड़ता है, उसे धन-धान्य की समृद्धि, प्रतिष्ठा, आरोग्य तथा अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है; इसमें संशय नहीं। यह मल्लिकार्जुन नामवाला दूसरा ज्योतिर्लिंग कहा गया है, जो दर्शनमात्र से सभी सुख प्रदान करता है; मैंने लोककल्याण के लिये इसका वर्णन किया

इति श्रीशिवपुराणे चतुर्थ्यां कोटि रुद्रसंहिताया मल्लिकार्जुनद्वितीयज्योतिर्लिंगवर्णनंनाम पंचदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

कृष्णा नदी तीर्थ (पातालगंगा), काशी 
पातालगंगा, काशी
पातालगंगा मार्ग, काशी 

शिवपुराणम्/संहिता_४_(कोटिरुद्रसंहिता)/अध्यायः_०१

मल्लिकार्जुनसंभूतमुपलिंगमुदाहृतम् । रुद्रेश्वरमिति ख्यातं भृगुकक्षे सुखावहम् ।।३६।।

भृगुकच्छ में स्थित परम सुखदायक रुद्रेश्वर नामक लिंग ही मल्लिकार्जुन से प्रकट हुआ उपलिंग कहा गया है।


भृगुकच्छ (भरूच) : भृगुकच्छ भड़ौंच नगर का प्राचीन नाम है। यहीं महर्षि भृगु का आश्रम था। भरूच प्राचीन काल में 'भरुकच्छ' या 'भृगुकच्छ' के नाम से प्रसिद्ध था। भरुकच्छ एक संस्कृत शब्द है, जिसका तात्पर्य ऊँचा तट प्रदेश है। भड़ौच प्राक् मौर्य काल का एक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह था। इसके बाद के कई सौ वर्षों तक इसका महत्त्व बना रहा और आज भी है।



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त्रिपुरांतकेश्वर महादेव श्रीशैलम (सिगरा टीला) डी.59/95 वाराणसी में स्थित है।
Tripurantakeshwar Mahadev is located at D.59/95 Srisailam (Sigra Tila) Varanasi.

For the benefit of Kashi residents and devotees:-

From : Mr. Sudhanshu Kumar Pandey - Kamakhya, Kashi


काशीवासी एवं भक्तगण हितार्थ:-                                                   

प्रेषक : श्री सुधांशु कुमार पांडेय - कामाख्याकाशी

॥ हरिः ॐ तत्सच्छ्रीशिवार्पणमस्तु ॥


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